सरकशी है लहजे में तल्खियाँ हैं तेवर में,
इन दिनों ये आलम है शहर शहर घर घर में।
पूजने लगे हैं हम जिन दिनों से पत्थर को,
उन दिनों से हम शायद ढल रहे हैं पत्थर में।
जब मिला अकेले में तब पता चला मुझको,
शख्श है वही लेकिन एक और पैकर में।
हम पहुँच चुके होते कब के अपनी मंज़िल तक,
पर भटक गये रस्ता,राहबर के चक्कर में।
लेन – देन होता है भूल चूक होती है,
सब लिखा हुआ होता अस्ल में मुकद्दर में।
जो बचा -खुचा है वो काम का नहीं कोई,
वक़्त कीमती जो था, रह गया वो दफ़्तर में।
लेखक
-
संजीव प्रभाकर जन्म : 03 फरवरी 1980 शिक्षा: एम बी ए एक ग़ज़ल संग्रह ‘ये और बात है’ प्रकाशित और अमन चाँदपुरी पुरस्कार 2022 से पुरस्कृत आकाशवाणी अहमदबाद और वडोदरा से ग़ज़लों का प्रसारण भारतीय वायुसेना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्त सम्पर्क: एस-4, सुरभि - 208 , सेक्टर : 29 गाँधीनगर 382021 (गुजरात) ईमेल: sanjeevprabhakar2010@gmail.com मोब: 9082136889 / 9427775696
View all posts