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Month: दिसम्बर 2024

उम्मीद बँधी है एक तुम्हीं से सिर्फ़ तुम्हारे हैं/ग़ज़ल/सुभाष पाठक’ज़िया’

उम्मीद बँधी है एक तुम्हीं से सिर्फ़ तुम्हारे हैं तुम नदिया, तुम सागर हो हम पानी के धारे हैं उसने मेरा हाथ नहीं छोड़ा घोर अंधेरे में सुना यही था साये तब तक, जब तक उजियारे हैं दुनिया की बातें मत छेड़ो हमको क्या है मालूम उसकी धुन में रहते हैं अपनी धुन के मारे […]

घोंसले से झाँककर कहती है चिड़िया, पेड़ मत काटो/ग़ज़ल/सुभाष पाठक’ज़िया’

घोंसले से झाँककर कहती है चिड़िया, पेड़ मत काटो सूख जाएंगे सभी तालाब दरिया, पेड़ मत काटो मैं ये ग़ज़लों में बताऊँ पेड़ अब हमको लगाने हैं और कविता लिख रही है मेरी बिटिया, पेड़ मत काटो प्राणवायु ख़ूब देते, धूप से हमको बचाते हैं सच कहें तो हम सभी की हैं ये दुनिया, पेड़ […]

फूल पत्ते खिल उठेंगे तुम जड़ों पर ध्यान देना/ग़ज़ल/सुभाष पाठक’ज़िया’

फूल पत्ते खिल उठेंगे तुम जड़ों पर ध्यान देना सब शजर ऊँचे बढ़ेंगे तुम जड़ो पर ध्यान देना शक्ल सूरत को संवारो आत्मा दिखती है किसको लोग तो कुछ भी कहेंगे तुम जड़ों पर ध्यान देना सौ दुखों की इक दवा है सौ सुखों का इक सबब है हम तो ये कहते रहेंगे तुम जड़ों […]

नई कहानी हूँ क़िस्सा सुना सुनाया नईं/ग़ज़ल/सुभाष पाठक’ज़िया’

नई कहानी हूँ क़िस्सा सुना सुनाया नईं मैं ताज़ा बूँद हूँ,पानी बहा बहाया नईं भले बुलंदी ज़रा कम हो पर वो अपनी हो मक़ाम चाहिए ख़ुद का बना बनाया नईं फ़क़त तू राह दिखा दौड़ मैं लगाऊँगा मुझे चराग़ दे लेकिन जला जलाया नईं अभी तलक तो यहाँ आना चाहिए था उसे किसी से मैंने […]

है नींद एक नशा और ख़्वाब धोखा है/ग़ज़ल/सुभाष पाठक’ज़िया’

है नींद एक नशा और ख़्वाब धोखा है ये बात आँख न समझेगी इसपे पर्दा है न पूछियेगा अभी हाल ज़िन्दगानी का क़रीब आग के सूखा कपास रक्खा है क़सूर जिस्म का क्या ये ग़ुलाम है प्यारे किसी को हाथ नहीं मन हमारा छूता है जो कर गुज़रना है तुमको वो कर गुज़र जाओ बुरे […]

हम ख़ुद को अक्सर यूँ समझाने लगते हैं/ग़ज़ल/सुभाष पाठक’ज़िया’

हम ख़ुद को अक्सर यूँ समझाने लगते हैं छोड़ो ना दूर के ढोल सुहाने लगते हैं सच्चा तो बेपर्दा बाहर आ जाता है झूठे को लेकिन लाख बहाने लगते हैं मिट्टी पानी धूप का बैलेंस ज़रूरी है कम ज़्यादा से पौधे मुरझाने लगते हैं मालूम हमें वो पागल है हरजाई है फिर भी उसकी बातों […]

अचेतन और चेतन मन के झगड़ों में फंसा हूँ मैं/ग़ज़ल/सुभाष पाठक’ज़िया’

अचेतन और चेतन मन के झगड़ों में फंसा हूँ मैं इधर सागर उधर नदिया न जाने यार क्या हूँ मैं मेरी ही रौशनी बिखरी कभी इसमें कभी उसमें कई बदले हैं घर लेकिन मुसलसल जल रहा हूँ मैं न चेहरा याद है मुझको न पैकर याद है कोई फ़क़त अहसास है जिससे मुहब्बत कर रहा […]

इस जहां से मिला जुला हूँ मैं/ग़ज़ल/सुभाष पाठक’ज़िया’

इस जहां से मिला जुला हूँ मैं, कौन सा दूध का धुला हूँ मैं। ग़ौर से देख मैं समन्दर हूँ, कौन कहता है बुलबुला हूँ मैं। कब खुली आँख से दिखा उसको, बंद की आँख तब खुला हूँ मैं। मेरी सीरत नमक के जैसी है, आंसुओं में तेरे घुला हूँ मैं। ज़िन्दगी भी तो मौत […]

हवा को साफ़ नदी ताल को भरे रखना/ग़ज़ल/सुभाष पाठक’ज़िया’

हवा को साफ़ नदी ताल को भरे रखना, ये चाहते हो तो जंगल सभी हरे रखना। सुखों दुखों का ही हासिल है ज़िन्दगी यारब, कहीं पे धूप कहीं छांव भी करे रखना। बुलंदियों से ख़ुदाया नवाज़ना मुझको, मगर ग़ुरूर हसद झूठ से परे रखना। किसी के खोटे सौ सिक्कों से लाख बेहतर है, भले हों […]

सर्वसुपूजित राम हैं/गीत/नन्दिता शर्मा माजी

सत्कर्मो की सोच जहाँ है, वहीं सुवन्दित राम हैं। जहाँ जहाँ मर्यादा है बस, वहीं उपस्थित राम हैं ।। निश्छल, निर्मल, उज्ज्वल उर हो, पावन धड़कन हो जिसमें। अटल प्रबल निश्चय हो जिसका, तनिक न विचलन हो जिसमें।। दृढ़ निश्चय प्रणबद्ध जहाँ है, कृतसंकल्पित राम हैं। जहाँ जहाँ मर्यादा है बस, वहीं उपस्थित राम हैं।। […]

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