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खंडहर/फणीश्वरनाथ रेणु

लड़ाई, झगड़ा, घटना, दुर्घटना, हादसा-इस तरह की कोई भी बात नहीं हुई।

तीन भहीने पर गोपालकृष्ण गाँव लौटा था।

शाम को बाबूजी ने, लम्बी-चौड़ी भूमिका बाँधकर, दीन-दुनिया के नीच-ऊँच दिखाकर, बड़े प्यार से कहा-‘ “गोपाल बजुआ!

परसों शिवचलित्तर बाबू से कचहरी में भेंट हुई थी। कुशल-समाचार पूछन के बाद तुम्हारे बारे में भी बातें हुईं। बोले कि-गोपाल तो आजकल हम लोगों से भेंट भी नहीं करता है। जिला पबलिसिटी ऑफिसर की जगह खाली है। लेकिन सवाल है कि आवारागर्दी छोड़े तब तो! ढाई सौ रुपए माहवार, भत्ता, फिर एक लाउडस्पीकर और एक जीप-गाड़ी…”

बीच में ही गोपाल हँंसकर उठ खड़ा हुआ था। बाबूजी की आँखें लाल हो गई थीं-दुख से, दर्द से, गुस्से से। एक धक्का-सा लगा था; पुराने मकान की दीवार में अचानक दरारें पड़ गई थीं।

श्रीयुत्त गोपालकृष्णजी! लीडर साहब! लेखकजी!

राजकुमार की तरह से पाला।

शहर में, तारा बाबू वकील के बच्चों को जो कुछ भी खाते-पहनते देखा, इसे खिलाया, पहनाया।

सीधे शहर में पढ़ने भेजा । पढ़ाई का खर्च! जब कभी भोला-भाला-सा मुँह बनाकर सामने आ खड़ा होता, पैसों की माँग करता; बस जमा-खरच लेना भूल जाता। ज्यों-ज्यों वकालत पास [करने] की मंजिल करीब आती गई, मुट्ठी खोलकर रुपए देता गया। मगर कानून पढ़ने के पहले ही सरकार बहादुर का कानून तोड़ बैठा, जेल गया। पैरवी करने गया तो वकीलों ने हँसकर कहा-अरे क्‍या कीजिएगा पैरवी करके, आपका बेटा तो लीडर हो गया। अब क्‍या चाहिए!…जिस दिन जेल से रिहा हुआ, शहर के धूमधाम, उसके गले में फूलमाला और “गोपाल बाबू की जय! सुनकर मेरा भी मन बदल गया। सोचा, चलो नहीं पास किया तो नहीं। 42 के आन्दोलन में, घर छोड़कर, बाल-बच्चों के साथ रिश्तेदारों के यहाँ जब भटकना और अपमानित होना पड़ता था, सह लेता था।

घर की चीजें कुर्क हुईं, खलिहान लुटवा दिया गया। सब हुआ, मगर इसकी याद आते ही सब भूल जाता था। ताना देकर जब कोई कहता कि अच्छा सपूत निकला गोपाल, तो गांधीजी और जवाहरलाल की बात सुनाकर उसका मुंह बन्द कर देता था।

खैर, वह जमाना भी बीता। अच्छे दिन आए, कांग्रेस का राज हुआ। एम.एल.ए. नहीं हुआ तो कोई बात नहीं, नौकरी नहीं की तो कोई हर्ज नहीं। मगर एम.एल.ए. और सरकारी अफसरों से हेल-मेल रखने में इसकी कौन-सी इज्जत खराब हो जाती। मुरली प्रसाद सब दिन से कांग्रेस के खिलाफ रहा, कांग्रेसियों को गाली देता रहा। ’42 में पुलिसवालों के साथ घरों में आग लगवाता फिरा। लेकिन उसका बेटा आज कांग्रेस का प्रेसिडेंट है, अफसरों के साथ मोटर में घूमता है, मिल के मालिक, करोड़पति सब उसके आगे हाथ बाँधे खड़े रहते हैं। और एक यह हैं! सुराज-सुराज हल्ला करते थे, सुराज भी मिला। अब क्‍या लोगे? आसमान का चाँद ?…बाबू गोपालकृष्ण, सोशलिस्ट लीडर, लेखक! इसके पीछे घर बर्बाद हो गया। इसके कारण जमींदार से बैठे-बिठाए दुश्मनी हो गई, जमीन नीलाम हो गई, इज्जत मिट्टी में मिल गई ।…और जिन्दगी में पहली बार जो जी खोलकर मन का अरमान सुनाया तो हँस पड़ा। माँ की उँगलियों के छल्ले सेठजी के यहाँ बन्धक पड़ गए और ‘पूँजीवाद नाश हो” का नारा लगाते हैं। घर के लोगों को तो एक शाम खिला नहीं सकते, दुनिया के मजदूरों की चिन्ता से दुबले हो रहे हैं। लेखक बने हैं, कहानियाँ लिखते हैं और अपने घर की कहानी पढ़ नहीं सकते। कमाना नहीं, सिर्फ खाना जानते हैं। पहले “क’ तब ‘ख’। पहले “कमाओ’ तब “खाओ’।

सो नहीं गोपाल की माँ ने आकर खाने की बात पूछी तो मुँह नोचने को तैयार हो गए। बूढ़ी की समझ में बात नहीं आई। छोटे बेटे भूपाल ने सारी बातें सुनाईं। सुनकर बूढ़ी का गला भी भर आया। चुपचाप आँगन में लौट आई। मन-ही-मन कुढ़ गई-भगवान जाने लड़के को क्‍या हो गया है। मुझसे तो कभी बोलता भी नहीं है। महीनों के बाद घर आता है तो टिकने का नाम नहीं लेता। अरे, माँ-बाप अब कितने दिन हैं। अपना जो धरम था सो निभाया। भले की बात नहीं कहेंगे? इसमें हँसने की कौन-सी बात थी! जिसने पैदा किया उसी पर हँसते हो!

हँसो, पढ़-लिखकर पंडित बने हो, तुम्हारे सामने माँ-बाप क्या हैं?

कुछ नहीं।

और बाप ने गोपाल बबुआ छोड़कर ‘रे गोपाल! भी कभी नहीं कहा ।

भूपाल को तो कभी फूटी आँख से भी नहीं देखा, बाप ने। भूपाल को सब लंठ कहते हैं, पढ़ा-लिखा नहीं है, दिन-भर अकेला खेतों में लगा रहता है, फिर भी झिड़की सुनता है। पर कभी तो बाप के मुँह पर जवाब नहीं दिया। वैसी ही हैं रानीजी! बाप के घर में तो महीने में पन्द्रह दिन एकादशी होती है और यहाँ रानी बनी बैठी रहती हैं। एक-न-एक बीमारी लगी रहती है। दोनों प्राणी में एक भी तो हाथ-पैर हिलावे। भूपाल की बहू कुछ बोली कि महाभारत मचा देती है। मैं कुछ नहीं बोलती, लेकिन भूपाल की बहू दिन-भर रसोईघर में खटती है, उसे तो बोलने का हक है। बात बर्दाश्त नहीं करती तो लाट साहब के साथ ही क्‍यों नहीं रहती है? साथ रखे तो उन्हें भी आटे-दाल का भाव मालूम हो ।”

जाबुजी नहीं ख़ाएेंगे क्या भूपाल की बहू ने आकर पूछा ‘नहीं । बंसी की माँ से से कहो न, भोपाल को परोस दे। माँ भाड़ी गले से बोली। बंसी की माँ ने सुना तो फट पड़ी — हाँ वे क्यों नहीं खाएंगें। पेट पोसने के लिए ही तो घर आते है। कत्तों को भी अकल होती है, वे खाना देनेवालों की भौं से उनके भन की बात समझ लेले है , मगर ये उससे भी…”-बात अधूरी छोडकर, गुस्से में पाँव पटकती हुई वह पड़ोस की भौसी के आँगन की ओर चली। वह अन्दर ही अन्दर रो रही थी।

इनके कारण अब हस घर में रहना मुश्किल है। ये तो कुछ समझते नहीं, झिड़कियाँ और ताने मुझे सहने पड़ते हैं। और मुझे ही कौन कलेजे से लगाए रहते हैं जो इनके लिए बातें सुनूँ। मन का कोई भी शौक पूरा नहीं कर सकी। कभी अपने हाथ से एक फटी हुई चादर भी जो लाकर देते! रमिया का पति भी तो कांग्रेस में है, घर में गाँठ के गाँठ कपड़े भरे पड़े हैं। आजकल रोज सोनार की दुकान लगी रहती है उसके यहाँ। और एक यह हैं मिट्टी के माधो! आग लगे जेवर और कपड़े में! घर में रहें तो समझूँ कि सबकुछ है। एक दिन के लिए कभी आए भी तो मुँह से गिनकर बात निकालेंगे। मुझसे ऐसी बात करेंगे, मानो धोबिन को गन्दे कपड़ों का हिसाब बता रहे हों। कलेजे पर पत्थर धरकर इतने दिनों तक सही, अब नहीं। कहाँ से मरने के लिए एक अभागिन जो गोद में आई है सो इनके हाथ में हमेशा आग लगी रहती है। एक पैसे का बिस्कुट भी बेचारी को कभी नहीं लाकर देते। दूध-दही आँखों के आगे ही बिला जाता है। बिचारी को एक चम्मच भी कभी मयस्सर नहीं होता। जिसको बाप ही नहीं देगा उसे दूसरे क्या देंगे?…चन्दू की माँ की बातें याद आती हैं तो कलेजा फटने लगता है। कहती थी, अरे तू तो राजरानी बनेगी, राजरानी! सुराज हो गया है, अब सुराजी का राज है।

अब काहे की फिक्र!

सो पास-पड़ोसन साड़ी की चिधियाँ देखकर ताना देती हैं। घर से निकलना भी मुश्किल है। मेरी मौत भी नहीं आती…”

यों भागी गले से बोली घाँगने के लि रसोईघर में भूपाल ने थाली पर बैठते हुए बहू से पूछा-“नेताजी का भोग लग गया?” अपने व्यंग्य पर आप ही वह मुस्कुराया। बहू ने परोसते हुए कहा-“अभी रानीजी फूल लाने गई हैं!”

एक घर के ओसारे पर भूपाल का बेटा केदार, पड़ोस के दो-तीन बच्चे और बॉँसुरी आपस में बत-कटौअल कर रहे थे। चार साल की बाँसुरी ने फटे हुए फ्राक पर बाप की ढीली-ढीली बंडी पहन ली थी। केदार उसकी बेढब पोशाक पर हँसता। बाँसुरी मुँह बनाकर कहती-“मेरे बाबूजी आए हैं /” पड़ोस का एक बदमाश लड़का बोल उठता-“तुम्हारे बाबूजी का नाम गोपाल। गोपाल बजावे गाल ।” बाँसुरी कहती-“मैं बाबूजी के साथ मेला जाऊँगी।” केदार कहता-“मैं मामूजी के यहाँ जाऊँगा। मेरे मामूजी को मोतर गारी है। तम्हारे माम को हैं?” बाँसुरी कुछ क्षण चुप रहकर जवाब देती-“’मुझे बाब॒जी मोटर ला देंगे।” सब बच्चे हैंस पड़ते-‘ ‘लुपया कहाँ है जो लावेंगे मोतर गारी ।” बाँसरी हारकर चिल्लाती-‘ ‘बाबजी !’

गोपाल दरवाजा बन्द कर अपने कमरे में लिख रहा था-‘पूँजीवादी समाज ने मध्यवर्ग, विशेषतया निम्नमध्यवर्ग और सर्वहारा वर्ग के दैनिक जीवन मेँ जैसी विकृतियाँ पैदा की हैं, उनका चित्रण तीव्र अनुभूति के माध्यम से हो। ये विकृतियाँ जीवन के हरेक पहलू में वर्तमान हैं–पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक । सम्पूर्ण भावसत्ता विकृत हो गई है। क्‍या वह स्त्री-पुरुष का प्रेम हो, सनन्‍्तान-प्रेम हो आदि-आदि। सारा जीवन विश्वृंखल है-व्यक्ति का हर भाग विघटित है। व्यक्ति का विश्लेषण कीजिए, पता चलेगा कि वे कितने ‘डिसटॉर्टेड’, ‘एवनॉर्मल’, “न्यूराटिक’ हो गए हैं। लेकिन इन सबके बावजूद समाज में विद्रोहात्मकता जीवित है, वही आशा का केन्द्र है… ।”

“बाबूजी !” बाँसुरी रो पड़ी।

गोपाल बाहर आया। बच्चे भाग चुके थे। बाँसुरी ने ठुमकते हुए कहा-“बाबू जी, तुम मुझे मोटर नहीं ला दोगे? मन्नू कहता था तुम्हारे बाबूजी झूठे हैं। केदार भैया कहते थे तुम्हारे बाबूजी के पास रुपैया कहाँ?”

गोपाल ने प्यार से उसे गोद में लेते हुए कहा-“मेरे पास बहुत पैसे हैं। मैं तुम्हें मोटर ला दूँगा /”-फिर कुछ याद करके हँसा और हँसते हुए बाँसुरी के कान में धीरे-से कहा-“मैं तुम्हें जीप गाड़ी ला दूँगा, चलो अभी खा लें !” वह एक बार फिर ठठाकर हँसा ।

आँगन में अँधेरा था। सब कमरे बन्द थे। उसने पुकारा-“माँ, बाबूजी ने भोजन कर लिया। बंसी की माँ कहाँ गई। मुझे भूख लगी है।”

किसी ओर से जवाब नहीं मिला। आँगन में एक गुमसुम उदासी छाई हुई थी- एक खौफनाक खामोशी।

बाँसुरी को बहुत दिनों के बाद बाप की गोदी मिली थी। खुशी से वह फूली नहीं समाती थी। वह आप ही हँसती थी।

अन्धकार और मौन। खँंडहर की याद आई गोपाल को। वह मुस्कुराया। खिलखिलाकर हँस पड़ी उसकी गोद में बाँसुरी-भविष्य की सुन्दर बाँसुरी।

लेखक

  • हिंदी-साहित्य में आंचलिक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म 4 मार्च, 1921 को बिहार के पूर्णिया जिले (अब अररिया) के औराही हिंगना में हुआ था। इन्होंने 1942 ई० के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में बढ़-चढ़कर भाग लिया और सन 1950 में नेपाली जनता को राजशाही दमन से मुक्ति दिलाने के लिए भरपूर योगदान दिया। इनकी साहित्य-साधना व राष्ट्रीय भावना को मद्देनजर रखते हुए भारत सरकार ने इन्हें पदमश्री से अलंकृत किया। 11 अप्रैल, 1977 को पटना में इनका देहावसान हो गया। रचनाएँ-हिंदी कथा-साहित्य में रेणु का प्रमुख स्थान है। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं- उपन्यास-मैला आँचल, परती परिकथा, दीर्घतपा, कितने चौराहे । कहानी-संग्रह-ठुमरी, अगिनखोर, आदिम रात्रि की महक, एक श्रावणी दोपहरी की धूप। संस्मरण-ऋणजल धनजल, वनतुलसी की गंध, श्रुत-अश्रुत पूर्व। रिपोतज-नेपाली क्रांति कथा। इनकी तमाम रचनाएँ पाँच खंडों में ‘रेणु रचनावली’ के नाम से प्रकाशित हैं। साहित्यिक विशेषताएँ-हिंदी साहित्य में फणीश्वरनाथ रेणु आंचलिक साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। इन्होंने विभिन्न राजनैतिक व सामाजिक आंदोलनों में भी सक्रिय भागीदारी की। इनकी यह भागीदारी एक ओर देश के निर्माण में सक्रिय रही तो दूसरी ओर रचनात्मक साहित्य को नया तेवर देने में सहायक रही। 1954 ई० में इनका उपन्यास ‘मैला आँचल’ प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास ने हिंदी उपन्यास विधा को नयी दिशा दी। हिंदी जगत में आंचलिक उपन्यासों पर विमर्श ‘मैला आँचल’ से ही प्रारंभ हुआ। आंचलिकता की इस अवधारणा ने उपन्यासों और कथा-साहित्य में गाँव की भाषा-संस्कृति और वहाँ के लोक-जीवन को केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। लोकगीत, लोकोक्ति, लोक-संस्कृति, लोकभाषा एवं लोकनायक की इस अवधारणा ने भारी-भरकम चीज एवं नायक की जगह अंचल को ही नायक बना डाला। उनकी रचनाओं में अंचल कच्चे और अनगढ़ रूप में ही आता है। इसलिए उनका यह अंचल एक तरफ शस्य-श्यामल है तो दूसरी तरफ धूल-भरा और मैला भी। आजादी मिलने के बाद भारत में जब सारा विकास शहरों में केंद्रित होता जा रहा था तो ऐसे में रेणु ने अंचल की समस्याओं को अपने साहित्य में स्थान दिया। इनकी रचनाएँ इस अवधारणा को भी पुष्ट करती हैं कि भाषा की सार्थकता बोली के साहचर्य में ही है। भाषा-शैली-रेणु की भाषा भी अंचल-विशेष से प्रभावित है।

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खंडहर/फणीश्वरनाथ रेणु

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