मेरे भीतर
रहता है
एक पिता…
जब मैं देखती हूँ
उसकी आँखों से
जब मैं सुनती हूँ
उसी के कानों से
जब मैं बोलती हूँ
उसी की भाषा
जब मैं महसूसती हूँ
उसी की संवेदनाएँ
मेरे भीतर
हमेशा होता है
एक पिता….
जो संकेत करता है
जब मैं विचलित होती हूँ
वह संकेत करता है
जब मेरे सभी द्वार
एक साथ
हो जाते हैं बंद
वह संदेश देता है
मेरे अधखुले स्वप्नों में
नाउम्मीदी,नासमझी के
सबसे बुरे दौर में
मेरे भीतर
समाया है
एक पिता….
जब मैं डांट लगाती हूँ
अपने दिशाहीन बच्चों को
कभी सबक सिखाती हूँ
उन दिग्भ्रमित छात्रों को
मैं पुचकारती हूँ स्नेह से
उन्हें कलेजे से लगाकर
और उन पर मरहम भी
लगाती हूँ मुस्कुरा कर
मेरे भीतर
रमता है दिन- रात
एक पिता…
जो मुझे कड़वी दवाईयां
पिलाता है बड़े मनुहार से
और काट कर देता है
अपने ही हाथों कुछ
फल, अंडे और दूध
मुझे लाकर देता है
शहर के सबसे
बेहतरीन फ्रॉक और खिलौने
मेरी छोटी-सी चोट पर
सो नहीं पाता रात- भर
मेरे भीतर
सचमुच रहता है
एक पिता
वह सदेह मुझे दिखता नहीं
पर दिखा देता है सब कुछ
मेरी बात भी नहीं सुनता
उल्टे मुझे ही सुनाता है
उसकी साखियों में
रमते हैं कबीर और रैदास
जो निरंजन, निराकार हैं
और निर्भय विचरते हैं
मेरे भीतर
अनुभूत होता है
एक पिता
सत्य है आत्मा होती है
अजर, अमर, अविनाशी
शायद कभी मैं विदेह हो जाऊँ
और सदेह हो जाए वह
मैं हो जाऊँ आत्मा
और वह मेरा परमात्मा
और हम समा जाएं
एक ही परम ब्रह्म में
और तब..
उसके भीतर भी
समाहित हो जाए
एक आत्मजा
जो देह के बंध से
विमुक्त हो,सर्वथा उन्मुक्त
इस संपूर्ण ब्रहमाण्ड में
परिव्याप्त, परिपूर्ण
सृष्टि की आदि कथा सी
न माया, न मोहपाश
एक ऐसा प्रेमाख्यान
जो आत्मा- आत्मजा का हो
मेरे भीतर
सदैव, सर्वदा
अभिभूत रहता है
एक पिता..
जहाँ मैं रह नहीं जाती
एक स्त्री, एक मातृशक्ति
हो जाती हूँ निःसंदेह
एक पौरुष संपन्न
विराट व्यक्तित्व की
स्वामिनी, संचालिका
हो जाता हूँ परिणत
प्रकृति से पुरुष में
मेरे भीतर
रहता है एक
अविनाशी परम ब्रह्म..