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उपसंहार-58 पद्मावत/जायसी

मैं एहि अरथ पंडितन्ह बूझा । कहा कि हम्ह किछु और न सूझा ॥
चौदह भुवन जो तर उपराहीं । ते सब मानुष के घट माहीं ॥
तन चितउर, मन राजा कीन्हा । हिय सिंघल, बुधि पदमिनि चीन्हा ॥
गुरू सुआ जेइ पंथ देखावा । बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा?॥
नागमती यह दुनिया-धंधा । बाँचा सोइ न एहि चित बंधा ॥
राघव दूत सोई सैतानू । माया अलाउदीं सुलतानू ॥
प्रेम-कथा एहि भाँति बिचारहु । बूझि लेहु जौ बूझै पारहु ॥

तुरकी, अरबी, हिंदुई, भाषा जती आहिं ।
जेहि महँ मारग प्रेम कर सबै सराहैं ताहि ॥1॥

(एहि=इसका, पंडितन्ह=पंडितों से, कहा…सूझा=उन्होंने कहा,
हमे तो सिवा इसके और कुछ नहीं सूझता है कि, ऊपराहीं=
ऊपर, निरगुन=ब्रह्म,ईश्वर)

मुहमद कबि यह जोरि सुनावा । सुना सो पीर प्रेम कर पावा ॥
जोरी लाइ रकत कै लेई । गाढ़ि प्रीति नयनन्ह जल भेई ॥
औ मैं जानि गीत अस कीन्हा । मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा ॥
कहाँ सो रतनसेन अब राजा?। कहाँ सुआ अस बुधि उपराजा?॥
कहाँ अलाउदीन सुलतानू?। कहँ राघव जेइ कीन्ह बखानू?॥
कहँ सुरूप पदमावति रानी?। कोइ न रहा, जग रही कहानी ॥
धनि सोई जस कीरति जासू । फूल मरै, पै मरै न बासू ॥

केइ न जगत बेंचा, कइ न लीन्ह जस मोल?
जो यह पढ़ै कहानी हम्ह सँवरै दुइ बोल ॥2॥

(जोरी लाइ …..भेई=इस कविता को मैंने रक्त की लेई लगा
कर जोड़ा है और गाढ़ी प्रीति को आँसुओं से भिगो-भिगोकर
गीला किया है, चीन्हा=चिह्न, निशान, उपराजा=उत्पन्न
किया, अब बुधि उपराजा=जिसने राजा रत्नसेन के मन
में ऐसी बुद्धि उत्पन्न की, केइ न जगत जस बेचा=किसने
इस संसार में थोड़े के लिये अपना यश नहीं खोया? अर्थात्
ऐसे बहुत से लोग ऐसे हैं, हम्ह सँवरे=हमें याद करेगा,
दुइ बोल=दो शब्दों में)

मुहमद बिरिध बैस जो भई । जोबन हुत, सो अवस्था गई ॥
बल जो गएउ कै खीन सरीरू । दीस्टि गई नैनहिं देइ नीरू ॥
दसन गए कै पचा कपोला । बैन गए अनरुच देइ बोला ॥
बुधि जो गई देई हिय बोराई । गरब गएउ तरहुँत सिर नाई ॥
सरवन गए ऊँच जो सुना । स्याही गई, सीस भा धुना ॥
भवँर गए केसहि देइ भूवा । जोबन गएउ जीति लेइ जूवा ॥
जौ लहि जीवन जोबन-साथा । पुनि सो मीचु पराए हाथा ॥

बिरिध जो सीस डोलावै, सीस धुनै तेहि रीस ।
बूढ़ी आऊ होहु तुम्ह, केइ यह दीन्ह असीस? ॥3॥

(पचा=पिचका हुआ, अनरुच=अरुचिकर, बोराई=बावलापन,
तरहुँत=नीचे की ओर, धुना=धुनी रूई, भुवा=काँस के फूल,
जौ लहि हाथा=कवि कहता है कि जब तक जिंदगी रहे
जवानी के साथ रहे, फिर जब दूसरे का आश्रित होना
पड़े तब तो मरना ही अच्छा है, रीस=रिस या क्रोध से,
केइ…..असीस किसने व्यर्थ ऐसा आशीर्वाद दिया?)

लेखक

  • मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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