शह्र के चैरास्तों पर लाल-पीली बत्तियाँ,
रहनुमाई कर रहीं हैं रंग-रंगीली बत्तियाँ।
आज भी घर अपने शायद देर से पहुँचूँगा मैं,
रास्ता रोके खड़ी हैं लाल-पीली बत्तियाँ।
बिछ गईं गलियों में लाशें और घरौंदे जल चुकेे,
आ गईं पुरशिस को कितनी लाल-नीली बत्तियाँ।
बन्द कर कमरे की खिड़की आ मेरे पहलू में आ,
खोल दे बिस्तर पे मेरे दो नशीली बत्तियाँ।
शह्र का सच झील के दामन पे लिक्खा है ’नज़र’,
थरथराती बिल्ड़िगें और गीली-गीली बत्तियाँ।
शह्र के चैरास्तों पर लाल-पीली बत्तियाँ/ग़ज़ल/ए.एफ़. ’नज़र’