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काश! तुम समझ पाते!/गज़ल/संजीव प्रभाकर

असलियत मेरी पूरी, काश! तुम समझ पाते,

यार! मेरी मज़बूरी, काश! तुम समझ पाते!

मुझ पे हक़ जताने की, खामुशी मेरी तुमको,

दे रही थी मंजूरी, काश! तुम समझ पाते!

डबडबाई आँखों ने, थरथराये होठों से,

बात जो न की पूरी, काश! तुम समझ पाते!

वज़्ह क्या रही होगी, लाख कोशिशों पर भी,

ज्यों की त्यों रही दूरी, काश! तुम समझ पाते!

और कुछ नहीं देती, ज़िस्म तोड़ देती है,

आख़िरश ये मजदूरी, काश! तुम समझ पाते!

लेखक

  • संजीव प्रभाकर

    संजीव प्रभाकर जन्म : 03 फरवरी 1980 शिक्षा: एम बी ए एक ग़ज़ल संग्रह ‘ये और बात है’ प्रकाशित और अमन चाँदपुरी पुरस्कार 2022 से पुरस्कृत आकाशवाणी अहमदबाद और वडोदरा से ग़ज़लों का प्रसारण भारतीय वायुसेना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्त सम्पर्क: एस-4, सुरभि - 208 , सेक्टर : 29 गाँधीनगर 382021 (गुजरात) ईमेल: sanjeevprabhakar2010@gmail.com मोब: 9082136889 / 9427775696

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