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जिसकी ख़ातिर हार बैठी है/ग़ज़ल/रचना निर्मल

अपना सब कुछ जिसकी ख़ातिर हार बैठी है
उसने क्या इक बार भी पूछा तू कैसी है 

दिल परेशाँ है बहुत औ’र आँख भीगी है
घर की रौनक़ जब से वीराने में बैठी है 

आज भी अपने ही घर में नारी की हालत 
नौकरानी तो कभी गुलदान जैसी है

रास्ता छोड़ा नहीं है मैंने हिम्मत का
आ गया चाहे मेरी आँखों में पानी है

सब उतरने लगते हैं यारो अदावत पर
जब जवाब अपने लबों पर नारी रखती है

ज़िन्दगी की गुफ़्तगू उस रात से भी हो 
बात मायूसी की जो ग़ज़लों में करती है

सुन के सब मबहूत हो जाते हैं महफ़िल में
नाज़ुकी से जब ग़ज़ल “निर्मल” तू कहती है

लेखक

  • रचना निर्मल जन्मतिथि - 05 अगस्त 1969 जन्म स्थान - पंजाब (जालंधर) शिक्षा - स्नातकोत्तर प्रकाशन- 5 साझा संग्रह उल्लेखनीय सम्मान/पुरस्कार महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार, कई राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर पर पुरस्कार संप्रति - प्रवक्ता ( राजनीति विज्ञान) संपर्क - 202/A 3rd floor Arjun Nagar

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