अपना सब कुछ जिसकी ख़ातिर हार बैठी है उसने क्या इक बार भी पूछा तू कैसी है दिल परेशाँ है बहुत औ’र आँख भीगी है घर की रौनक़ जब से वीराने में बैठी है आज भी अपने ही घर में नारी की हालत नौकरानी तो कभी गुलदान जैसी है रास्ता छोड़ा नहीं है मैंने हिम्मत का आ गया चाहे मेरी आँखों में पानी है सब उतरने लगते हैं यारो अदावत पर जब जवाब अपने लबों पर नारी रखती है ज़िन्दगी की गुफ़्तगू उस रात से भी हो बात मायूसी की जो ग़ज़लों में करती है सुन के सब मबहूत हो जाते हैं महफ़िल में नाज़ुकी से जब ग़ज़ल “निर्मल” तू कहती है
जिसकी ख़ातिर हार बैठी है/ग़ज़ल/रचना निर्मल