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बच्चों को देखती है, दफ़्तर को देखती है/ग़ज़ल/गरिमा सक्सेना

बच्चों को देखती है, दफ़्तर को देखती है दफ़्तर से लौटकर वो, फिर घर को देखती है वह देखती है ख़तरे, धरती के आसमां के जब घर को देखती है, बाहर को देखती है कितनी ही सिलवटों से वो जूझती है भीतर जब सिलवटों को ओढ़े बिस्तर को देखती है जिस देवता पे उसने ख़ुद […]

आदमी में आदमीयत की कमी होने लगी/ग़ज़ल/गरिमा सक्सेना

आदमी में आदमीयत की कमी होने लगी मौत से भी आज बदतर ज़िंदगी होने लगी जाल ख़ुद ही था बनाया क़ैद ख़ुद उसमें हुए फिर बताओ अब तुम्हें क्यों बेबसी होने लगी याद को अब याद करके याद भी धुँधला रही लग रहा तुमसे मिले जैसे सदी होने लगी चाँद, सूरज थे बने सबके लिये […]

उत्सव के दिन बहुत अकेले बैठे उत्सव/ग़ज़ल/गरिमा सक्सेना

उत्सव के दिन बहुत अकेले बैठे उत्सव आँसू की झीलों में कैसे डूबे उत्सव सन्नाटे में बीती होली, दीवाली, छठ शहर गये हैं गाँवों के बेचारे उत्सव कैलेण्डर में टँगे-टँगे ही रहते हैं अब शहरों की भागादौड़ी में खोये उत्सव नकली मुस्कानों को ओढ़े फिरते चेहरे अवसादों की सीलन में हैं सीले उत्सव पोता-पोती घर […]

रोज़ ढलकर भी नहीं इक पल ढला सूरज/ग़ज़ल/गरिमा सक्सेना

रोज़ ढलकर भी नहीं इक पल ढला सूरज घाटियों से चोटियों तक फिर चला सूरज ठान बैठे बैर मुझसे आज कुछ जुगनू देखकर हैरान हैं मुझमें पला सूरज रोशनी भरता है सबकी ज़िंदगी में वो रोज़ तपती भट्टियों में है जला सूरज बादलों की ओट में कैसे थे बहकावे गुम गया क्यों, आज वादे से […]

आँखों में ख़्वाब, पाँवों में छालों को पाल कर/ग़ज़ल/गरिमा सक्सेना

आँखों में ख़्वाब, पाँवों में छालों को पाल कर लायी हूँ मैं अँधेरे से सूरज निकाल कर लड़की का जिस्म पहले तो शीशे का कर दिया फिर उसको वो डराता है पत्थर उछालकर ये ज़ख्म तो दवाई से भर पाएगा नहीं दिल की है चोट, दिल से ही तू देखभाल कर जिसको जहां में हमने […]

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