फ़ुर्सतों में जब कभी मिलताहूँ दिन इतवार के,
मुस्करा देते है गुमसुम आईने दीवार के।
रंग क्या-क्या पेश आए हमको इस संसार के,
हमने जिनको घर का समझा निकले वो बाज़ार के।
अब सफ़र का लुत्फ़ भी जाता रहा अफ़सोस है,
हम दिवाने क्यूँ हुए दुनिया तेरी रफ़्तार के।
किस क़दर महँगाई है हम मुफ़लिसों से पूछिए,
भाव जो देखे हैं तुमने झूठ हैं अख़बार के।
बेटे बूढ़ी माँ को ज़ख़्मी छोड़ आगे बढ़ गए,
ऐ ज़माने! वह क्या कहने तेरी रफ़्तार के।
देखने क़ाबिल है मेरे शहर की शाइस्तगी,
हर तरफ़ शिकवा बलब हैं पोस्टर दीवार के।
फ़ुर्सतों में जब कभी मिलताहूँ दिन इतवार के/ग़ज़ल/ए.एफ़. ’नज़र’