छत से छत की मीठी बातें और अपनापन छीन लिया,
फ़्लैटों की तहज़ीब ने हमसे चौड़ा आँगन छीन लिया।
शहर की रोशन गलियो तुमको अपना दुख क्या बतलाएँ,
रोटी कर फ़िक्रों ने हमसे गाँव का सावन छीन लिया।
रूखी-सूखी जो मिलती सब भाई बाँट के खाते थे,
अहदे तरक़्क़ी ऐसा आया सब अपनापन छीन लिया।
पहले जैसी बात कहाँ इन बेमौसम की फ़स्लों में,
ख़ादों की भरमार ने मिट्टी का सौंधापन छीन लिया।
तेरी-मेरी बात ही क्या है, इस बेदर्द ग़रीबी ने,
जाने कितने मासूमों से फूल सा बचपन छीन लिया।
गुल मुरझाये, ख़ुशबू सिमटी, सावन रोया गली गली,
मुझसे चाँद सितारों ने जब तेरा दामन छीन लिया।
छत से छत की मीठी बातें और अपनापन छीन लिया/ग़ज़ल/ए.एफ़. ’नज़र’