चूल्हा-चौका-फ़ाइल-बच्चे दिनभर उलझी रहती है,
वो घर में और दफ़्तर में अब आधी-आधी रहती है।
मिल कर बैठें दुख-सुख बाँटें इतना हमको वक़्त कहाँ,
दिन उगने से रात गये तक आपा-धापी रहती है।
जिस दिन से तक़रार हुई उन सियह गुलाबी होंठों में,
दो कजरारी आँखों के संग छत भी जागी रहती है।
जब से पछुआ पवनें घर में आना-जाना आम हुईं,
तुलसी मेरे आँगन की कुछ सहमी-सहमी रहती है।
क्या अब भी घुलती हैं रातें चाँद परी की बातों में,
क्या तेरे आँगन में अब भी बूढ़ी दादी रहती है।
चूल्हा-चौका-फ़ाइल-बच्चे दिनभर उलझी रहती है/ग़ज़ल/ए.एफ़. ’नज़र’