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बताओ हाल कैसा है/गज़ल/संजीव प्रभाकर

बड़े दिन बाद आए हो,  बताओ हाल कैसा है? गुज़श्ता साल को छोड़ो,  कहो ये  साल कैसा है? हमारे शहर में मत पूछना तत्काल कैसा है, तुम्हारा घर-गृहस्थी  गाँव में फिलहाल कैसा है? गुलाबी शाम का मौसम निरापद रात होती थी, जो फूलों सा ग़मकता था वो  प्रातःकाल कैसा है? हमेशा हर किसी के वक्त […]

अकेले यूँ चले जाना वहाँ तक है नहीं मुमकिन/गज़ल/संजीव प्रभाकर

ये माहे-नौ-बहारां प्यार का मौसम सजा लाया, कहीं ख़ुश्बू  गुलाबों की  कहीं तोहफा नया लाया। मुझे वो  ताज़गी से भर गया कुछ इस तरह मानो, मेरा महबूब मेरे वास्ते वादे-सबा लाया। सुकूने-नज़्र  आ जाए उसे मैं देख लूँ, वल्लाह ! दिले-बीमार की ख़ातिर कोई जैसे दवा लाया। जो मैंने दी  हथेली हाथ में उसके तो […]

दुआ हमारे प्यार  की हुई कुबूल उस जगह/गज़ल/संजीव प्रभाकर

दुआ हमारे प्यार  की हुई कुबूल उस जगह, जहाँ  जहाँ मिले थे हम खिले हैं फूल उस जगह। हमारे बाद  भी कई गये  थे झूल उस  जगह, पढ़े गये  महब्बतों के सब उसूल उस जगह। निशां  अभी भी है वहाँ  हमारे ऐतबार का, उड़ाये  जा रही हवा सदी से  धूल उस जगह। निकल पड़ा है […]

जो उबार लेती है, डूबती सियासत को/गज़ल/संजीव प्रभाकर

कुछ न कुछ हुआ होगा, सुब्ह तक उनिंदा है, रात भर न सो पाया, ख़ौफ़ में परिंदा है। एक तो है दफ़्तर में, दूसरा छुपा घर में, एक है शिकारी तो दूसरा दरिंदा है। खिदमतों में हाजिर हैं,आपके लिए हरदम, कह गया है जो तुमसे, झूठ का पुलिंदा है। भूख से वो मर जाता, बात […]

बाबूजी/गज़ल/संजीव प्रभाकर

अपनी है जो परिभाषा वो आप हैं बाबूजी, परिवार की परिसीमा परिमाप हैं बाबूजी। श्रृंगार हैं माई का , माई की जो साड़ी है, उसपर वो जो कुमकुम है, वो छाप हैं बाबूजी। होकर मैं शुरू उनसे, होता भी उन्हीं तक हूँ, दुनिया हैं मेरी, मेरे माँ- बाप हैं बाबूजी। मैं लाख छुपाऊँ पर हर […]

आईन है, कानून है इस बात से मश्कूर हूँ/गज़ल/संजीव प्रभाकर

आईन है, कानून है इस बात से मश्कूर हूँ, क्या फ़ायदा इसका मगर, इंसाफ़ से मै दूर हूँ! भूखा कहो,  नंगा कहो , दुत्कार दो, धिक्कार दो, मज़लूम मै बेशक मगर , ख़ुद्दार हूँ,  मज़दूर हूँ। मौके कई आये मगर, एक-एक कर जाने दिया, बेइन्तिहाँ बेफ़िक्र हूँ ,  मै आदतन मजबूर हूँ। इंसानियत, रस्म-ए-वफ़ा, रहबानीयत, […]

होगी कोई वो दिलनशीँ , वरना तो आजकल कहाँ/गज़ल/संजीव प्रभाकर

इतनी मिली नसीब से, गाहे-ब-गाहे ज़िन्दगी, गुज़री मेरे क़रीब से, गाहे-ब-गाहे ज़िन्दगी! होगी कोई वो दिलनशीँ , वरना तो आजकल कहाँ, मिलती किसी ग़रीब से, गाहे-ब-गाहे-गाहे ज़िन्दगी। आयी है ले के साथ में कोई न कोई इंकलाब, जब भी मिली सलीब से, गाहे-ब-गाहे-ज़िन्दगी। जिसको न भर सकी कभी, दिल की उसी दरार को, नापा करे […]

न कोई चिंता उन्हें किसी की/गज़ल/संजीव प्रभाकर

बिना वजह के वजह बताकर उथल-पुथल जो मचा रहे हैं, न कोई चिंता उन्हें किसी की, जो खाया उसको पचा रहे हैं। सभी हैं नंगे हमाम में तो किसे गलत या सही कहेंगे, न राज़ अपना खुले ये डर है,  इसीलिए तो बचा रहे हैं। कोई है दीदी कोई है अम्मा कोई है भाई कोई […]

न वक़्त का कोई दबाव दिखता/गज़ल/संजीव प्रभाकर

कुछेक दिन हम ये काम करते,उसी की महफ़िल में शाम करते, सुना है मैंने कि चाँद तारे वहाँ पर आकर क़याम करते। जहाँ से भटके वहीं था रस्ता , जहाँ से लौटे वहीं थी मंज़िल, तमाम उम्रें गयीं हमारी पता, ठिकाना, मुकाम करते। न और कुछ, वो सुकून देता इसीलिए हैं लगी  कतारें, बड़े-बड़े उस […]

आज भी वो हँस रहा ज़िंदा जलाकर/गज़ल/संजीव प्रभाकर

आपमें हम में कमी है, सच कहूँ तो, बर्फ़ धमनी में जमी है, सच कहूँ तो। ख़ूब हो – हल्ला रहेगा कुछ दिनों तक, फ़िक्र अपनी मौसमी है, सच कहूँ तो। हादसे पर हादसा फिर हादसा है, आँख में अब तक नमी है, सच कहूँ तो। आज भी वो हँस रहा ज़िंदा जलाकर, आग लगना […]