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अकेले यूँ चले जाना वहाँ तक है नहीं मुमकिन/गज़ल/संजीव प्रभाकर

ये माहे-नौ-बहारां प्यार का मौसम सजा लाया,

कहीं ख़ुश्बू  गुलाबों की  कहीं तोहफा नया लाया।

मुझे वो  ताज़गी से भर गया कुछ इस तरह मानो,

मेरा महबूब मेरे वास्ते वादे-सबा लाया।

सुकूने-नज़्र  आ जाए उसे मैं देख लूँ, वल्लाह !

दिले-बीमार की ख़ातिर कोई जैसे दवा लाया।

जो मैंने दी  हथेली हाथ में उसके तो क्या कहना,

महज़  लम्हात में वो  दूर तक दुनिया दिखा लाया!

अकेले यूँ चले जाना वहाँ तक है नहीं मुमकिन,

जहाँ  तक हमक़दम का साथ मुझको इस दफ़ा लाया।

लेखक

  • संजीव प्रभाकर जन्म : 03 फरवरी 1980 शिक्षा: एम बी ए एक ग़ज़ल संग्रह ‘ये और बात है’ प्रकाशित और अमन चाँदपुरी पुरस्कार 2022 से पुरस्कृत आकाशवाणी अहमदबाद और वडोदरा से ग़ज़लों का प्रसारण भारतीय वायुसेना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्त सम्पर्क: एस-4, सुरभि - 208 , सेक्टर : 29 गाँधीनगर 382021 (गुजरात) ईमेल: sanjeevprabhakar2010@gmail.com मोब: 9082136889 / 9427775696

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