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काले मेघा पानी दे/धर्मवीर भारती

उन लोगों के दो नाम थे – इंदर सेना या मेढक-मंडली | बिल्कुल एक दूसरे के विपरीत | जो लोग उनके नग्नस्वरूप शरीर, उनकी उछलकूद, उनके शोर-शराबे और उनके कारण गली में होने वाले कीचड़ काँदो से चिढ़ते थे, वे उन्हें कहते थे मेंढक-मंडली | उनकी अगवानी गलियों से होती थी | वे होते थे दस-बारह बरस से सोलह-अठारह बरस के लड़के, साँवला नंगा बदन, सिर्फ एक जाँघिया या कभी-कभी सिर्फ लंगोटी | एक जगह इकट्ठे होते थे | पहला जयकारा लगता था, “बोल गंगा मैया की जय |” जयकारा सुनते ही लोग सावधान हो जाते थे | स्त्रियाँ और लड़कियाँ छज्जे, बारजे से झाँकने लगती थी और यह विचित्र नंग-धड़ंग टोली उछलती-कूदती समवेत पुकार लगाती थी :

काले मेघा पानी दे

गगरी फूटी बैल पियासा

पानी दे, गुड़धानी दे

काले मेघा पानी दे |

उछलते-कूदते एक दूसरे को धकियाते ये लोग गली में किसी दुमहले मकान के सामने रुक जाते, “पानी दे मैया, इंदर सेना आई है |” और जिन घरों में आखीर जेठ या शुरू आषाढ़ के उन सूखे दिनों में पानी की कमी भी होती थी, जिन घरों के कुएँ भी सूखे होते थे, उन घरों से भी सहेज कर रखे हुए पानी में से बाल्टी या घड़े भर-भर कर इन बच्चों को सर से पैर तक तर कर दिया जाता था | यह भीगे बदन मिट्टी में लोट लगाते थे, पानी फेंकने से पैदा हुए कीचड़ में लथपथ हो जाते थे | हाथ, पाँव, बदन, मुँह पेट सब पर गंदा कीचड़ मल कर फिर हाँक लगाते “बोल गंगा मैया की जय” और फिर मंडली बांधकर उछलते-कूदते अगले घर की ओर चल पड़ते बादलों को टेरते, ” काले मेघा पानी दे |” वे सचमुच ऐसे दिन होते जब गली-मुहल्ला, गाँव-शहर हर जगह लोग गर्मी में भुन-भुन कर त्राहिमाम कर रहे होते, जेठ के दसतपा बीत कर आषाढ़ का पहला पखवारा भी बीत चुका होता पर क्षितिज पर कहीं बादल की रेख भी नहीं दीखती होती, कुएँ सूखने लगते, नलों में एक तो बहुत कम पानी आता और आता भी तो आधी रात को भी मानो खौलता हुआ पानी हो | शहरों की तुलना में गाँव में और भी हालत खराब होती थी | जहाँ जुताई होनी चाहिए वहाँ खेतों की मिट्टी सूख कर पत्थर हो जाती, फिर उसमें पपड़ी पड़ कर जमीन फटने लगती, लू ऐसी की चलते-चलते आदमी आधे रास्ते में लू खाकर गिर पड़े | ढोल-डंगर प्यास के मारे मरने लगते लेकिन बारिश का कहीं नाम-निशान नहीं, ऐसे में पूजा-पाठ कथा-विधान सब करके लोग जब हार जाते तब अंतिम उपाय के रूप में निकलती यह इंदर सेना |

वर्षा के बादलों के स्वामी, हैं इंद्र और इंद्र की सेना टोली बाँधकर कीचड़ में लथपथ निकलती, पुकारते हुए मेघों को, पानी मांगते हुए प्यासे गलों और सूखे खेतों के लिए | पानी की आशा पर जैसे सारा जीवन आकर टिक गया हो | बस एक बात मेरे समझ में नहीं आती थी कि जब चारों ओर पानी की इतनी कमी है तो लोग घर में इतनी कठिनाई से इकट्ठा करके रखा हुआ पानी बाल्टी भर-भर कर इन पर क्यों फेंखते हैं! कैसी निर्मम बर्बादी है पानी की | देश की कितनी क्षति होती है इस तरह के अंधविश्वासों से | कौन कहता है इन्हें इंद्र की सेना? अगर इंद्र महाराज से ये पानी दिलवा सकते हैं तो खुद अपने लिए पानी क्यों नहीं मांग लेते? क्यों मुहल्ले भर का पानी नष्ट करवाते घूमते हैं, नहीं यह सब पाखंड है | अंधविश्वास है | ऐसे ही अंधविश्वासों के कारण हम अंग्रेजों से पिछड़ गए और गुलाम बन गए |

मैं असल में था तो इन्हीं मेंढक-मंडली वालों की उम्र का, पर कुछ तो बचपन के आर्यसमाजी संस्कार थे और एक कुमार-सुधार सभा कायम हुई थी उसका उपमंत्री बना दिया गया था – सो समाज-सुधार का जोश कुछ ज्यादा ही था | अंधविश्वासों के खिलाफ तो तरकस में तीर रखकर घूमता रहता था | मगर मुश्किल यह थी कि मुझे अपने बचपन में जिससे सबसे ज्यादा प्यार मिला वे थी जीजी | यूँ मेरे रिश्ते में कोई नहीं थी | उम्र में मेरी माँ से भी बड़ी थी, पर अपने लड़के-बहू सब को छोड़कर उनके प्राण मुझी में बसते थे | और वे थी कुछ उन तमाम रीति-रिवाजों, तीज-त्योहारों, पूजा-अनुष्ठानों की खान जिन्हें कुमार-सुधार सभा का यह उपमंत्री अंधविश्वास कहता था, और उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकना चाहता था | पर मुश्किल यह थी कि उनका कोई पूजा -विधान, कोई त्यौहार-अनुष्ठान मेरे बिना पूरा नहीं होता था। दीवाली है तो गोबर और कौड़ियों से गोवर्धन और सतिया बनाने में लगा हूँ, जन्माष्टमी है तो रोज आठ दिन की झांकी तक को सजाने और पंजीरी बांटने में लगा हूँ, हर-छठ है तो छोटी रंगीन कुल्हियों में भूजा भर रहा हूँ। किसी में भुना चना, किसी में भुनी मटर , किसी में भुने अरवा चावल, किसी में भुना गेहूं। जीजी यह सब मेरे हाथों से कराती , ताकि उनका पुण्य मुझे मिले। केवल मुझे।

लेकिन इस बार मैंने साफ इंकार कर दिया। नहीं फेंकना है मुझे बाल्टी भर-भर कर पानी इस गंदी मेंढक मंडली पर। जब जीजी बाल्टी भर कर पानी ले गई उनके बूढ़े पांव डगमगा रहे थे, हाथ काँप रहे थे, तब भी मैं अलग मुँह फुलाए खड़ा रहा। शाम को उन्होंने लड्डू मठरी खाने को दिए तो मैंने उन्हें हाथ से अलग खिसका दिया। मुँह फेर कर बैठ गया, जीजी से बोला भी नहीं। पहले वह भी तमतमाई , लेकिन ज्यादा देर तक उनसे गुस्सा नहीं रहा गया। पास आकर मेरा सर अपनी गोद में लेकर बोली, “देख भइया रूठ मत | मेरी बात सुन | यह सब अंधविश्वास नहीं है। हम इन्हें पानी नहीं देंगे तो इंद्र भगवान हमें पानी कैसे देंगे?” मैं कुछ नहीं बोला | फिर जीजी बोली, “तू इसे पानी की बर्बादी समझता है पर यह बर्बादी नहीं है | यह पानी का अर्घ्य चढ़ाते हैं, जो चीज मनुष्य पाना चाहता है उसे पहले देगा नहीं तो पाएगा कैसे? इसीलिए ऋषि-मुनियों ने दान को सबसे ऊंचा स्थान दिया है।”

“ऋषि-मुनियों को काहे बदनाम करती हो जीजी? क्या उन्होंने कहा था कि जब आदमी बूँद-बूँद पानी को तरसे तब पानी कीचड़ में बहाओ?”

कुछ देर चुप रही जीजी, फिर मठरी मेरे मुँह में डालती हुई बोली, “देख बिना त्याग के दान नहीं होता | अगर तेरे पास लाखों-करोड़ों रुपए हैं और उनमें से तू दो-चार रुपए किसी को दे दे तो यह क्या त्याग हुआ | त्याग तो वह होता है कि जो चीज तेरे पास भी कम है, जिसकी तुझको भी जरूरत है तो अपनी जरूरत पीछे रखकर दूसरे के कल्याण के लिए उसे दे तो त्याग तो वह होता है, दान तो वह होता है, उसी का फल मिलता है |”

“फल-वल कुछ नहीं मिलता सब ढकोसला है |” मैंने कहा तो, पर कहीं मेरे तर्कों का किला पस्त होने लगा था | मगर मैं भी जिद्द पर अड़ा था |

फिर जीजी बोली, “देख तू तो अभी से पढ़-लिख गया है | मैंने तो गाँव के मदरसे का भी मुँह नहीं देखा | पर एक बात देखी है कि अगर तीस-चालीस मन गेहूँ उगाना है तो किसान पाँच-छह सेर अच्छा गेहूं अपने पास से लेकर जमीन में क्यारियां बना कर फेंक देता है | उसे बुवाई कहते हैं | यह जो सूखे हम अपने घर का पानी इन पर फेंकते हैं वह भी बुवाई है | यह पानी गली में बोएँगे तो सारे शहर, कस्बा, गाँव पर पानी वाले बादलों की फसल आ जाएगी | हम बीज बनाकर पानी देते हैं, फिर काले मेघा से पानी मांगते हैं | सब ऋषि-मुनि कह गए हैं कि पहले खुद दो तब देवता तुम्हें चौगुना-अठगुना करके लौटाएँगे भइया, यह तो हर आदमी का आचरण है, जिससे सब का आचरण बनता है | यथा राजा तथा प्रजा सिर्फ यही सच नहीं है | सच यह भी है कि यथा प्रजा तथा राजा | यही तो गांधी जी महाराज कहते हैं |” जीजी का एक लड़का राष्ट्रीय आंदोलन में पुलिस की लाठी खा चुका था, तब से जीजी गांधी महाराज की बात अक्सर करने लगी थी |

इन बातों को आज पचास से ज्यादा बरस होने को आए पर ज्यों की त्यों मन पर दर्ज हैं | कभी-कभी कैसे-कैसे संदर्भों में ये बातें मन को कचोट जाती हैं, हम आज देश के लिए करते क्या हैं? माँगें हर क्षेत्र में बड़ी-बड़ी हैं पर त्याग का कहीं नाम-निशान नहीं है | अपना स्वार्थ आज एकमात्र लक्ष्य रह गया है | हम चटखारे लेकर इसके या उसके भ्रष्टाचार की बातें करते हैं पर क्या कभी हमने जाँचा है कि अपने स्तर पर अपने दायरे में हम उसी भ्रष्टाचार के अंग तो नहीं बन रहे हैं? काले मेघा दल के दल उमड़ते हैं, पानी झमाझम बरसता है, पर गगरी फूटी की फूटी रह जाती है, बैल पियासे के पियासे रह जाते हैं? आखिर कब बदलेगी यह स्थिति?

 

लेखक

  • धर्मवीर भारती

    धर्मवीर भारती का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में सन 1926 में हुआ था। इनके बचपन का कुछ समय आजमगढ़ व मऊनाथ भंजन में बीता। इनके पिता की मृत्यु के बाद परिवार को भयानक आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा। इनका भरण-पोषण इनके मामा अभयकृष्ण ने किया। 1942 ई० में इन्होंने इंटर कॉलेज कायस्थ पाठशाला से इंटरमीडिएट किया। 1943 ई० में इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से बी०ए० पास की तथा 1947 में (इन्होंने) एम०ए० (हिंदी) उत्तीर्ण की। NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे provide comprehensive guidance and support for students studying Hindi Aroh in Class 12. These NCERT Solutions empower students to develop their writing skills, enhance their language proficiency, and understand official Hindi communication. Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे लेखक परिचय जीवन परिचय-धर्मवीर भारती का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में सन 1926 में हुआ था। इनके बचपन का कुछ समय आजमगढ़ व मऊनाथ भंजन में बीता। इनके पिता की मृत्यु के बाद परिवार को भयानक आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा। इनका भरण-पोषण इनके मामा अभयकृष्ण ने किया। 1942 ई० में इन्होंने इंटर कॉलेज कायस्थ पाठशाला से इंटरमीडिएट किया। 1943 ई० में इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से बी०ए० पास की तथा 1947 में (इन्होंने) एम०ए० (हिंदी) उत्तीर्ण की। तत्पश्चात इन्होंने डॉ० धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में ‘सिद्ध-साहित्य’ पर शोधकार्य किया। इन्होंने ‘अभ्युदय’ व ‘संगम’ पत्र में कार्य किया। बाद में ये प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापक के पद पर कार्य करने लगे। 1960 ई० में नौकरी छोड़कर ‘धर्मयुग’ पत्रिका का संपादन किया। ‘दूसरा सप्तक’ में इनका स्थान विशिष्ट था। इन्होंने कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, पत्रकार तथा आलोचक के रूप में हिंदी जगत को अमूल्य रचनाएँ दीं। इन्हें पद्मश्री, व्यास सम्मान व अन्य अनेक पुरस्कारों से नवाजा गया। इन्होंने इंग्लैंड, जर्मनी, थाईलैंड, इंडोनेशिया आदि देशों की यात्राएँ कीं। 1997 ई० में इनका देहांत हो गया। रचनाएँ – इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं – कविता-संग्रह – कनुप्रिया, सात-गीत वर्ष, ठडा लोहा। कहानी-संग्रह-बंद गली का आखिरी मकान, मुर्दो का गाँव, चाँद और टूटे हुए लोग। उपन्यास-सूरज का सातवाँ घोड़ा, गुनाहों का देवता गीतिनाट्य – अंधा युग। निबंध-संग्रह – पश्यंती, कहनी-अनकहनी, ठेले पर हिमालय। आलोचना – प्रगतिवाद : एक समीक्षा, मानव-मूल्य और साहित्य। एकांकी-संग्रह – नदी प्यासी थी। साहित्यिक विशेषताएँ – धर्मवीर भारती के लेखन की खासियत यह है कि हर उम्र और हर वर्ग के पाठकों के बीच इनकी अलग-अलग रचनाएँ लोकप्रिय हैं। ये मूल रूप से व्यक्ति स्वातंत्र्य, मानवीय संबंध एवं रोमानी चेतना के रचनाकार हैं। तमाम सामाजिकता व उत्तरदायित्वों के बावजूद इनकी रचनाओं में व्यक्ति की स्वतंत्रता ही सर्वोपरि है। इनकी रचनाओं में रुमानियत संगीत में लय की तरह मौजूद है। इनकी कविताएँ कहानियाँ उपन्यास, निबंध, गीतिनाट्य व रिपोर्ताज हिंदी साहित्य की उपलब्धियाँ हैं। इनका लोकप्रिय उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ एक सरस और भावप्रवण प्रेम-कथा है। दूसरे लोकप्रिय उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ पर हिंदी फिल्म भी बन चुकी है। इस उपन्यास में प्रेम को केंद्र में रखकर निम्न मध्यवर्ग की हताशा, आर्थिक संघर्ष, नैतिक विचलन और अनाचार को चित्रित किया गया है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद गिरते हुए जीवन-मूल्य, अनास्था, मोहभंग, विश्व-युद्धों से उपजा हुआ डर और अमानवीयता की अभिव्यक्ति ‘अंधा युग’ में हुई है। ‘अंधा युग’ गीति-साहित्य के श्रेष्ठ गीतिनाट्यों में है। मानव-मूल्य और साहित्य पुस्तक समाज-सापेक्षिता को साहित्य के अनिवार्य मूल्य के रूप में विवेचित करती है। भाषा-शैली – भारती जी ने निबंध और रिपोर्ताज भी लिखे। इनके गद्य लेखन में सहजता व आत्मीयता है। बड़ी-से-बड़ी बात को बातचीत की शैली में कहते हैं और सीधे पाठकों के मन को छू लेते हैं। इन्होंने हिंदी साप्ताहिक पत्रिका, धर्मयुग, के संपादक रहते हुए हिंदी पत्रकारिता को सजा-सँवारकर गंभीर पत्रकारिता का एक मानक बनाया। वस्तुत: धर्मवीर भारती का स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के साहित्यकारों में प्रमुख स्थान है।

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