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कलाः एक मृत्यु चिह्न/धर्मवीर भारती

“मैं विवश हूँ राजकुमारी ! मैं व्यक्तियों की प्रतिमा का अंकन नहीं करता।”

“व्यक्तियों की प्रतिमा का अंकन ! मैं व्यक्ति मात्र नहीं हूँ कलाकार, मैं सुन्दरी हूँ और सुन्दरी केवल व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व होती है। काली घटाओं के रेशों से बुनी हुई मेरे नयनों की कजरारी अज्ञानता, पुरवैया के झकोरों से काँपते हुए मृणाल की भाँति मेरे अंगों की चंचलता, क्या ये कलाकार के मन को लपटों में नहीं डुबो सकतीं। प्रलय-निदाघ की अग्निमयी सुन्दरता को अपनी पँखुरियों में समेट लेनेवाली रक्त-कलिका सी मैं, क्या मैं कला की उपास्य नहीं बन सकती ?”

“नहीं, अनन्य-सुन्दरी, नहीं ! तुमने कला को गलत समझा है। कला का विषय, कला का उपास्य, सौन्दर्य होता है- सुन्दरियाँ नहीं ?”

“सुन्दरियाँ नहीं, यह कैसे कहते हो कलाकार ? प्रेम की काँपती हुई मध्याह्न बेला में जब कोई सुन्दरी चारों ओर बिखरी हुई यौवन की धूप को अपने एक अश्रु में समेट कर अपने देवता के चरणों पर चढ़ा देती है तो क्या उस एक झिलमिल बूँद में आकाश और पृथ्वी का सारा सौन्दर्य नहीं सिमट आता ? क्या कल्पना की सीपी में वह प्रेम की एक पथ – दर्शक बूँद कला का मोती नहीं बन जाती ?”

“नहीं राजकुमारी ! कलाकार जीवन के धागे में क्षुद्र मोती नहीं, अनन्त जल-राशियों का विस्तार गूँथा करता है। कला प्रेम को, सौन्दर्य को आधार अवश्य बनाती है, किन्तु एक व्यक्ति की रूप रेखाओं में बँधे हुए सीमित अंश को नहीं, वरन् व्यक्तिगत सीमा बन्धनों से परे प्रेम की अनन्त समष्टि को साकार रूप देकर ही कलाकार उसकी पूजा करता है।”

“ तो तुम्हारा विचार है कि एक व्यक्ति को ही अपना प्रेमास्पद बनाकर उसके चरणों में अपना सर्वस्व समर्पण कर देनेवाले प्रेमी में गम्भीरता नहीं होती ?”

“गम्भीरता हो किन्तु उसमें प्रेम की जलती हुई प्यास नहीं होती, उसमें प्रेम की पूर्णता को आत्मसात् कर लेनेवाली पूर्णता नहीं होती, राजकुमारी ! कलाकार का प्रेम तो कल्पना के मखमली पंखों पर फूल से फूल पर उड़ता हुआ, रेशमी किरणों पर विश्राम करता हुआ, सूर्य के समीप तक जा पहुँचता है । कलाकार एक प्रेमास्पद के व्यक्तित्व पर अपना सब कुछ न्योछावर नहीं कर सकता, क्योंकि वह प्रेमिका से नहीं, प्रेम से प्रेम करता है ?”

“प्रेम से प्रेम करता है ! क्या कह रहे हो कलाकार ?”

“तुम नहीं समझ सकतीं राजकुमारी । कलाकार का उपास्य उसकी प्रेमिका नहीं होती, वरन् स्वयं प्रेम होता है। प्रेमिकाएँ तो वे पूजा-फूल हैं जो प्रेम के देवता के चरणों पर चढ़ा दिए जाते हैं। इस अनवरत पूजा की रीति को कला कहते हैं ।”

“प्रेमिकाएँ पूजा-पुष्प हैं जो एक के बाद एक देवता के चरणों पर चढ़ा दी जाती हैं, कली के बाद कली का रस चूसकर उड़ जानेवाले भँवरे की पुरुषोचित वंचकता का ही नाम कला है न ! अपने छल, अपनी वंचना, अपने पाप को छिपाने का अच्छा बहाना ढूँढ़ निकाला है तुमने ! हम स्त्रियाँ प्रेम को साधना समझती हैं। शलभ की भाँति जलते हुए प्रेम की लपटों को आलिंगन में समेटकर प्रेम की प्यास को निर्वाण की पूर्णता में विलीन कर देती हैं।”

कलाकार हँस पड़ा-

“तुमने अच्छी उपमा दी राजकुमारी ! शलभ जैसे तुच्छ कीटों में कल्पना या पूर्णता की प्यारा होती भी है या नहीं, इसमें मुझे सन्देह है। उस शलभ से अधिक जागरूक तो दीपशिखा है जो मृत्यु के बाद मृत्यु को अपनी ज्वाला में विलीन कर परवानों के शवों पर भी गुलाबी प्रकाश बिखेरती जाती है । ”

“चुप रहो ! प्रेम की गम्भीर अनन्यता की हँसी उड़ानेवाले भावनाहीन पशु ?”

“पशु” ! कलाकार फिर हँसा – “इस प्रशस्ति के लिए धन्यवाद राजकुमारी ! मनुष्य कहकर कम से कम तुमने मेरा अपमान तो नहीं किया ?”

राजकुमारी कुछ न बोली । अग्निमय दृष्टि से कलाकार की ओर देखती हुई प्रकोष्ठ की भूमि पर महावर – मण्डित चरणों से जलते हुए निशान छोड़ती हुई आवेश में चली गयी । कलाकार एक बार मुसकराया। फिर गम्भीरता से उन चरण चिह्नों की ओर देखता हुआ चिन्ता – मग्न हो गया।

प्रातःकाल जब पारिजात – निकुंज में नवागत खंजनों के स्वरों पर थिरकती हुई किरणें कलाकार की पलकों से नींद की खुमारी धोने लगीं तभी प्रतिहारी ने सूचना दी- “ राजकुमारी की दूतिका आयी है।”

कलाकार उठ बैठा। आकाश-वेलि के तन्तुओं से बुना हुआ परदा हटाकर दूतिका ने प्रवेश किया। उसके आरक्त नयनों में अब भी रात जग रही थी। जागरण के भार से पँखुरियों-सी पलकें झुकी जा रही थीं । खुमारी भरे कदम पराग-सिक्त भूमि पर डगमगा रहे थे।

“आज रात भर अन्धकार की परतों में कुछ खोजती रहीं क्या देवी ?” कलाकर ने मुसकराकर पूछा।

“हाँ कलाकार ! आज रात को हमारी राजकुमारी खो गयी थीं ?” “राजकुमारी खो गयी थीं ?”

“घबराओ न कलाकार ! वे इस पत्र – लेखन में खोयी थीं, बार-बार लिखती थीं, बार-बार मिटा देती थीं ?

और दूती ने आगे बढ़कर चन्दन- छड़ी पर लपेटा हुआ भोजपत्र कलाकार के समीप रख दिया। कलाकार ने एक बार दूती की ओर देखा, दूसरी बार उस पत्र की ओर और फिर उसे उठाकर पढ़ने लगा ।

हरसिंगार के रस से केसरिया अक्षरों में लिखा था – ” कलाकार ! वर्ष भर की अवधि में तुम्हें एक आदर्श सौन्दर्य की प्रतिमा का निर्माण करना होगा। ध्यान रहे, सौन्दर्य की प्रतिमा, सुन्दरी की नहीं। वह प्रतिमा जो पृथ्वी की प्रत्येक सुन्दरी के गर्व को चूर-चूर कर दे । किन्तु शर्त यह है कि वह सजीव हो, सस्पन्द हो, भावनामयी हो, प्राणवती हो पत्थर की निष्प्राण मूर्ति मात्र न हो। यदि तुम उस निर्जीव सौन्दर्य में प्राण न फूँक सके तो स्मरण रखना तुम्हारा भाग्य मेरे चरणों के तले होगा !”

कलाकार स्तब्ध हो गया। द्वार के समीप राजकुमारी के अरुण पद चिह्न अभी मिटे न थे । उन पर स्वर्णिम चूर्ण बिखर जाने से उनका वर्ण रक्तिम हो गया था और वे अंगारों से धधकने लगे थे। कलाकार उनसे उठती हुई अदृश्य लपट में डूब गया।

“कुछ प्रत्युत्तर ?” दूती का प्रश्न झंकार उठा !

कलाकार की तन्द्रा टूट गयी- “हाँ, राजकुमारी से कहना बारह पूर्णमासियों के बाद मैं उन्हें अपनी नवीन मूर्ति के उद्घाटन के लिए निमन्त्रित करूँगा ?”

“और कुछ ?”

“हाँ, और कह देना फूलों के रेशों से फाँसी गूँथने में राजकुमारी चतुर हैं !” दूती चली गयी।

कलाकार के अस्तित्व के सामने उसकी कला का मान आज एक प्रश्नचिह्न बनकर खड़ा हो गया था। उसने राजकुमारी की चुनौती स्वीकार कर ली थी। वह अपनी मूर्तिशाला में गया और निर्माण में तल्लीन हो गया । चैत्र – बैशाख की चन्द्रकिरणें विलासगृह के पाटल – सौरभ को छेड़ती हुई आयीं किन्तु मूर्तिशाला के द्वार से ही लौट गयीं ।

आषाढ़ की प्रथम घटाएँ किरणों के कमलों पर लहरानेवाली भ्रमर-पाँत की भाँति आयीं किन्तु रिमझिम सन्देश देकर चली गयीं। उद्यान में मोर पंख फैलाकर नाच उठे, किन्तु उनके नृत्य को देखकर विह्वल हो उठनेवाला कलाकार एकाग्रचित्त से निर्माण में तल्लीन रहा । बादलों से आँख मिचौनी खेलकर, चन्द्र किरणों का आँचल उलटकर, कदम्ब की भुजाओं को आलिंगन में झकझोरकर, केतकी का घूँघट हटाकर, दो-चार चुम्बन चुराकर आनेवाला मादक समीर भी कलाकार की तन्द्रा को अस्त-व्यस्त न कर पाया।

धीरे-धीरे आकाश के सरोवर में इन्द्रधनुषी कमलों ने पलकें मूँद लीं । बादलों के श्यामल कमलपत्र पवन की धारा में बह गये, मयूरों के नृत्य थककर सो गये और शरद् के निरभ्र आकाश में मधुभाषी हंसों का कूजन चन्द्रकिरणों की डोर पर झूलने लगा ।

और एक दिन कलाकार की मूर्तिशाला में उसका भोला हरिण – शावक कान उठाये, मुख में अधकुतरी शेफाली दबाये, भयभीत मुद्रा में भागता हुआ आया और कलाकार के अंक में मुँह छिपाकर खड़ा हो गया।

कलाकार ने प्यार से उसे थपथपाते हुए पूछा – “कोई नवागन्तुक है क्या ?” और वह मूर्तिशाला के बाहर निकल आया। देखा – राजकुमारी खड़ी थीं ।

दोनों कन्धों पर लापरवाही से डाली हुई भौंराली वेणी में मालती – कुसुम गुँथे हुए थे। कानों में ओस से भीगी हुई धान की वालियाँ झूम-झूमकर गाल चूम रही थीं । कलाइयों में कलीयुक्त मृणाल लिपटे थे और गले में पड़ी हुई मणिमाला चन्दन चर्चित वक्ष पर सर रखकर करवटें बदल रही थी ।

“कलाकार, प्रतिमा प्रस्तुत हो गयी ?”

“अभी हृदय का निर्माण शेष है राजकुमारी ?

“वह सदा शेष रहेगा कलाकार ! जिसके पास स्वयं हृदय नहीं, वह कला में हृदय कैसे ला सकेगा ?”

कलाकार चुप रहा ।

“ कलाकार ! तुम एक व्यर्थ की आशा में जीवन खो रहे हो । पत्थर के निर्माण तुम जीवन नहीं फूँक सकते। एक व्यक्ति के हृदय की उपेक्षा कर समष्टि के सौन्दर्य की पूज्य एक आकाश -कुसुम है, उसे हम मनुष्य नहीं तोड़ सकते कलाकार ! अगर तुम्हारी कला की व्याख्या सत्य है तो कला एक मौत का मँडराता हुआ बादल है…”

“हो सकता है ! कैला एक मौत का मँडराता हुआ बादल है जो पश्चिम के कान में बिखरे हुए रक्तिम हलाहल को पी जाता है, किन्तु उससे बरसनेवाली जीवनदायिनी बूँदों का स्पर्श कर धरा पुलकित हो उठती है ?

“धरा पुलकित हो उठती है, किन्तु कलाकार के प्राण ओस की बूँद की तरह दुलककर धूल में खो जाते हैं ?

“खो नहीं जाते राजकुमारी ! वे वन- फूलों में सौरभ बनकर दिशाओं में गमक उठते हैं। जानती हो, कलाकार जीवन का विजेता होता है ?”

“हुँ – कलाकार जीवन का विजेता होता है, किन्तु मृत्यु का शिकार ! और ये निष्प्राण मूर्तियाँ, जिन्हें तुम जीवन की पूर्णतम अभिव्यक्ति कहते हो, ये कलाकृतियाँ वे मुरझाए हुए फूल हैं जिन्हें कलाकार सिसक-सिसककर अपनी मृत्यु-समाधि पर बिखेरता जाता है। कला की साधना का पहला कदम कलाकार के शव पर चरण धरकर बढ़ता है । कला की प्रतिमा का प्रथम अभिषेक कलाकार के तरुण रक्त से प्रतिपादित होता है । भूल जाओ इस पागलपन को कलाकार ! पूर्णता में जीवन नहीं होता। पूर्णता में होती है मृत्यु की शान्ति। अपूर्णता में स्पन्दन होता है, जीवन होता है, वासना का वेग होता है, गुनाह की रंगीनियाँ होती हैं, कल्पना की उड़ान होती है कलाकार ?”

कलाकार ने कुछ उत्तर न दिया- केवल मुसकराकर चुप हो रहा।

कलाकार व्यग्र था। वह बेचैनी से प्रतिमा के सम्मुख टहल रहा था – “क्या मैं हार जाऊँगा ? क्या मेरी कला जीवनमयी न बन सकेगी ? बोलो मेरी प्रतिमे ! तुम्हें कौन से प्राणों की अर्चना चाहिए ?”

प्रतिमा निस्पन्द थी ।

“बोलो मेरी पत्थर की मूरत ! अपना जीवन अपना यौवन अपनी वासना सब कुछ समर्पित करने के बाद भी तुम मेरा मान ना बचा सकोगी ? मैं अपनी तरुणाई के फूल तुम्हें चढ़ा चुका, फिर भी तुम्हारी पत्थर की नसें अभी सूखी क्यों हैं ? उनमें अभी खून की रवानी क्यों नहीं दौड़ी ?”

प्रतिमा मौन थी, अचल थी !

कलाकार ने उस प्रकोष्ठ में मृत्यु की घुटन का अनुभव किया। उसने उठकर वातायन का आवरण हटा दिया। शंख की घण्टियाँ झनझना उठीं ।

दूर प्रतीची के आकाश के घायल हृदय से ताजा खून फैल रहा था। उसके दर्द भरे वक्ष में सान्ध्य तारे की नोक अब भी चुभी थी।

कलाकार क्षण भर उधर देखता रहा और फिर व्यथित होकर बोला- “राजकुमारी शायद सच कहती थी, अपूर्णता में ही जीवन है। पूर्णता शायद इसी मूर्ति की भाँति निर्जीव होती है।”

कलाकार सहसा रुक गया । क्षण भर तक वह कुछ सोचता रहा और सहसा पश्चिम के आकाश का खून उसकी आँखों में उतर आया। जलती हुई निगाहें प्रतिमा पर डालकर वह मुड़ पड़ा। उसकी गति में किसी भयानक निश्चय का आभास था ।

प्रतिमा के सामने वह तनकर खड़ा हो गया।

“अब तक मैंने तुम्हारा निर्माण किया था, किन्तु तुम जीवनमयी न बन सकीं। अब मैं तुम्हें नष्ट करूँगा। मेरा प्रेम अब तुम्हें चूर-चूर कर देगा ! फिर भी तुम जीवित न होगी, फिर भी तुम विद्रोह न करोगी ? ओ पत्थर की पूर्णता !’ उसने हथौड़ा उठाया- आवेग से उसका शरीर काँप उठा, उसने पलकें मूँद लीं और भरपूर प्रहार किया ।

सहसा किसी असीम शक्तिशाली बाहु ने उसकी कलाई थाम ली । उसने चौंक कर आँखें खोलीं। प्रतिमा की फौलादी अँगुलियाँ उसकी कलाई पर थीं और उसके अधरों पर थी पथरीली मुसकान ! प्रतिमा की पुतलियों में जहर छलक रहा था ।

” कलाकार !” पत्थर के स्वर गूँज उठे – “तुमने आज मुझमें प्राण फूँके हैं, किन्तु ईश्वर से समता करने का अधिकार तुम्हें किसने दिया ?”

“मेरे कलाकार ने !”

“मानवीय सीमा को अतिक्रमण करने का दंड भोगने के लिए तैयार हो ?”

“दंड ! दंड किस बात का ? मैं अपनी कला के प्रति सदा ईमानदार रहा। मैंने अपनी पूर्णता के प्रति जागरूकता को धोखा देने की चेष्टा कभी नहीं की। मैंने कला की हत्या करने का पाप कभी नहीं किया !”

“यही तो तुम्हारा अपराध है। कभी पाप न करना स्वयं एक बहुत बड़ा पाप है । संसृति का नियम इसे नहीं सह सकता !”

“मैं केवल एक नियम जानता हूँ-प्रेम का !”

“प्रेम का ?”

“हाँ पत्थर की मूरत, मैं अपनी कला को प्यार करता हूँ, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ !”

पत्थर के ओठ खिल गए।

“क्या तुम मेरा प्यार सह सकोगे ? तुमने अपने से अधिक पूर्णता का निर्माण किया है – मेरे स्पन्दन को तुम अपने वक्ष पर सह सकोगे ?”

कलाकार ने स्वीकृति का संकेत किया ।

“तो आओ !” और पत्थर की दो भुजाएँ, आलिंगन के लिए फैल गईं।

कलाकार आगे बढ़ा और मूर्ति ने उसे अपने पथरीले आलिंगन में कस लिया । उसकी नसें चरमरा उठीं उसकी पसलियाँ तड़क गईं, उसके दिल की धड़कन बन्द होने लगी ।

संगमरमर की गर्दन झुकी और मूर्ति ने अपनी जहरीली पलकें कलाकार के अधरों पर रख दीं – उसकी आँखों का जहर कलाकार के खून में गुँथ गया ।

बाहर के माधवी कुंज में कोयल हृदय फाड़ कर चीख उठी! राजकुमारी चौंक उठी- “क्या चैत्र आ गया ? कोयल आज प्रथम बार कूकी है !”

“नहीं राजकुमारी, आज तो फाल्गुन पूर्णिमा है। देखिए न !” क्षितिज के पास उदास पीला चन्द्रमा धीरे-धीरे उठ रहा था ।

” शृङ्गार करो ! आज कलाकार के भाग्य का निर्णय करना है । पागल ! कल्पनाओं से प्यार करता है, मूर्तिमान सौंदर्य को ठुकरा कर !”

और राजकुमारी ने केशों में लगा मृणाल – तन्तु खोल दिया। घटाएँ छिटक गईं। एक सखी उन्हें अगर के धुएँ से सुवासित करने लगी। दूसरी अलकों के गुम्फन में कनेर-कलियाँ सँजोने लगी। दूती ने कुसुम का रतनार अंगराग मुँह पर मलते-मलते चुटकी काट कर पूछा – “क्या अशोक कुंज से छिपकर कामदेय ने कोई तीर तो नहीं चला दिया है ?”

“चुप रहो !” राजकुमारी ने आवेश में कहा- “आज या तो नारी का सौन्दर्य हारेगा या कला का आकर्षण !”

और राजकुमारी चल दी। प्रकोष्ठ के द्वार बन्द थे । उसने कंकण सँभाल कर धीरे से पट खोले और चीख पड़ी। मूर्ति के चरणों पर कलाकार का शव पड़ा था। ओठ जहर से नीले पड़ गए थे।

राजकुमारी क्षण भर खड़ी रही और उसके बाद जोर से हँस पड़ी – अट्टहास कर उठी । दूती सहम गई – ” राजकुमारी राजकुमारी ! !”

” मना मत करो ! हँसने दो जी भर कर मुझे । आज मेरी विजय हुई है !”

“उफ ! कितनी निष्ठुर हो तुम !”

“निष्ठुर ! मैं कलाकार की मौत पर हँस रही हूँ, क्योंकि मैं उसे प्यार करती थी ! प्यार केवल हँसी है- भयंकर हँसी जो हम अनजाने में करते हैं। कल तक कलाकार मुझ पर हँसता रहा, आज मैं प्रेम पर हँस रही हूँ, कल शायद दुनिया हम सब पर हँसेगी।”

दूती सहम गई !

“और… यह पत्थर की प्रतिमा ! तोड़ दो इसे चूर-चूर कर दो इसे …” राजकुमारी ईर्ष्या से चीख उठी ।

दूती आगे बढ़ी-

“नहीं रहने दो ! इसे कलाकार की समाधि पर स्थापित कर देना ! यह पूर्णता की प्रतीक – यह मृत्यु -चिह्न ! शायद दुनिया इसे कलाकार की देन समझकर इसकी पूजा करेगी ! पागल दुनिया !”

और राजकुमारी फिर हँस पड़ी।

लेखक

  • धर्मवीर भारती

    धर्मवीर भारती का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में सन 1926 में हुआ था। इनके बचपन का कुछ समय आजमगढ़ व मऊनाथ भंजन में बीता। इनके पिता की मृत्यु के बाद परिवार को भयानक आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा। इनका भरण-पोषण इनके मामा अभयकृष्ण ने किया। 1942 ई० में इन्होंने इंटर कॉलेज कायस्थ पाठशाला से इंटरमीडिएट किया। 1943 ई० में इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से बी०ए० पास की तथा 1947 में (इन्होंने) एम०ए० (हिंदी) उत्तीर्ण की। NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे provide comprehensive guidance and support for students studying Hindi Aroh in Class 12. These NCERT Solutions empower students to develop their writing skills, enhance their language proficiency, and understand official Hindi communication. Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे लेखक परिचय जीवन परिचय-धर्मवीर भारती का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में सन 1926 में हुआ था। इनके बचपन का कुछ समय आजमगढ़ व मऊनाथ भंजन में बीता। इनके पिता की मृत्यु के बाद परिवार को भयानक आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा। इनका भरण-पोषण इनके मामा अभयकृष्ण ने किया। 1942 ई० में इन्होंने इंटर कॉलेज कायस्थ पाठशाला से इंटरमीडिएट किया। 1943 ई० में इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से बी०ए० पास की तथा 1947 में (इन्होंने) एम०ए० (हिंदी) उत्तीर्ण की। तत्पश्चात इन्होंने डॉ० धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में ‘सिद्ध-साहित्य’ पर शोधकार्य किया। इन्होंने ‘अभ्युदय’ व ‘संगम’ पत्र में कार्य किया। बाद में ये प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापक के पद पर कार्य करने लगे। 1960 ई० में नौकरी छोड़कर ‘धर्मयुग’ पत्रिका का संपादन किया। ‘दूसरा सप्तक’ में इनका स्थान विशिष्ट था। इन्होंने कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, पत्रकार तथा आलोचक के रूप में हिंदी जगत को अमूल्य रचनाएँ दीं। इन्हें पद्मश्री, व्यास सम्मान व अन्य अनेक पुरस्कारों से नवाजा गया। इन्होंने इंग्लैंड, जर्मनी, थाईलैंड, इंडोनेशिया आदि देशों की यात्राएँ कीं। 1997 ई० में इनका देहांत हो गया। रचनाएँ – इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं – कविता-संग्रह – कनुप्रिया, सात-गीत वर्ष, ठडा लोहा। कहानी-संग्रह-बंद गली का आखिरी मकान, मुर्दो का गाँव, चाँद और टूटे हुए लोग। उपन्यास-सूरज का सातवाँ घोड़ा, गुनाहों का देवता गीतिनाट्य – अंधा युग। निबंध-संग्रह – पश्यंती, कहनी-अनकहनी, ठेले पर हिमालय। आलोचना – प्रगतिवाद : एक समीक्षा, मानव-मूल्य और साहित्य। एकांकी-संग्रह – नदी प्यासी थी। साहित्यिक विशेषताएँ – धर्मवीर भारती के लेखन की खासियत यह है कि हर उम्र और हर वर्ग के पाठकों के बीच इनकी अलग-अलग रचनाएँ लोकप्रिय हैं। ये मूल रूप से व्यक्ति स्वातंत्र्य, मानवीय संबंध एवं रोमानी चेतना के रचनाकार हैं। तमाम सामाजिकता व उत्तरदायित्वों के बावजूद इनकी रचनाओं में व्यक्ति की स्वतंत्रता ही सर्वोपरि है। इनकी रचनाओं में रुमानियत संगीत में लय की तरह मौजूद है। इनकी कविताएँ कहानियाँ उपन्यास, निबंध, गीतिनाट्य व रिपोर्ताज हिंदी साहित्य की उपलब्धियाँ हैं। इनका लोकप्रिय उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ एक सरस और भावप्रवण प्रेम-कथा है। दूसरे लोकप्रिय उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ पर हिंदी फिल्म भी बन चुकी है। इस उपन्यास में प्रेम को केंद्र में रखकर निम्न मध्यवर्ग की हताशा, आर्थिक संघर्ष, नैतिक विचलन और अनाचार को चित्रित किया गया है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद गिरते हुए जीवन-मूल्य, अनास्था, मोहभंग, विश्व-युद्धों से उपजा हुआ डर और अमानवीयता की अभिव्यक्ति ‘अंधा युग’ में हुई है। ‘अंधा युग’ गीति-साहित्य के श्रेष्ठ गीतिनाट्यों में है। मानव-मूल्य और साहित्य पुस्तक समाज-सापेक्षिता को साहित्य के अनिवार्य मूल्य के रूप में विवेचित करती है। भाषा-शैली – भारती जी ने निबंध और रिपोर्ताज भी लिखे। इनके गद्य लेखन में सहजता व आत्मीयता है। बड़ी-से-बड़ी बात को बातचीत की शैली में कहते हैं और सीधे पाठकों के मन को छू लेते हैं। इन्होंने हिंदी साप्ताहिक पत्रिका, धर्मयुग, के संपादक रहते हुए हिंदी पत्रकारिता को सजा-सँवारकर गंभीर पत्रकारिता का एक मानक बनाया। वस्तुत: धर्मवीर भारती का स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के साहित्यकारों में प्रमुख स्थान है।

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