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कमल और मुरदे/धर्मवीर भारती

“कमल ? लेकिन स्वर्ग में तो कमल होते ही नहीं !” देवदूतों ने कहा ।

“किन्तु बिना कमल के आज हमारा शृंगार अधूरा रह जायगा । शरद के निरंभ्र आकाश पर बादल के हल्के कदमों से बिजली की तेजी से नाचने वाली देवकन्याओं की वेणी कमल से शून्य रहेगी। इससे अच्छा तो यह है कि उत्सव मनाया ही न जाय ” देवकन्याओं ने मचलते हुए कहा । देवदूतों ने क्षण भर सोचा और उसके बाद सहसा एक देवदूत बोला- “अच्छा, मैं पृथ्वी पर जाकर कमल लाऊँगा। लेकिन किस रंग का ?”

“पीला, जर्द ।”

“ अर्थात् प्रभात के सुनहले आकाश की भाँति ।”

“नहीं, और उदासी का रंग, मुरदों के चेहरे पर छाये हुए पीलेपन की भाँति ।”

“ असम्भव ! मुरदों की भाँति जर्द कमल ! असम्भव है देवकन्याओ ! कमल तो विकास का प्रतीक है। शुभ्रता का प्रतीक है। उसमें मुरदों का पीलापन कहाँ से आ सकता है ?”

“तो उत्सव नहीं मनाया जा सकता।”

देवदूत चिन्ता में पड़ गये ।

सहसा एक देवदूत बोला, “ठहरो! मैं ऐसे देशों को जानता हूँ जहाँ के कमल ताजगी के नहीं थकान के प्रतीक हैं। मटमैली लहरों पर उदासी की प्रतिमूर्ति की तरह शीश झुकाये रहते हैं। मैं ऐसे देशों को जानता हूँ जिनकी सरितायें विदेशी बन्धनों में बाँध दी गयी हैं, जिनके पवन झकोरों को बेड़ियों में कस दिया गया है, जिनकी सूर्य रश्मियों के स्वतन्त्र विकास की हत्या कर दी गयी है; और मैं जानता हूँ कि ऐसे देशों में फूलने वाले फूल मुरदों की तरह पीले होते हैं। मैं अभी किसी ऐसे देश में जाकर पीले उदास कमल लाऊँगा।”

देवकन्याओं में उत्साह और प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी। “किन्तु जल्दी करो । जल्दी अन्यथा उत्सव का समय निकल जायेगा ” देवकन्याएँ बोलीं ।

समय कम था । देवदूतों ने चाँदनी से बनी हुई एक उत्तुंग रूपहली शिला पर खड़े होकर पृथ्वी की ओर देखा । सफेद वस्त्र पर काले धब्बों की भाँति वसुन्धरा पर गुलाम देश बिखरे हुए थे । किन्तु वे सब स्वर्ग से दूर थे। बहुत दूर। वहाँ तक जाकर कमल लाने का समय नहीं था । देवदूतों ने दृष्टि घुमाई । पूरब में एक गुलाम देश था, जो गुलाम होते हुए भी स्वर्ग से बहुत समीप था। वह अतुल शोभा से लदा हुआ देश, दूर सेतो स्वर्ग की सीमा से घिरा हुआ मालूम देता था।

“वहाँ हमें कमल अवश्य मिलेंगे, मैं जानता हूँ। वह स्वर्ग-सा देश भारत है। चलो ।” और वे देवदूत धूप के तारों से बुने हुए पंख पसारकर भारत की ओर उड़ चले। ऊँची-ऊँची हिमाच्छादित चोटियों को पार करते हुए वे भारत के पूर्वी भाग में पहुँचे। उन्होंने नीचे देखा, हरियाली से लदी हुई घाटियाँ जिन्हें बादल अपने पंख फैला कर धूप से बचाते हैं । “यह कामरूप है। यहाँ गन्धर्व कन्यायें सूर्य की प्रथम रश्मियाँ चुरा लेती हैं, और रात में जब कमल मुर्झाने लगते हैं तो उन चुरायी हुई रश्मियों को बिखरा देती हैं, कमल खिल जाते हैं और उन प्रफुल्ल कमलों को वेणी में गूँथकर वे निशा-शृंगार करती हैं। वहाँ कमल अवश्य मिलेंगे। आओ।”

दोनों देवदूत नीचे भारत-भूमि पर उतर पड़े। मगर वहाँ कहीं कमल का नाम निशान नहीं था। दूर-दूर तक छोटी-छोटी लम्बी पत्तियों के पौदे उग रहे थे और साँवले रंग की फटी और मैली-कुचैली धोती पहने भूखी और अर्द्धनग्न स्त्रियाँ पीठ पर टोकरी लादे पत्तियाँ चुन रही थीं। पास में कुछ भूखे और अस्थिशेष बच्चे चीख रहे थे ।

देवदूत आश्चर्य में पड़ गये। क्या यही भारत है। वे भ्रम से किसी दूसरे देश में आ गये हैं। उन्होंने चारों ओर अचरज से देखा । पौदों के बीच में उगी हुई एक कली पत्तों का घूँघट हटाकर उनकी ओर झाँक रही थी । देवदूत उसके पास गये और बोले-

“यह कौन-सा देश है कलिका ?”

“यह आसाम है। भारत का एक प्रान्त ।” कली ने जवाब दिया। उसके स्वर में एक अजब-सी काँपती हुई उदासी थी ।

“यहाँ कमल नहीं होते ?”

“नहीं यहाँ केवल चाय होती है, देखते हो न ये पौदे । यहाँ इनकी खेती होती है । ”

“खेती, किन्तु यह अन्न तो नहीं है, इनका उपयोग क्या है ?

“ये तोड़कर सुखा ली जाती हैं और उसके बाद यहाँ के शासक और शिक्षित वर्ग उसका पेय बनाकर पीते हैं।”

देवदूतों ने आश्चर्य से एक दूसरे की ओर देखा ।

“हरी वस्तु सुखाकर उपयोग करने से क्या लाभ ?” उन्होंने पूछा ।

कली एक फीकी-सी मुस्कान के साथ बोली- “ देवदूतो ! इस देश में प्रत्येक हरी और अंकुरित होती हुई शक्ति को तोड़कर, सुखाकर यहाँ के शासक उसे काम में लाते हैं, समझे।”

देवदूत चुप हो गये।

“अच्छा, यहाँ गन्धर्व कन्याएँ नहीं होती हैं। शायद उनसे कमल का पता चल सके।”

“नहीं, यहाँ सिर्फ चाय की मजदूरिनें होती हैं ।”

“देखो-देखो” बात काटकर एक देवदूत बोला- “वह देखो, एक गन्धर्व कन्या जा रही है।”

पास की झोपड़ी से एक तरुणी कमर में केले के हरे पत्ते लपेटे हुए निकली, उसका बाकी सब शरीर नग्न था ।

यह पल्लवों से शृंगार किये हुए कोई गन्धर्व कन्या मालूम देती है। आओ इससे पूछें।

“ठहरो ?’ कली ने रोका – “यह गन्धर्व कन्या नहीं है। कपड़ों की कमी से लाचार, पत्तों से तन ढँककर बेशर्मी की जिन्दगी जीने वाली एक गरीब मजदूरिन है । इसे गन्धर्व-कन्या कहकर इसका अपमान मत करो ।”

“ आश्चर्य है ! इस निर्धनता में भी ये लोग इतने कलाप्रिय हैं।

“कलाप्रिय !” कली क्रोध से काँप गयी- “यह कलाप्रियता नहीं लाचारी है। इस गुलामी में किसी तरह बेशर्मी से जीने का एक बहाना है। गुलाम देश में कला एक भयानक बेबसी का नाम है।”

सहसा कली चुप हो गयी। हवा का एक झोंका पुलिस दल की तेजी से लहराता हुआ आ रहा था । ” राजद्रोह फैलाती है कम्बख्त ! ठहर !’ हवा का झोंका बोला और अपने तेज प्रहारों से कली की पंखुड़ी-पंखुड़ी बिखराकर गर्व से इठलाता हुआ चला गया। वह गुलाम धरती से उगी हुई कली फूलने के पहले ही नष्ट कर दी गयी। कली के इस असामयिक अवसान को देखकर देवदूतों का मन भारी हो गया और वे आगे उड़ चले।

आगे चलने पर उन्हें विस्तृत समतल मैदान दीख पड़े जहाँ धान के हरे खेत लहलहा रहे थे और उनमें नदियाँ ऐसी मालूम दे रही थीं जैसे नीले आकाश पर टूटते हुए तारों की ज्योति रेखायें। यह तो बंग देश मालूम होता है। हाँ, यह कविता प्रधानदेश है। यहाँ कवियों के गीत लहरों में घुलकर कमल में पराग की तरह महक उठते हैं। यहाँ नदियों के आसपास नम भूमि में कमल खूब मिलते हैं और दोनों देवदूत भूमि पर उतर पड़े।

दूर पर एक नदी के किनारे दूर तक चाँदनी की तरह सफेदी लहरा रही थी-

“वह देखो, वहाँ हजारों कमल लहरा रहे हैं।”

देवदूत वहाँ चले। पास आकर उन्होंने देखा कि वे भ्रम में थे। नदी के किनारे कमल नहीं वरन् सफेद कफन से ढँके हुए सैकड़ों मुरदे जलाने के लिए रक्खे थे । नदी का पानी गन्दी राख, अधजली लकड़ियाँ और टूटी हड्डियों से ढँका हुआ था। एक-एक चिता पर तीन-तीन और चार-चार लाशें एक साथ जलायी जा रही थीं। देवदूत भयमिश्रित आश्चर्य से चीख पड़े ।

“क्यों ? चीख क्यों पड़े देवदूत ?’ राख से सनी हुई एक लहर ने पूछा ।

“हम यहाँ कमल की खोज में आये थे और हमें मिले कफन से ढके हुए मुरदे ।”

लहर हँस पड़ी। उसकी हँसी चिता के शोलों की तरह भभक उठी । “इसमें अचरज क्या है देवदूत ! पराधीन देशों में सौन्दर्य खोजने वाले कलाकारों को अक्सर बाहरी सौन्दर्य के आवरण में ढँके हुए मुरदे ही मिलते हैं।”

“मगर इतने मुरदे ?”

“हाँ, यह पास के गाँवों में भूख से मरे हुए लोग हैं । आज भारत में सौन्दर्य, कला, जवानी और जीवन, सभी मौत की तराजू पर तौले जा रहे हैं। ”

“अच्छा और कविता ! यहाँ की कविताएँ अब जीवनदायिनी नहीं रहीं क्या ?”

“कविताएँ ?” लहर फिर एक जहरीली हँसी हँसकर बोली- “यहाँ की कविता ने भूख से अकुलाकर आत्महत्या कर ली।”

देवदूत निराश होकर आगे चले । नीचे एक शान्त गाँव था। खेतों में घास उगी हुई थी, झोपड़ियाँ सूनी थीं; और सामने लगे हुए केले के पेड़ों में सुनहली फलियाँ झूम रही थीं, मगर उन्हें तोड़ने वाले कहीं नजर नहीं आ रहे थे। सारे गाँव पर एक अजब सन्नाटा छाया हुआ था। हरियाली से घिरा हुआ एक तालाब हरे चौखटे में जड़े हुए आईने की भाँति शोभित था ।

“शायद उस तालाब में हमें कमल मिल जायँ ।”

देवदूत उतर पड़े ।

वहाँ एक भयानक दुर्गन्ध फैल रही थी। वह तालाब लाशों से पटा पड़ा था।

“क्या यहाँ कमल नहीं मिलते ?” देवदूतों ने पास में उगे हुए एक बाँस के पेड़ से पूछा ।

“कमल हाँ एक दिन था, जब स्वतन्त्र आकाश से बरसती हुई स्वर्ण-रश्मियाँ लहरों को चूमकर बंगाल के तालाबों में कमल खिलाती थीं। मगर आज पूरब की परतन्त्र घाटियों से उगने वाले सूरज की कलंकित किरणें बंगाल के तालाबों में मुरदे खिलाती हैं। आज धूप में जीवन रस के स्थान पर अकाल की विभीषिका बरसती है देवदूत !

और बाँस की पत्तियों से ओस के आँसू झर पड़े ।

साँझ हो चली थी। साँझ के झुटपुटे में एकाएक तालाब की लहरों पर कमलों की भाँति बहुत से पीले और उदास प्रकाशपुंज खिल गये। मालूम होता था जैसे वह ज्योति के बने हुए कमल हों ।

“यह क्या है ?” देवदूतों ने आशा और भय से पूछा ।

बाँस के पेड़ ने सिहरकर जवाब दिया- “ये, ये उन लाशों की भूखी और अतृप्त आत्माएँ हैं । साँझ होते ही ये अन्न की तालाश में निकल पड़ती हैं। मौत भी इनकी भूख नहीं बुझा सकी है।”

“बहुत ठीक । कमल मिलना तो कठिन है चलो इन्हीं को स्वर्ग ले चलें – यह शृंगार के अच्छे उपकरण होंगे।”

“लेकिन – लेकिन मनुष्य की भूखी आत्माओं से उत्सव का शृंगार- यह तो पैशाचिकता है।”

“पागल हो गये हो क्या ? हम लोगों का वर्ण हिम की भाँति श्वेत है न ? और गोरी जातियों का काली जातियों की आत्माओं से खेलने का पूरा अधिकार है।” देवदूत ने जवाब दिया, और उन्होंने वे आत्माएँ बटोरीं और स्वर्ग की ओर उड़ चले । देवकन्याएँ अधीरता से प्रतीक्षा कर रही थीं। उन्हें देखते ही प्रसन्नता से उछल पड़ीं। इस नवीन उपकरण से उन्होंने केश शृंगार किया। लेकिन वे भूखी आत्माएँ क्रान्त और मलीन हो कर बुझ गयीं । उत्सव रुक गया।

देवदूत फिर पृथ्वी की ओर उड़ चले । “लेकिन सुनो !”

देव-कन्याएँ बोलीं- “अगर यह आत्माएँ इतनी जल्दी बुझती रहेंगी तो इतनी आत्माएँ कहाँ से आवेंगी कि हम उनसे रोज शृंगार करें ।”

“ इसकी कोई चिन्ता नहीं, जब तक भारत विदेशियों के बन्धन में है तब तक वहाँ मुरदों और भूखी आत्माओं की कमी नहीं – वहाँ रोज लोग मक्खियों की तरह मरते रहते हैं।”

“लेकिन सम्भव है भारत स्वतन्त्र हो जाय तो ?”

“तुम लोग तो विचित्र बातें करती हो। तुम निश्चिन्त होकर शृंगार करो। अगर वहाँ के लोग ऐसे चुपचाप भूखों मरते गये तो अभी युगों तक भारत के स्वतन्त्र होने की कोई आशा नहीं ।”

देव- कन्याओं में एक व्यंग की हँसी गूँज गयी। देवदूत भारत की ओर चल पड़े।

लेखक

  • धर्मवीर भारती

    धर्मवीर भारती का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में सन 1926 में हुआ था। इनके बचपन का कुछ समय आजमगढ़ व मऊनाथ भंजन में बीता। इनके पिता की मृत्यु के बाद परिवार को भयानक आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा। इनका भरण-पोषण इनके मामा अभयकृष्ण ने किया। 1942 ई० में इन्होंने इंटर कॉलेज कायस्थ पाठशाला से इंटरमीडिएट किया। 1943 ई० में इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से बी०ए० पास की तथा 1947 में (इन्होंने) एम०ए० (हिंदी) उत्तीर्ण की। NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे provide comprehensive guidance and support for students studying Hindi Aroh in Class 12. These NCERT Solutions empower students to develop their writing skills, enhance their language proficiency, and understand official Hindi communication. Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे लेखक परिचय जीवन परिचय-धर्मवीर भारती का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में सन 1926 में हुआ था। इनके बचपन का कुछ समय आजमगढ़ व मऊनाथ भंजन में बीता। इनके पिता की मृत्यु के बाद परिवार को भयानक आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा। इनका भरण-पोषण इनके मामा अभयकृष्ण ने किया। 1942 ई० में इन्होंने इंटर कॉलेज कायस्थ पाठशाला से इंटरमीडिएट किया। 1943 ई० में इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से बी०ए० पास की तथा 1947 में (इन्होंने) एम०ए० (हिंदी) उत्तीर्ण की। तत्पश्चात इन्होंने डॉ० धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में ‘सिद्ध-साहित्य’ पर शोधकार्य किया। इन्होंने ‘अभ्युदय’ व ‘संगम’ पत्र में कार्य किया। बाद में ये प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापक के पद पर कार्य करने लगे। 1960 ई० में नौकरी छोड़कर ‘धर्मयुग’ पत्रिका का संपादन किया। ‘दूसरा सप्तक’ में इनका स्थान विशिष्ट था। इन्होंने कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, पत्रकार तथा आलोचक के रूप में हिंदी जगत को अमूल्य रचनाएँ दीं। इन्हें पद्मश्री, व्यास सम्मान व अन्य अनेक पुरस्कारों से नवाजा गया। इन्होंने इंग्लैंड, जर्मनी, थाईलैंड, इंडोनेशिया आदि देशों की यात्राएँ कीं। 1997 ई० में इनका देहांत हो गया। रचनाएँ – इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं – कविता-संग्रह – कनुप्रिया, सात-गीत वर्ष, ठडा लोहा। कहानी-संग्रह-बंद गली का आखिरी मकान, मुर्दो का गाँव, चाँद और टूटे हुए लोग। उपन्यास-सूरज का सातवाँ घोड़ा, गुनाहों का देवता गीतिनाट्य – अंधा युग। निबंध-संग्रह – पश्यंती, कहनी-अनकहनी, ठेले पर हिमालय। आलोचना – प्रगतिवाद : एक समीक्षा, मानव-मूल्य और साहित्य। एकांकी-संग्रह – नदी प्यासी थी। साहित्यिक विशेषताएँ – धर्मवीर भारती के लेखन की खासियत यह है कि हर उम्र और हर वर्ग के पाठकों के बीच इनकी अलग-अलग रचनाएँ लोकप्रिय हैं। ये मूल रूप से व्यक्ति स्वातंत्र्य, मानवीय संबंध एवं रोमानी चेतना के रचनाकार हैं। तमाम सामाजिकता व उत्तरदायित्वों के बावजूद इनकी रचनाओं में व्यक्ति की स्वतंत्रता ही सर्वोपरि है। इनकी रचनाओं में रुमानियत संगीत में लय की तरह मौजूद है। इनकी कविताएँ कहानियाँ उपन्यास, निबंध, गीतिनाट्य व रिपोर्ताज हिंदी साहित्य की उपलब्धियाँ हैं। इनका लोकप्रिय उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ एक सरस और भावप्रवण प्रेम-कथा है। दूसरे लोकप्रिय उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ पर हिंदी फिल्म भी बन चुकी है। इस उपन्यास में प्रेम को केंद्र में रखकर निम्न मध्यवर्ग की हताशा, आर्थिक संघर्ष, नैतिक विचलन और अनाचार को चित्रित किया गया है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद गिरते हुए जीवन-मूल्य, अनास्था, मोहभंग, विश्व-युद्धों से उपजा हुआ डर और अमानवीयता की अभिव्यक्ति ‘अंधा युग’ में हुई है। ‘अंधा युग’ गीति-साहित्य के श्रेष्ठ गीतिनाट्यों में है। मानव-मूल्य और साहित्य पुस्तक समाज-सापेक्षिता को साहित्य के अनिवार्य मूल्य के रूप में विवेचित करती है। भाषा-शैली – भारती जी ने निबंध और रिपोर्ताज भी लिखे। इनके गद्य लेखन में सहजता व आत्मीयता है। बड़ी-से-बड़ी बात को बातचीत की शैली में कहते हैं और सीधे पाठकों के मन को छू लेते हैं। इन्होंने हिंदी साप्ताहिक पत्रिका, धर्मयुग, के संपादक रहते हुए हिंदी पत्रकारिता को सजा-सँवारकर गंभीर पत्रकारिता का एक मानक बनाया। वस्तुत: धर्मवीर भारती का स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के साहित्यकारों में प्रमुख स्थान है।

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