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अमृत की मृत्यु/धर्मवीर भारती

सामने रखे हुए अग्निपात्र से सहसा एक हलके नीले रंग की लपट उठी और बुझ गयी । दूसरी लपट उठी और बुझ गयी। उसके बाद ही दहकते हुए अंगारे चिटखने लगे और उनमें से बड़ी-बड़ी चिनगारियाँ निकलकर कक्ष में उड़ने लगीं।

अग्निपात्र के सामने बैठा था एक भिक्षु-काषाय वस्त्र, चौड़ा भाल, लम्बी और गठी हुई भुजाएँ – अपलक दृष्टि से देख रहा था वह अग्निपात्र को आग पर धातु के पात्र में कुछ द्रव पदार्थ उबल रहा था । चिनगारियाँ उड़ते ही उसने धातु के पात्र से थोड़ा-सा द्रव एक स्वर्णपात्र में ढाला। उसका रंग मदिरा की भांति लाल था । उसने बड़े ध्यान से देखा । कहीं-कहीं उसमें सफेद बूँदें तैर रही थीं। वह प्रसन्नता से हँस पड़ा – ” बस थोड़ी देर और!” वह गद्गद स्वर में बोला- “और, और फिर मैं अमृत का स्वामी बन जाऊँगा । अमृत केवल पुराणों की कल्पना न होगी वह होगा इस जीवन का यथार्थ। अमृत की लहरें इस पात्र में इठलाती हुई नाचेंगी !” उसने पात्र फिर अग्नि पर रख दिया।

द्वार पर कुछ आहट हुई। एक भिक्षु ने प्रवेश किया ।

“क्या है ?”

“ अनावश्यक बाधा के लिए आचार्य क्षमा करें; एक नारी आपसे मिलना चाहती है ?”

“नारी ! अमृत और नारी !! क्या साम्य है? कह दो मुझे अवकाश नहीं है !”

” किन्तु वह कह रही है कि आचार्य भव्य से मिले बिना मैं न लौटूंगी !” भिक्षु ने कहा-

“किन्तु मुझे अवकाश नहीं!” आचार्य भव्य ने कहा और अपने कार्य में लग गये। भिक्षु खड़ा ही रहा – “नहीं गये तुम? अच्छी विवशता है! अच्छा, उसे भेज दो।”

भिक्षु बाहर गया । द्वार खुला। भव्य ने देखा, द्वार पर थी एक नारी; असीम रूप, अपार सौन्दर्य, अनन्त मादकता । हलका गुलाबी रेशमी अधोवस्त्र, कमर में एक लम्बा मृणाल नागिन की भाँति लिपटा था, जिसके सिरे पर नीलकमल की अधखिली कलियाँ झूल रही थीं। वक्ष पर चम्पई रंग का वस्त्र था। अंगों से पराग के अंगराग का तीखा सौरभ उड़ रहा था। पीछे के केशों को उलटकर बायीं ओर हटकर जूड़ा बँधा था । और उस पर मौलश्री की माला लपेट दी गयी थी। रमणी ने अधखुली मुसकराती पलकों से भव्य की ओर देखा और नम्रता से नमस्कार किया ।

भव्य ! भव्य जैसे मन्त्रमुग्ध – सा हो रहा था। उससे नमस्कार का प्रत्युत्तर भी देते न बना। उसकी दृष्टि जैसे जम-सी गयी हो ।

पास के वातायन से बसन्ती बयार का एक झोंका आया और कक्ष में सद्यः विकसित रसाल-मंजरी का मादक सौरभ बिखरेता हुआ चला गया। भव्य ने पवन की गुदगुदी का अनुभव किया। उसी समय पास में रखा हुआ अग्निपात्र फिर दहक उठा। भव्य का ध्यान उधर आकर्षित हुआ। देखा अमृत का गहरा लाल रंग फीका पड़ता जा रहा है, द्वार पर नारी जो थी। नारी ने वीणा विनिन्दित स्वर में कहा- “नमस्कार !”

आचार्य नागार्जुन ने हाथ उठाकर चारों ओर उमड़ते हुए प्रश्नों को रोका। भिक्षुकों के प्रश्नातुर अधर काँपकर रुक गये। आचार्य ने पैनी दृष्टि से चारों ओर देखा और हँसकर बोले – “भिक्षुओ ! उत्तर और प्रत्युत्तर, विकल्प और विचार, तर्क और वितर्क से जीवन के सत्य का निरूपण नहीं हो सकता। तर्कों से जीवन की जिस सत्ता का स्पष्ट संकेत तुम्हें मिलता है सम्भव है गहनतर तर्कों से कोई उन संकेतों को असत्य सिद्ध कर दे । जिसे हम आज असम्भव समझते हैं, सम्भव है कालान्तर में वही सम्भव हो जाय । मनुष्य का जीवन इतना छोटा है, मनुष्य की बुद्धि इतनी सीमित है, मनुष्य की कल्पना इतनी भ्रमात्मक है कि हम सत्य का मूलरूप देखने से वंचित रह जाते हैं। हमें जो वस्तु सत्य लगती है वही दूसरे को असत्य । अतः हम न यह कह सकते हैं कि यह वस्तु है, और न यही कह सकते हैं कि यह वस्तु नहीं है। न हमें यही ज्ञात है कि इन वस्तुओं में अस्तित्व और अनस्तित्व समान रूप से व्याप्त हैं। यही चरम अज्ञान हमारा एकमात्र ज्ञान है सत्य की इसी अनिर्वचनीयता का नाम शून्य है। इसी शून्य की साधना, अपने को अस्तित्व और अनस्तित्व से भी ऊपर उठाना, हमारी गति का लक्ष्य है । यह सभी प्रश्नों का उत्तर है बस !”

नागार्जुन उठ खड़े हुए। सभा विसर्जित हो गयी। आचार्य अपनी कुटी में जा ही रहे थे कि एक भिक्षु ने आकर नमस्कार किया।

“कौन भव्य ? क्या है वत्स ?”

” एक शंका है आचार्य; और उसका समाधान आपको करना ही होगा। ”

“क्या प्रश्न है ?” आचार्य ने स्नेह से पूछा-

“ आचार्य ! सत्य का निरूपण बिना अपनी सत्ता के स्थापित किये और हो ही कैसे सकता है?

जो मनुष्य स्वयं स्थित नहीं वह निरूपण कर ही कैसे सकता है ?” “ठीक है भव्य; किन्तु मनुष्य की सत्ताशीलता को मैं अस्वीकृत तो नहीं करता । हाँ, ब्राह्मणों की भाँति उसमें आत्मा अवश्य नहीं मानता !’

” आत्मा नहीं !” यदि शरीर का अस्तित्व भी है तो कितना नगण्य ! सारा जीवन बिताकर जब हम सत्य की एकाध झलक पाते हैं, आकर्षित होकर उस ओर बढ़ते हैं, उसी क्षण मृत्यु का काला अँधेरा हमें चारों ओर से घेर लेता है। क्या हम अमर नहीं हो सकते ?”

“ असम्भव है भव्य !”

“कभी-कभी असम्भव भी सम्भव हो जाता है आचार्य ! आज मैं आपको एक रहस्य बताऊँ। विन्ध्यपथ में मुझे एक भोजपत्र मिला था। उस लिपि का अध्ययन करने के बाद उसमें कुछ ऐसे संकेत मिले हैं कि अमृत का निर्माण सम्भव है।”

नागार्जुन चौंक पड़े।

“सच ! भव्य तुम मेरे योग्य शिष्य हो । देखता हूँ मेरे पश्चात् मठ की रसायनिक परम्परा को तुम बनाये रख सकोगे। प्रयत्न करो वत्स ! मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है?”

बाल भिक्षु तरुण हुआ। नागार्जुन के बाद आचार्य बना और अमृत के प्रयोग में लग गया…।

उसने देखा कि द्रव का गहरा लाल रंग फीका पड़ता जा रहा है…”

सहसा रमणी ने वीणा – विनिन्दित स्वर में कहा- “नमस्कार आचर्य !” भव्य ने सजग होकर कहा, “ आशीर्वाद भद्रे ! तुम्हारा परिचय ?”

“ आचार्य मुझे नहीं जानते । किन्तु जिस समय मैं गोपाल को जगाने के लिए प्रभाती गाती हूँ उसी समय आचार्य मन्दिर के पार्श्ववर्ती राजमार्ग को पवित्र करते हुए जाते हैं और मुझे गान के लिए एक पुनीत प्रेरणा मिल जाती है ।”

“अहो ! तुम वैष्णव मन्दिर की देवदासी, अंजलि ! मैंने तुम्हारे विषय में सुना था । कहो, क्या बात है?”

“ आज फाल्गुन की पूर्णमासी है आचार्य ! और नवपत्रिका का उत्सव हम लोग आपके संघाराम में मनाने की आज्ञा चाहते हैं।”

“किन्तु तुम जानती हो देवदासी, उत्सवों और नाटकों में भिक्षुओं का भाग लेना वर्जित है, फिर मैं तुम्हें कैसे आज्ञा दे दूँ ? इसका उन पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है देवि!”

“उत्सवों का बुरा प्रभाव ! आश्चर्य है देव। जीवन भर क्षण-क्षण दुःख की ज्वाला में सुलगता हुआ मनुष्य कभी उस कष्ट की यातना को जीत कर मुसकरा पड़े, हँस दे, तो उसमें भी कोई पाप है ?”

“हाँ है?” भव्य ने कहा–“यह उत्सव, यह आनन्द मनुष्य को जीवन की उपेक्षा सिखलाता है। मनुष्य का जीवन नश्वर है और यह अपनी इस क्षणिकता को भूलकर जीवन के काल्पनिक सुखों में डूबकर वास्तविक साधना को भूल जाता है।”

“क्या दुःख और मृत्यु यही जीवन की सीमाएँ हैं? तुमने जीवन की बड़ी संकुचित व्याख्या बना रखी है आचार्य ! मनुष्य को इतना दुर्बल, इतना छोटा मत बनाओ भव्य ! इसमें मानव की मानवता का अपमान होता है । किन्तु तुम तो आत्मा के अस्तित्व को ही नहीं मानते। इसीलिए तुम मनुष्य को साधना का यन्त्र समझ सकते हो पर हमारी दृष्टि में तो साधना मनुष्य के लिए है, मनुष्य साधना के लिए नहीं ! मनुष्य साधना का उद्देश्य है, साधना मनुष्य का उद्देश्य नहीं !”

“पर देवदासी ! तुम्हारे धर्म में तो मनुष्य देवता का साधन बन जाता है, देवता की पूजा की सामग्री बन जाता है फिर तुम मनुष्यत्व पर इतना गर्व कैसे कर सकती हो ?”

” तुमने हमें गलत समझा है आचार्य ! हमारे लिए साध्य है मनुष्य, प्रेम मनुष्यत्व की साधना है और राधाकृष्ण उस प्रेम के विकास के अवलम्ब मात्र !”

“प्रेम ?” भव्य हँसे -“प्रेम की साधना !! कितना बड़ा भ्रम है तुम्हें देवि ? तुम समझती हो प्रेम तुम्हें सत्य के निकट ले जायगा ?’

“हाँ आचार्य इसी विश्वास पर मैं जीवित हूँ । प्रेम को समझकर जब मनुष्य उस पूर्ण सत्ता को स्नेह समर्पण कर देता है, उसी समय विश्वरूप भगवान उसके हृदय में बस जाते हैं । उस समय प्रत्येक प्रेमी कृष्ण बन जाता है, प्रत्येक प्रेमिका राधा बन जाती है और प्रत्येक कुंज में गूँज उठती है मनमोहन की मादक मुरली – यही प्रेम की साधना है, यही आत्मसमर्पण का पथ ?”

“आत्समर्पण!” भव्य फिर हँस पड़े- “ठीक है – किन्तु प्रेम का विचार ही मिथ्या है अंजलि ! बिना दो के प्रेम हो ही नहीं सकता। और जिस समय एक मनुष्य अपना सब कुछ समर्पित कर देता है उस समय उसका अपना क्या रह जाता है? कुछ नहीं । केवल अपनी लालसाओं की समाधि पर, अपनी इच्छाओं के श्मशान में सिसक-सिसककर जो मृत्युगीत वह गाता है, उसी को समझता है प्रेम ! चिता के धूम्र से मलिन अन्तरिक्ष उसे देखकर व्यंग्य से हँसता है। श्मशान के प्रेत अट्टहास करते हैं। और पागल प्रेमी ? वह समझता है संसार उसका स्वागत कर रहा है। यह है प्रेम ! शव का आलिंगन ! चिता की राख में दबे हुए अंगारों को ही तो प्रेम कहते हैं न? इसी प्रेम के सम्बल को लेकर तुम जीवन को जीतने चलती हो बिना सत्ता के, बिना स्थिति के, तुम जीवन को नहीं जीत सकतीं और प्रेम, आत्मसमर्पण, सत्ता को चूर-चूर कर डालता है।”

“मुझे जीवन के जीतने की कामना ही नहीं आचार्य । हम जीवन को केवल प्यार करते हैं और जीवन स्वयं हमारे सामने हार जाता है?”

“जीवन हार जाता है या तुम्हें भ्रम में डाल देता है देवि ? वासवदत्ता की कथा सुनी है न? जीवन भर प्रेम करने के पश्चात भी उसे मिली केवल अतृप्ति, असन्तोष और अन्त में उसे झुकना पड़ा बुद्ध के वैराग्य, बुद्ध की करुणा के सामने ! प्रेम के सामने नहीं। आओ बुद्ध की शरण अंजलि । तुम्हारी सभी कामनाओं की सिद्धि होगी । तुम निर्वाण पाओगी।”

“ रहने दो भव्य ! मुझे निर्वाण की आवश्यकता नहीं। हमें बार-बार इसी संसार में आना है। क्यों न इसी को स्वर्ग बना लें। और कामनाओं की सिद्धि से क्या लाभ है। भव्य ! कामनाओं की सिद्धि तो जीवन का अन्त है। हमारे तो जीवन का कभी अन्त नहीं होता। क्योंकि हमारी कामनाओं की कभी सिद्धि ही नहीं होती। उनकी कभी सिद्धि ही नहीं होती क्योंकि हमारी कामनाएँ स्वयं सिद्धि हैं। हमारा जीवन उल्लासमय है भव्य, जब तक हम जीवित रहते हैं हँसते – जब मरते हैं तो… ।”

“ठहरो देवि ! वासवदत्ता भी यही कहती थीं…।”

“लेकिन आचार्य, मैं वासवदत्ता की तरह नहीं हूं।”

“ मृत्यु सबको वही बना देती है देवि !”

“वासवदत्ता मृत्यु के उद्यान के काँटों से डर गयी थी, उसने वहाँ की छाया की शीतलता का अनुभव नहीं किया था । किन्तु अब देर हो रही है आचार्य; तो आपका उद्यान हम लोगों को न मिलेगा।”

“मुख्य उद्यान तो नहीं, वह सामने वाला उद्यान तुम उपयोग में ला सकती हो !”

“धन्यवाद आचार्य ?” अंजलि उठी और चली गयी।

“इतना रूप और इतनी बुद्धि !” – भव्य ने मन में कहा ।

“इतना तेज, इतना तारुण्य और यह विरक्ति! आश्चर्य है !” अंजलि ने सोचा ।

सन्ध्या हो गयी थी। पूर्णिमा की सफेद चाँदनी वातायन के मार्ग से झाँक कर हँस रही थी । भव्य एकाग्रचित्त से अग्निपात्र के तापमान को संयत रखने में व्यस्त था । बाहर दूर पर सामने के उद्यान में उत्सव हो रहा था । रसाल वृक्ष में झूला पड़ा था और लड़कियाँ गीत गा रही थीं । सहसा उस कोलाहल को चीरकर एक मीठा पर तीव्र स्वर गूँज उठा। भव्य का ध्यान भंग हो गया । यह तो अंजलि का स्वर है । वह एक गीत गा रही थी- राधा का मरण – गीत – ” ओ निष्ठुर मनमोहन ! तुम्हारी राधा मरणसेज पर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। क्या अब भी तुम न आओगे। एक बार आओ घनश्याम ! प्यार करने के लिए नहीं । केवल यह बतलाने के लिए कि प्यार झूठा है। राधा ! मेरे प्यार को भूल जाओ ?”

उसके बाद एक जोर का कोलाहाल हुआ और उसमें अंजलि के स्वर छिप गये । उसने फिर अपने प्रयोग की ओर देखा । पात्र से सहसा लहराता हुआ धुआँ उठा और एक उबाल खाकर द्रव श्वेत हो गया । और वह चीख उठा- “अमृत ! मिल गया। यह मनुष्य की जीत है ?”

सहसा वातायन से आवाज आयी – “अब मृत्यु निकट है, जीवन की कोई आशा नहीं ?”

भव्य चौंक पड़ा “कौन कहता है मृत्यु निकट है। अब तो मनुष्य अमर बनेगा।”

लेकिन बाहर से फिर किसी ने कहा- “मृत्यु अब निकट है !”

भव्य ने बाहर झाँककर देखा – नीचे कुछ लोग बातें करते हुए जा रहे थे । एक ने कहा – “लेकिन हुआ क्या था ?”

“जब अंजलि गा-गाकर देवता के लिए फूल चुन रही थी तो उसे साँप ने डस लिया।”

भव्य स्तम्भित हो गया। अंजलि को साँप ने डस लिया। आश्चर्य है, अभी तो वह गा रही थी ! वह सुनो- वह तो अब भी गा रही है- “निष्ठुर! तुम्हारी राधा मरणसेज पर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। क्या तुम अब भी न आओगे ? एक बार फिर आओ निष्ठुर! प्रेम करने के लिए नहीं । यह बतलाने के लिए कि प्रेम झूठा है…”

भव्य ने ध्यान से देखा। उद्यान शून्य था। तो क्या सचमुच अंजलि मरणसेज पर है। क्या मृत्यु के द्वार पर खड़े होकर अंजलि ने यह गीत गाया है जिसकी प्रतिध्वनि अनजाने मेरे हृदय में गूंज रही है। वह विकल हो गया। नहीं, अंजलि को खींच ही लाना होगा मौत के मुँह से। उसने अमृत का पात्र लिया और चल पड़ा मन्दिर की ओर ! मुख्य कक्ष में, दासियों से घिरी हुई अंजलि अचेत थी। उसके पहुँचते ही दासियाँ हट गयीं । अकस्मात अंजलि ने आँखें खोल दीं। वह काँप रही थी, प्रयत्न कर बोली-

“ओह! वासवदत्ता की मरणसेज पर अमिताभ आये हैं ?”

“ आज तुम्हें जीवन की असारता मालूम हो गयी न? इसी को भूलकर वासवदत्ता ने प्रेम…”

“ठहरो भव्य ?” वह बात काटकर बोली- “ वासवदत्ता ने प्रेम किया था मगर मरते समय बुद्ध की कृतज्ञता मोल ली, यह अच्छा नहीं किया। और बुद्ध ! बुद्ध ने उसके प्यार का तिरस्कार कर मानवता की भावनाओं का अपमान किया था और अन्त समय पर प्रेम के शव पर करुणा और दया का कफन उढ़ाकर उन्होंने जले पर नमक छिड़का था। यदि वासवदत्ता का प्रेम बुद्ध ने स्वीकार कर लिया होता तो वासवदत्ता की वह अवस्था ही क्यों होती। मुझसे तुम उसकी आशा न करो भव्य ! मैं मनुष्य की भाँति जीवित रही हूँ; मनुष्य की भाँति मरूँगी। मुझे जीने का उल्लास रहा है; मरने का पश्चात्ताप न होगा!”

भव्य चकित रह गये। जिस मृत्यु से वे जीवन भर डरते रहे, यह देवदासी उसे किस निर्भयता से स्वीकार रही है। जिस जीवन के पीछे वे इतनी साधना करते रहे उसे किस शान से इसने ठुकरा दिया। कौन-सी शक्ति है इस आत्मविश्वास के पीछे ?

अंजलि ने फिर आँखें खोलीं और अपना शीतल हाथ भव्य के हाथ पर रख दिया । भव्य सिहर गये पर उन्होंने वह हाथ हटाया नहीं ! उन्होंने बड़े ध्यान से देखा अंजलि के मुख की ओर। उसके ओठ जहर के कारण नीले पड़ते जा रहे थे। क्या मृत्यु अंजलि को छीन ले जायेगी ? भव्य व्याकुल हो उठे।

“अंजलि! जाने दो!” उन्होंने कहा – ” करुणा न सही, सहानुभूति न सही, क्या प्रेम प्रार्थना पर भी तुम अमृत की दो बूँदें स्वीकार न करोगी?”

अंजलि ने हाथ बढ़ाया और अमृत का पात्र लेकर देवता की मूर्ति के चरणों पर डाल दिया। वे अमर हो गये ।

“अमृत देवताओं के लिए है, मनुष्य के लिए नहीं प्रियतम ! तुम मृत्यु से डरते हो ? मृत्यु जीवन की प्रेरणा है, विरह प्रेम की उत्तेजना है, दुःख सुख का विधाता है भव्य ! जानते हो, कुमुदिनी प्रातः काल इसलिए नहीं कुम्हला जाती कि चन्द्र उससे दूर हो जाता है, चाँद की किरणें तो उसके हृदय में खेलती ही रहती हैं; वह मुरझाती है इसलिए कि साँझ को फिर प्रियतम का सुखद स्पर्श उसे प्राप्त हो । यही प्रेम की साधना है । जन्म-जन्मान्तर तक यही क्रीड़ा चलती रहती है भव्य ?”

सहसा वह चुप हो गयी और उसने अपना सिर भव्य के कन्धों पर टेक दिया ।

भव्य ने धीरे से पुकारा, “अंजलि !” पर वह मूक थी। वह काँप उठा आशंका से ! उसने ध्यान से देखा। कुमुदिनी मुरझा गयी थी। वह पागल सा हो उठा – झुककर उसने अंजलि के विषाक्त अधरों को चूम लिया और चीख उठा- “मैं कहता था ! मैं कहता था ! प्रेम शव का आलिंगन है, श्मशान की साधना है। जन्म-जन्मान्तर! यह भ्रम है, केवल भ्रम ! कौन कहता है प्रेम मनुष्य को अमर बनाता है ! मनुष्य को अमर बनाती है निमर्मता, निरीहता -अमर हैं ये पत्थर के देवता! दुःख, सुख, वेदना, आनन्द, जीवन और मृत्यु से उदासीन इनकी पथरीली आँखों में आँसू नहीं आते – आह ! कितने शान्त हैं ये पत्थर, दुःख से परे, सुख से ऊपर ! मैं प्रेम नहीं कर सकता। मैं भी पत्थर बनूँगा । देवता ! पत्थर के देवता ! मुझे भी अपनी तरह पत्थर बना लो ! परन्तु मैं तुम्हारी पूजा काहे से करूँ ? हृदय तो मेरे पास है ही नहीं। रहा भी हो तो पहले ही स्पर्श में चूर-चूर हो चुका। लेकिन मस्तिष्क है-उसे तुम्हारे चरणों पर रखता हूँ देवता ! मुझे पत्थर बना लो।” और आवेश में भव्य ने अपना सर मूर्ति के चरणों पर पटक दिया। अंजलि का शव शान्त पड़ा था और देवदासियों की अर्द्ध-मौन सिसकियाँ वातावरण में तड़प रही थीं…

लेखक

  • धर्मवीर भारती

    धर्मवीर भारती का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में सन 1926 में हुआ था। इनके बचपन का कुछ समय आजमगढ़ व मऊनाथ भंजन में बीता। इनके पिता की मृत्यु के बाद परिवार को भयानक आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा। इनका भरण-पोषण इनके मामा अभयकृष्ण ने किया। 1942 ई० में इन्होंने इंटर कॉलेज कायस्थ पाठशाला से इंटरमीडिएट किया। 1943 ई० में इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से बी०ए० पास की तथा 1947 में (इन्होंने) एम०ए० (हिंदी) उत्तीर्ण की। NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे provide comprehensive guidance and support for students studying Hindi Aroh in Class 12. These NCERT Solutions empower students to develop their writing skills, enhance their language proficiency, and understand official Hindi communication. Class 12 Hindi NCERT Book Solutions Aroh Chapter 13 – गद्य भाग-काले मेघा पानी दे लेखक परिचय जीवन परिचय-धर्मवीर भारती का जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में सन 1926 में हुआ था। इनके बचपन का कुछ समय आजमगढ़ व मऊनाथ भंजन में बीता। इनके पिता की मृत्यु के बाद परिवार को भयानक आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा। इनका भरण-पोषण इनके मामा अभयकृष्ण ने किया। 1942 ई० में इन्होंने इंटर कॉलेज कायस्थ पाठशाला से इंटरमीडिएट किया। 1943 ई० में इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से बी०ए० पास की तथा 1947 में (इन्होंने) एम०ए० (हिंदी) उत्तीर्ण की। तत्पश्चात इन्होंने डॉ० धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में ‘सिद्ध-साहित्य’ पर शोधकार्य किया। इन्होंने ‘अभ्युदय’ व ‘संगम’ पत्र में कार्य किया। बाद में ये प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापक के पद पर कार्य करने लगे। 1960 ई० में नौकरी छोड़कर ‘धर्मयुग’ पत्रिका का संपादन किया। ‘दूसरा सप्तक’ में इनका स्थान विशिष्ट था। इन्होंने कवि, उपन्यासकार, कहानीकार, पत्रकार तथा आलोचक के रूप में हिंदी जगत को अमूल्य रचनाएँ दीं। इन्हें पद्मश्री, व्यास सम्मान व अन्य अनेक पुरस्कारों से नवाजा गया। इन्होंने इंग्लैंड, जर्मनी, थाईलैंड, इंडोनेशिया आदि देशों की यात्राएँ कीं। 1997 ई० में इनका देहांत हो गया। रचनाएँ – इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं – कविता-संग्रह – कनुप्रिया, सात-गीत वर्ष, ठडा लोहा। कहानी-संग्रह-बंद गली का आखिरी मकान, मुर्दो का गाँव, चाँद और टूटे हुए लोग। उपन्यास-सूरज का सातवाँ घोड़ा, गुनाहों का देवता गीतिनाट्य – अंधा युग। निबंध-संग्रह – पश्यंती, कहनी-अनकहनी, ठेले पर हिमालय। आलोचना – प्रगतिवाद : एक समीक्षा, मानव-मूल्य और साहित्य। एकांकी-संग्रह – नदी प्यासी थी। साहित्यिक विशेषताएँ – धर्मवीर भारती के लेखन की खासियत यह है कि हर उम्र और हर वर्ग के पाठकों के बीच इनकी अलग-अलग रचनाएँ लोकप्रिय हैं। ये मूल रूप से व्यक्ति स्वातंत्र्य, मानवीय संबंध एवं रोमानी चेतना के रचनाकार हैं। तमाम सामाजिकता व उत्तरदायित्वों के बावजूद इनकी रचनाओं में व्यक्ति की स्वतंत्रता ही सर्वोपरि है। इनकी रचनाओं में रुमानियत संगीत में लय की तरह मौजूद है। इनकी कविताएँ कहानियाँ उपन्यास, निबंध, गीतिनाट्य व रिपोर्ताज हिंदी साहित्य की उपलब्धियाँ हैं। इनका लोकप्रिय उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ एक सरस और भावप्रवण प्रेम-कथा है। दूसरे लोकप्रिय उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ पर हिंदी फिल्म भी बन चुकी है। इस उपन्यास में प्रेम को केंद्र में रखकर निम्न मध्यवर्ग की हताशा, आर्थिक संघर्ष, नैतिक विचलन और अनाचार को चित्रित किया गया है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद गिरते हुए जीवन-मूल्य, अनास्था, मोहभंग, विश्व-युद्धों से उपजा हुआ डर और अमानवीयता की अभिव्यक्ति ‘अंधा युग’ में हुई है। ‘अंधा युग’ गीति-साहित्य के श्रेष्ठ गीतिनाट्यों में है। मानव-मूल्य और साहित्य पुस्तक समाज-सापेक्षिता को साहित्य के अनिवार्य मूल्य के रूप में विवेचित करती है। भाषा-शैली – भारती जी ने निबंध और रिपोर्ताज भी लिखे। इनके गद्य लेखन में सहजता व आत्मीयता है। बड़ी-से-बड़ी बात को बातचीत की शैली में कहते हैं और सीधे पाठकों के मन को छू लेते हैं। इन्होंने हिंदी साप्ताहिक पत्रिका, धर्मयुग, के संपादक रहते हुए हिंदी पत्रकारिता को सजा-सँवारकर गंभीर पत्रकारिता का एक मानक बनाया। वस्तुत: धर्मवीर भारती का स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के साहित्यकारों में प्रमुख स्थान है।

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