राजै कहा सत्य कहु सूआ । बिनु सत जन सेंवर कर भूआ ॥
होइ मुख रात सत्य के बाता । जहाँ सत्य तहँ धरम सँघाता ॥
बाँधी सिहिटि अहै सत केरी । लछिमी अहै सत्य कै चेरी ॥
सत्य जहाँ साहस सिधि पावा । औ सतबादी पुरुष कहावा ॥
सत कहँ सती सँवारे सरा । आगि लाइ चहुँ दिसि सत जरा ॥
दुइ जग तरा सत्य जेइ राखा । और पियार दइहि सत भाखा ॥
सो सत छाँड़ि जो धरम बिनासा । भा मतिहीन धरम करि नासा ॥
तुम्ह सयान औ पंडित, असत न भाखौं काउ ।
सत्य कहहु तुम मोसौं, दुहुँ काकर अनियाउ ॥1॥
(भूआ=सेमल की रूई, मुख रात होई=सुर्खरू होता है, सरा=चिता)
सत्य कहत राजा जिउ जाऊ । पै मुख असत न भाखौं काऊ ॥
हौं सत लेइ निसरेउँ एहि बूते । सिंघलदीप राजघर हूँते ॥
पदमावति राजा कै बारी । पदुम-गंध ससि बिधि औतारी ॥
ससि मुख, अंग मलयगिरि रानी । कनक सुगंध दुआदस बानी ॥
अहैं जो पदमिनि सिंघल माहाँ । सुगँध रूप सब तिन्हकै छाहाँ ॥
हीरामन हौं तेहिक परेवा । कंठा फूट करत तेहि सेवा ॥
औ पाएउँ मानुष कै भाषा । नाहिं त पंखि मूठि भर पाँखा ॥
जौ लहि जिऔं रात दिन सँवरौं ओहि कर नावँ ।
मुख राता, तत हरियर दुहूँ जगत लेइ जावँ ॥2॥
(घर हूँते=घर से, दुवादस बानी=बारह बानी,चोखा, कंठा फूट=
गले में कंठे की लकीर प्रकट हुई,सयाना हुआ)
हीरामन जो कवँल बखाना । सुनि राजा होइ भँवर भुलाना ॥
आगे आव, पंखि उजियारा । कहँ सो दीप पतँग कै मारा ॥
अहा जो कनक सुबासित ठाऊँ । कस न होइ हीरामन नाऊँ ॥
को राजा, कस दीप उतंगू । जेहि रे सुनत मन भएउ पतंगू ॥
सुनि समिद्र भा चख किलकिला । कवँलहि चहौं भँवर होइ मिला ॥
कहु सुगंध धनि कस निरमली । भा अलि-संग, कि अबहीं कली?॥
औ कहु तहँ जहँ पदमिनी लोनी । घर-घर सब के होइ जो होनी ॥
सबै बखान तहाँ कर कहत सो मोसौं आव ।
चहौं दीप वह देखा,सुनत उठा अस चाव ॥3॥
(पतंग कै मारा=जिसने पतंग बनाकर मारा, उतंगू=ऊँचा,
किलकिला=जल के ऊपर मछली के लिये मँडराने वाला
एक जलपक्षी, होनी=बात,ब्यवहार)
का राजा हौं बरनौं तासू । सिंघलदीप आहि कैलासू ॥
जो गा तहाँ भुलाना सोई । गा जुग बीति न बहुरा कोई ॥
घर घर पदमिनि छतिसौ जाती ।सदा बसंत दिवस औ राती ॥
जेहि जेहि बरन फूल फुलवारी । तेहि तेहि बरन सुगंध सो नारी ॥
गंध्रबसेन तहाँ बड़ राजा । अछरिन्ह महँ इंद्रासन साजा ॥
सो पदमावति तेहि कर बारी । जो सब दीप माँह उजियारी ॥
चहूँ खंड के बर जो ओनाही । गरबहि राजा बोलै नाहीं ॥
उअत खंड के बर जो ओनाही । गरबहि राजा बोलै नाहीं ॥
उअत सूर जस देखिय चाँद छपै तेहि धूप ।
ऐसे सबे जाहिं छपि पदमावति के रूप ॥4॥
(अछरी=अप्सरा, ओनाहीं=झुकते हैं)
सुनि रवि-नावँ रतन भा राता । पंडित फेरि उहै कहु बाता ॥
तें सुरंग मूरत वह कही । चित महँ लागि चित्र होइ रही ॥
जनु होइ सुरुज आइ मन बसी । सब घट पूरि हिये परगसी ॥
अब हौं सुरुज, चाँद वह छाया । जल बिनुमीन, रकत बिनु काया ॥
किरिन-करा भा प्रेम -अँकूरू । जौ ससि सरग, मिलौं होइ सूरू ॥
सहसौ करा रूप मन भूला । जहँ जहँ दीठ कवँल जनु फूला ॥
तहाँ भवँर जिउ कँवला गंधी । भइ ससि राहु केरि रिनि बंधी ॥
तीनि लोक चौदह खंड सबै परै मोहिं सूझि ।
पेम छाँड़ि नहिं लोन किछु, जो देखा मन बूझि ॥5॥
(करा=कला, लोन=सुंदर)
पेम सुनत मन भूल न राजा । कठिन पेम, सिर देइ तौ छाजा ॥
पेम-फाँद जो परा न छूटा । जीउ दीन्ह पै फाँद न टूटा ॥
गिरगिट छंद धरै दुख तेता । खन खन पीत, रात खन सेता ॥
जान पुछार जो भा बनबासी । रोंव रोंव परे फँद नगवासी ॥
पाँखन्ह फिरि फिरि परा सो फाँदू । उड़ि न सकै, अरुझा भा बाँदू ॥
`मुयों मुयों’ अहनिसि चिल्लाई । ओही रोस नागन्ह धै खाई ॥
पंडुक, सुआ, कंक वह चीन्हा । जेहिं गिउ परा चाहि जिउ दीन्हा ॥
तितिर-गिउ जो फाँद है, नित्ति पुकारै दोख ।
सो कित हँकार फाँद गिउ (मेलै) कित मारे होइ मोख ॥6॥
(छंद=रूप रचना, पुछार=मयूर,मोर, नगवासी=नागों
का फंदा,नागपाश, धै=धरकर, चीन्हा=चिह्न,लकीर)
राजै लीन्ह ऊबि कै साँसा । ऐस बोल जिनि बोलु निरासा ॥
भलेहि पेम है कठिन दुहेला । दुइ जग तरा पेम जेइ खेला ॥
दुख भीतर जो पेम-मधु राखा । जग नहिं मरन सहै जो चाखा ॥
जो नहिं सीस पेम-पथ लावा । सो प्रिथिमी महँ काहे क आवा? ॥
अब मैं पंथ पेम सिर मेला । पाँव न ठेलु, राखु कै चेला ॥
पेम -बार सो कहै जो देखा । जो न देख का जान विसेखा?॥
तौ लगि दुख पीतम नहिं भेंटा । मिलै, तौ जाइ जनम-दुख मेटा ॥
जस अनूप, तू बरनेसि, नखसिख बरनु सिंगार ।
है मोहिं आस मिलै कै, जौ मेरवै करतार ॥7॥
(ऊबि कै साँस लीन्ह=लंबी साँस ली, दुहेला=कठिन खेल,
पाँव न ठेलु=पैर से न ठुकरा,तिरस्कार न कर, बिसेखा=मर्म)