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राजा-बादशाह-युद्ध-खंड-43 पद्मावत/जायसी

इहाँ राज अस सेन बनाई । उहाँ साह कै भई अवाई ॥
अगिले दौरे आगे आए । पछिले पाछ कोस दस छाए ॥
साह आइ चितउर गढ़ बाजा । हस्ती सहस बीस सँग साजा ॥
ओनइ आए दूनौ दल साजे । हिंदू तुरक दुवौ रन गाजे ॥
दुवौ समुद दधि उदधि अपारा । दूनौ मेरू खिखिंद पहारा ॥
कोपि जुझार दुवौ दिसि मेले । औ हस्ती हस्ती सहुँ पेले ॥
आँकुस चमकि बीजु अस बाजहिं । गरजहिं हस्ति मेघ जनु गाजहिं ॥

धरती सरग एक भा, जूहहि ऊपर जूह ।
कोई टरै न टारे, दूनौ बज्र-समूह ॥1॥

(बाजा=पहुँचा, गाजे=गरजे, दधि=दधिसमुद्र, उदधि=पानी
का समुद्र, खिखिंद=किष्किंधा पर्वत, सहुँ=सामने, पेले=जोर
से चलाए, जूह=यूथ,दल)

हस्ती सहुँ हस्ती हठि गाजहिं । जनु परबत परबत सौं बाजहिं ॥
गरु गयंद न टारे टरहीं । टूटहिं दाँत, माथ गिरि परही ॥
परबत आइ जो परहिं तराहीं । दर महँ चाँपि खेह मिलि जाहीं ॥
कोइ हस्ती असवारहि लेहीं । सूँड समेटि पायँ तर देहीं ॥
कोइ असवार सिंघ होइ मारहिं । हनि कै मस्तक सूँड उपारहिं ॥
गरब गयंदन्ह गगन पसीजा । रुहिर चूवै धरती सब भीजा ॥
कोइ मैमंत सँभारहिं नाहीं । तब जानहिं जब गुद सिर जाहीं ॥

गगन रुहिर जस बरसै धरती बहै मिलाइ ।
सिर धर टूटि बिलाहिं तस पानी पंक बिलाइ ॥2॥

(तराहीं=नीचे, दर=दल, चाँपि=दबकर, गरब=मदजल,
गुद=सिर का गूदा, मिलाइ=धूल मिलाकर)

आठौं बज्र जुझ जस सुना । तेहि तें अधिक भएउ चौगुना ॥
बाजहिं खड़ग उठै दर आगी । भुइँ जरि चहै सरग कहँ लागी ॥
चमकहिं बीजु होइ उजियारा । जेहि सिर परै होइ दुइ फारा ॥
मेघ जो हस्ति हस्ति सहुँ गाजहिं । बीजु जो खड़ग खड़ग सौं बाजहिं ॥
बरसहिं सेल बान होइ काँदो । जस बरसै सावन औ भादों ॥
झपटहिं कोपि, परहिं तरवारी । औ गोला ओला जस भारी ॥
जूझे बीर कहौं कहँ ताईं । लेइ अछरी कैलास सिधाईं ॥

स्वामि-काज जो जूझे, सोइ गए मुख रात ।
जो भागे सत छाँडि कै मसि मुख चढ़ी परात ॥3॥

(आठौं बज्र=आठों वज्रों का, दर=दल में, फारा=फाल,टुकड़ा,
सेल=बरछे, होइ=होता है, काँदो=कीचड़, मुख रात=लाल मुख
लेकर, सुर्खरू होकर, मसि=कालिमा,स्याही, परात=भागते हुए)

भा संग्राम न भा अस काऊ । लोहे दुहुँ दिसि भए अगाऊ ॥
सीस कंध कटि कटि भुइँ परे । रुहिर सलिल होइ सायर भरे ॥
अनँद बधाव करहिं मसखावा । अब भख जनम जनम कहँ पावा ॥
चौंसठ जोगिनि खप्पर पूरा । बिग जंबुक घर बाजहिं तूरा ॥
गिद्ध चील सब माँडो छावहिं । काग कलोल करहिं औ गावहिं ॥
आजु साह हठि अनी बियाही । पाई भुगुति जैसि चित चाही ॥
जेइँ जस माँसू भखा परावा । तस तेहि कर लेइ औरन्ह खावा ॥

काहू साथ न तन गा, सकति मुए सब पोखि ।
ओछ पूर तेहि जानब, जो थिर आवत जोखि ॥4॥

(काऊ=कभी, लोहे=हथियार, अगाऊ=आगे,सामने, तूरा=तुरही,
माँडो=मंडप, अनी सेना, सकति=शक्ति भर,भरसक, पोखि=
पोषण करके, ओछ=ओछा,नीच, पूर=पूरा, जोखि आवति=
विचारता आता है, जो थिर आवत जोखि=जो ऐसे शरीर
को स्थिर समझता आता है)

चाँद न टरै सूर सौं कोपा । दूसर छत्र सौंह कै रोपा ॥
सुना साह अस भएउ समूहा । पेले सब हस्तिन्ह के जूहा ॥
आज चाँद तोर करौं निपातू । रहै न जग महँ दूसर छातू ॥
सहस करा होइ किरिन पसारा । छेंका चाँद जहाँ लगि तारा ॥
दर-लोहा दरपन भा आवा । घट घट जानहु भानु देखावा ॥
अस क्रोधित कुठार लेइ धाए । अगिनि-पहर जरत जनु आए ॥
खडंग-बीजु सब तुरुक उठाए । ओडन चाँद काल कर पाए ॥

जगमग अनी देखि कै धाइ दिस्टि तेहि लागि ।
छुए होइ जो लोहा माँझ आव तेहि आगि ॥5॥

(चाँद=राजा, सूर बादशाह, समूहा=शत्रुसेना की भीड़,
छातू=छत्र, दर लोहा=सेना के चमकते हुए हथियार,
ओडन=ढाल,रोकने की वस्तु, ओडन चाँद….पाए=
चंद्रमा के बचाव के लिये समय-विशेष (रात्रि) मिला
जब सूर्य सामने नहीं आता, जगमग=झलझलाती
हुई, जगमग ….लागि=राजा ने गढ़ पर से बादशाह
की चमकती हुई सेना को देखा, छुए….आगि=यदि
लोहा सूर्य के सामने होने से तप जाता है तो जो
उसे छुए रहता है उसके शरीर में भी गरमी आ
जाती है, अर्थात् सूर्य के समान शाह की सेना का
प्रकाश देख शस्त्रधारी राजा को जोश चढ़ आया)

सूरुज देखि चाँद मन लाजा । बिगसा कँवल, कुमुद भा राजा ॥
भलेहि चाँद बड़ होइ दिसि पाई। दिन दिनअर सहुँ कौन बड़ाई?॥
अहे जो नखत चंद सँग तपे । सूर के दिस्टि गगन महँ छपे ॥
कै चिंता राजा मन बूझा । जो होइ सरग न धरती जूझा ॥
गढ़पति उतरि लड़ै नहिं धाए । हाथ परै गढ़ हाथ पराए ॥
गढ़पति इंद्र गगन-गढ़ गाजा । दिवस न निसर रैनि कर राजा ॥
चंद रैनि रह नखतन्ह माँझा । सुरुज के सौंह न होइ, चहै साँझा ॥

देखा चंद भोर भा सूरुज के बड़ भाग ।
चाँद फिरा भा गढ़पति, सूर गगन-गढ़ लाग ॥6॥

(कँवल=बादशाह, कुमुद=कुमुद के समान संकुचित,
दिन…बड़ाई=दिन में सूर्य के सामने उसकी क्या
बड़ाई है? तपे=प्रतापयुक्त थे, जो होइ सरग..
झूझा=जो स्वर्ग (ऊँचे गढ़) पर हो वह नीचे
उतरकर युद्ध नहीं करता, हाथ परै गढ़=लूट हो
जाय गढ़ में, भा गढ़पति=किले में हो गया,
सूर्य के सामने नहीं आया)

कटक असूझ अलाउदिं-साही । आवत कोइ न सँभारै ताही ॥
उदधि-समुद जस लहरैं देखी । नयन देख, मुख जाइ न लेखी ॥
केते तजा चितउर कै घाटी । केते बजावत मिलि गए माटी ॥
केतेन्ह नितहिं देइ नव साजा । कबहुँ न साज घटै तस राजा ॥
लाख जाहिं आवहिं दुइ लाखा । फरै झरै उपनै नव साखा ॥
जो आवै गढ़ लागै सोई । थिर होइ रहै न पावै कोई ॥
उमरा मीर रहे जहँ ताईं । सबहीं बाँटि अलंगैं पाईं ॥

लाग कटक चारिहु दिसि, गढ़हि परा अगिदाहु ।
सुरुज गहन भा चाहै, चाँदहि जस राहु ॥7॥

(उदधि समुद्र=पानी का समुद्र, केतेन्ह…साजा=न जाने
कितनों को नए नए सामान देता है, तस राजा=ऐसा
बड़ा राजा वह अलाउद्दीन है, अलंगै=बाजू,सेना का
एक एक पक्ष, अगिदाह=अग्निदाह, सुरुज गहन ….
राहु=सूर्य (बादशाह)- चंद्रमा (राजा) के लिए
ग्रहण-रूप हुआ चाहता है, वह चंद्रमा (राजा) के
लिये राहु-रूपहो गया है)

अथवा दिवस, सूर भा बसा । परी रैनि, ससि उवा अकसा ॥
चाँद छत्र देइ बैठा आई । चहुँ दिसि नखत दीन्ह छिटकाई ॥
नखत अकासहि चढ़े दिपाहीं । टुटि टुटि लूक परहिं, न बुझाहीं ॥
परहिं सिला जस परै बजागी । पाहन पाहन सौं उठ आगी ॥
गोला परहिं, कोल्हु ढरकाहीं । चूर करत चारिउ दिसि जाहीं
ओनई घटा बरस झरि लाई । ओला टपकहिं, परहिं बिछाई ॥
तुरुक न मुख फेरहिं गढ़ लागे । एक मरै, दूसर होइ आगे ॥

परहिं बान राजा के, सकै को सनमुख काढ़ि ।
ओनई सेन साह कै रही भोर लगि ठाढ़ि ॥8॥

(भा बासा=अपने डेरे में टिकान हुआ, नखत=राजा के सामंत
और सैनिक, लूक=अग्नि के समान बाण, उठ=उठती है, कोल्हु=
कोल्हू, ढरकाहीं=लुढ़काए जाते हैं, सकै को…..काढ़ि=उन बाणों
के सामने सेना को कौन आगे निकाल सकता है)

भएउ बिहानु, भानु पुनि चढ़ा । सहसहु करा दिवस बिधि गढ़ा ॥
भा धावा गढ़ कीन्ह गरेरा । कोपा कटक लाग चहुँ फेरा ॥
बान करोर एक मुख छूटहिं । बाजहिं जहाँ फोंक लगि फूटहिं ॥
नखत गगन जस देखहिं घने । तस गढ़-कोटन्ह बानन्ह हने ॥
बान बेधि साही कै राखा । गढ़ भा गरुड़ फुलावा पाँखा ॥
ओहि रँग केरि कठिन है बाता । तौ पै कहै होइ मुख राता ॥
पीठि न देहिं घाव के लागे । पैग पैग भुइँ चाँपहिं आगे ॥

चारि पहर दिन जूझ भा, गढ़ न टूट तस बाँक ।
गरुअ होत पै आवै दिन दिन नाकहि नाक ॥9॥

(गरेरा=घेरा, एक मुख=एक ओर, बाजहिं=पड़ते हैं, फोंक=तीर
का पिछला छोर जिसमें पर लगे रहते हैं, बाजहिं जहाँ …फूटहि=
जहाँ पड़ते है पिछले छोर तक फट जाते हैं, ऐसे जोर से वे
चलाए जाते हैं, रँग=रण-रंग, नाक=नाका, मुख्य-स्थान)

छेंका कोट जोर अस कीन्हा । घुसि कै सरग सुरँग तिन्ह दीन्हा ॥
गरगज बाँधि कमानैं धरीं । बज्र-आगि मुख दारू भरीं ॥
हबसी रूमी और फिरंगी । बड़ बड़ गुनी और तिन्ह संगी ॥
जिन्हके गोट कोट पर जाहीं । जेहि ताकहिं चूकहिं तेहि नाहीं ॥
अस्ट धातु के गोला छूटहिं । गिरहिं पहार चून होइ फूटहिं ॥
एक बार सब छूटहिं गोला । गरजै गगन, धरति सब डोला ॥
फूटहिं कोट फूट जनु सीसा । ओदरहिं बुरुज जाहिं सब पीसा ॥

लंका-रावट जस भई, दाह परी गढ़ सोइ ।
रावन लिखा जरै कहँ, कहहु अजर किमि होइ ॥10॥

(सुरँग=सुरंग, जमीन के नीचे खोदकर बनाया हुआ मार्ग,
गरगज=परकोटे का वह बुर्ज जिसपर तोप चढ़ाई जाती है,
कमानैं=तोपें, दारू=बारूद, फिरंगी=पुर्त-गाली भारत में सबसे
पहले आए पुर्तगालियों के लिये प्रयुक्त हुआ) गोट=गोले,
ओदरहिं=ढह जाते हैं, रावट=महल, अजर=जो न जले)

राजगीर लागै गढ़ थवई । फूटै जहाँ सँवारहिं सबई ॥
बाँके पर सुठि बाँक करेहीं । रातिहि कोट चित्र कै लेहीं ॥
गाजहिं गगन चढ़ा जस मेघा । बरिसहिं बज्र, सीस को ठेला? ॥
सौ सौ मन के बरसहिं गोला । बरसहिं तुपक तीर जस ओला ॥
जानहुँ परहिं सरग हुत गाजा । फाटे धरति आइ जहँ राजा ॥
गरगज चूर चूर होइ परहीं । हस्ति घोर मानुष संघरहीं ॥
सबै कहा अब परलै आई । धरती सरग जूझ जनु लाई ॥

आठौ बज्र जुरे सब एक डुंगवै लागि ।
जगत जरै चारिउ दिसि, कैसैहि बुझै न आगि ॥11॥

(थवई=मकान बनानेवाले, चित्र=ठीक,दुरुस्त, तुपक=बंदूक,
बाजा=पड़ते हैं, धरती सरग=आकाश और पृथ्वी के बीच,
डुंगवा=टीला)

तबहूँ राजा हिये न हारा । राज-पौरि पर रचा अखारा ॥
सोह साह कै बैठक जहाँ । समुहें नाच करावै तहाँ ॥
जंत्र पखाउज औ जत बाजा । सुर मादर रबाब भल साजा ॥
बीना बेनु कमाइच गहे । बाजे अमृत तहँ गहगहे ॥
चंग उपंग नाद सुर तूरा । महुअर बंसि बाज भरपूरा ॥
हुडक बाज, डफ बाज गँभीरा । औ बाजहिं बहु झाँझ मजीरा ॥
तंत बितंत सुभर घनतारा । बाजहिं सबद होइ झनकारा ॥

जग-सिंगार मनमोहन पातुर नाचहिं पाँच ।
बादसाह गढ़ छेंका, राजा भूला नाच ॥12॥

(समुहें=सामने, मादर=मर्दल,एक प्रकार का ढोल, रबाब=
एक बाजा, कमाइच=सारंगी बजाने की कमान, उपंग=एक
बाजा, तूरा=तूर, तुरही, महुअर=सूखी तुमड़ी का बना बाजा
जिसे प्रायः सँपेरे बजाते हैं, हुडुक=डमरू की तरह का बाजा
जिसे प्रायः कहार बजाते हैं, तंत=तंत्री, घनतार=बड़ा झाँझ)

बीजानगर केर सब गुनी । करहिं अलाप जैस नहिं सुनी ॥
छवौ राग गाए सँग तारा । सगरी कटक सुनै झनकारा ॥
प्रथम राग भैरव तिन्ह कीन्हा । दूसर मालकोस पुनि लीन्हा ॥
पुनि हिंडोल राग भल गाए । मेघ मलार मेघ बरिसाए ॥
पाँचवँ सिरी राग भल किया । छठवाँ दीपक बरि उठ दिया ॥
ऊपर भए सो पातुर नाचहिं । तर भए तुरुक कमानैं खाँचहिं ॥
गढ़ माथे होइ उमरा झुमरा । तर भए देख मीर औ उमरा ॥

सुनि सुनि सीस धुनहिं सब, कर मलि मलि पछिताहिं ।
कब हम माथ चढ़हिं ओहि नैनन्ह के दुख जाहिं ॥13 ॥

(ऊपर भए; तर भए=ऊपर से; नीचे से, गढ़ माथे=किले
के सिरे पर, उमरा झुमरा=झूमर,नाच)

छवौ राग गावहिं पातुरनी । औ पुनि छत्तीसौ रागिनी ॥
औ कल्यान कान्हरा होई । राग बिहाग केदारा सोई ॥
परभाती होइ उठै बेगाला । आसावरी राग गुनमाला ॥
धनासिरी औ सूहा कीन्हा । भएउ बिलावल, मारू लीन्हा ॥
रामकली, नट, गौरी गाई । धुनि खममाच सो राग सुनाई ॥
साम गूजरी पुनि भल भाई । सारँग औ बिभास मुँह आई ॥
पुरबी, सिंधी, देस, बरारी । टोडी गोंड सौं भई निरारी ॥

सबै राग औ रागिनी सुरै अलापहि ऊँच ।
तहाँ तीर कहँ पहुँचै दिस्टि जहाँ न पहूँच?॥14॥

(पहूँच=पहुँचती है)

जहवाँ सौंह साह कै दीठी । पातुरि फिरत दीन्हि तहँ पीठी ॥
देखत साह सिंघासन गूँजा । कब लगि मिरिग चाँद तोहि भूजा ॥
छाँडहिं बान जाहिं उपराही । का तैं गरब करसि इतराही? ॥
बोलत बान लाख भए ऊँचे । कोइ कोट, कोइ पौरि पहूँचे ॥
जहाँगीर कनउज कर राजा । ओहि क बान पातुरि के लागा ॥
बाजा बान, जाँघ तस नाचा । जिउ गा सरग, परा भुइँ साँचा ॥
उडसा नाच, नचनिया मारा । रहसे तुरुक बजाइ कै तारा ॥

जो गढ़ साजै लाख दस, कोटि उठावै कोटि ।
बादशाह जब चाहै छपै न कौनिउ ओट ॥15॥

(फिरत=फिरते हुए, सिंघासन=सिंहासन पर=गूँजा=गरजा,
मिरिग=मृग अर्थात् मृगनयनी, भूजा=भोग करेगा, भए
ऊँचे=ऊपर की ओर चलाए गए, साँचा=शरीर, उडसा=
भंग हो गया, तारा=ताल, ताली)

राजै पौरि अकास चढ़ाई । परा बाँध चहुँ फेर लगाई ॥
सेतुबंध जस राघव बाँधा । परा फेर, भुइँ भार न काँधा ॥
हनुवँत होइ सब लाग गोहारू । चहुँ दिसि ढोइ ढोइ कीन्ह पहारू ॥
सेत फटिक अस लागै गढ़ा । बाँध उठाइ चहूँ गढ़ मढ़ा ॥
खँड खँड ऊपर होइ पटाऊ । चुत्र अनेक, अनेक कटाऊ ॥
सीढ़ी होति जाहिं बहु भाँती । जहाँ चढ़ै हस्तिन कै पाँती ॥
भा गरगज कस कहत न आवा । जनहुँ उठाइ गगन लेइ आवा ॥

राहु लाग जस चाँदहिं तस गढ़ लागा बाँध ।
सरब आगि अस बरि रहा, ठाँव जाइ को काँध ॥16॥

(अकास चढ़ाई=और ऊँचे पर बनवाई, चहुँ फेर लगाई=चारों
ओर लगाकर, मढ़ा=घेरा, पटाऊ=पटाव, गगन लेइ=आकाश तक,
को काँध=उस जगह जाने का भार कौन ऊपर ले सकता है?)

राजसभा सब मतै बईठी । दखि न जाइ, मूँदि गइ दीठी ॥
उठा बाँध, चहुँ दिसि गढ़ बाँधा । कीजै बेगि भार जस काँधा ॥
उपजै आगि आगि जस बोई । अब मत कोई आन नहिं होई ॥
भा तेवहार जौ चाँचरि जोरी । खेलि फाग अब लाइय होरी ॥
समदि फाग मेलिय सिर धूरी । कीन्ह जो साका चाहिय पूरी ॥
चंदन अगर मलयगिरि काढा । घर घर कीन्ह सरा रचि ठाढा ॥
जौहर कहँ साजा रनिवासू । जिन्ह सत हिये कहाँ तिन्ह आँसू?॥

पुरुषन्ह खड़ग सँभारे, चंदन खेवरे देह ।
मेहरिन्ह सेंदुर मेला, चहहिं भई जरि खेह ॥17॥

(मतै=सलाह करने के लिये, कीजै बेगि…काँधा=जैसा भारी
युद्ध आपने लिया है उसी के अनुसार कीजिए,यही सलाह
सबने दी, समदि=एक दूसरे से अंतिम बिदा लेकर, साका
कीन्ह=कीर्ति स्थापित की है, चाहिय पूरी=पूरी होनी चाहिए,
सरा=चिता, जौहर=गढ़ घिर जाने पर जब राजपूत गढ़ की
रक्षा नहीं देखते थे तब स्त्रियाँ शत्रु के हाथ में न पड़ने
पाएँ इसके लिये पहले ही से चिता तैयार रखते थे,(जब
गढ़ से निकलकर पुरुष लड़ाई में काम आ जाते थे तब
स्त्रियाँ चट चिता में कूद पड़ती थी, यही जौहर कहलाता
था) खेवरे=कौर लगाई, मेहरिन्ह=स्त्रियों, खेह=राख)

आठ बरिस गढ़ छेंका रहा । धनि सुलतान कि राजा महा ॥
आइ साह अँबराव जो लाए । फरे झरे पै गढ़ नहिं पाए ॥
जौ तोरौं तौ जौहर होई । पदमिनि हाथ चढ़ै नहिं सोई ॥
एहि बिधि ढील दीन्ह, तब ताईं । दिल्ली तै अरदासै आईं ॥
पछिउँ हरेव दीन्हि जो पीठी । सो अब चढ़ा सौंह कै दीठी ॥
जिन्ह भुइँ माथ गगन तेइ लागा । थाने उठे, आव सब भागा ॥
उहाँ साह चितउरगढ़ छावा । इहाँ देस अब होइ परावा ॥

जिन्ह जिन्ह पंथ न तृन परत, बाढ़े बेर बबूर ।
निसि अँधियारी जाइ तब बेगि उठै जौ सूर ॥18॥

(आइ साह अँवराव…पाए=बादशाह ने आकर जो आम के पेड़
लगाए वे बड़े हुए,फलकर झड़ भी गए पर गढ़ नहीं टूटा, जो
तोरौं=बादशाह कहता है कि यदि गढ़ को तोड़ता हूँ तो,
अरदासैं=अर्जदाश्त,प्रार्थनापत्र, हरेव=हेरात प्रदेश का पुराना
नाम, थान उठे=बादशाह की जो स्थान स्थान पर चौकियाँ
थी वह उठ गईं, जिन्ह….बबूर=जिन जिन रास्तों में घास
भी उगकर बाधक नहीं हो सकती थी उनमें बादशाह के
रहने से बेर और बबूल उग आए हैं)

लेखक

  • जायसी

    मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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