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राजा-गजपति-संवाद-खंड-13 पद्मावत/जायसी

मासेक लाग चलत तेहि बाटा । उतरे जाइ समुद के घाटा ॥
रतनसेन भा जोगी-जती । सुनि भेंटै आवा गजपती ॥
जोगी आपु, कटक सब चेला । कौन दीप कहँ चाहहिं खेला ॥
” आए भलेहि, मया अब कीजै । पहनाई कहँ आयसु दीजै”
“सुनहु गजपती उतर हमारा । हम्ह तुम्ह एकै, भाव निरारा ॥
नेवतहु तेहि जेहि नहिं यह भाऊ । जो निहचै तेहि लाउ नसाऊ ॥
इहै बहुत जौ बोहित पावौं । तुम्ह तैं सिंघलदीप सिधावौं ॥

जहाँ मोहिं निजु जाना कटक होउँ लेइ पार ।
जौं रे जिऔं तौ बहुरौं, मरौं ओहि के बार” ॥1॥

(गजपति=कलिंग के राजाओं की पुरानी उपाधि, खेला चाहहिं=
मन की मौज में जाना चाहते हैं, लाउ=लाव,लगाव,प्रेम)

गजपती कहा “सीस पर माँगा । बोहित नाव न होइहि खाँगा ॥
ए सब देउँ आनि नव-गढ़े । फूल सोइ जो महेसुर चढ़े ॥
पै गोसाइँ सन एक बिनाती । मारग कठिन, जाब केहि भाँती ॥
सात समुद्र असूझ अपारा । मारग मगर मच्छ घरियारा ॥
उठै लहरि नहिं जाइ सँभारी । भागहि कोइ निबहै बैपारी ॥
तुम सुखिया अपने घर राजा । जोखउँ एत सहहु केहि काजा?॥
सिंघलदीप जाइ सो कोई । हाथ लिए आपन जिउ होई ॥

खार, खीर, दधि, जल उदधि, सुर, किलकिला अकूत ।
को चढ़ि नाँघै समुद ए, है काकर अस बूत?”॥2॥

(सीस पर माँगा=आपकी माँग या आज्ञा सिर पर है,
खाँगा=कमी, किलकिला=एक समुद्र का नाम, अकूत=
अपार, बूत=बूता,बल)

“गजपती यह मन सकती-सीऊ । पै जेहि पेम कहाँ तेहि जीऊ
जो पहिले सिर दै पगु धरई । मूए केर मीचु का करई?॥
सुख त्यागा, दुख साँभर लीन्हा । तब पयान सिंघल-मुँह कीन्हा ॥
भौंरा जान कवँल कै प्रीती । जेहि पहँ बिथा पेम कै बीती ॥
औ जेइ समुद पेम कर देखा । तेइ एहि समुद बूँद करि लेखा ॥
सात समुद सत कीन्ह सँभारू । जौं धरती, का गरुअ पहारू?॥
जौ पै जीउ बाँध सत बेरा । बरु जिउ जाइ फिरै नहिं फेरा ॥

रंगनाथ हौं जा कर, हाथ ओहि के नाथ ।
गहे नाथ सो खैंचै, फेरे फिरै न माथ ॥3॥

(साँभर=संबल,राह का कलेवा, बेरा=नाव का बेड़ा, रंगनाथ
हौं=रंग या प्रेम में जोगी हूँ जिसका, नाथ=नकेल,रस्सी,
माथ=सिर या रुख तथा नाव का अग्रभाग)

पेम-समुद्र जो अति अवगाहा । जहाँ न वार न पार न थाहा ॥
जो एहि खीर-समुद महँ परे । जीउ गँवाइ हंस होइ तरे ॥
हौं पदमावति कर भिखमंगा । दीठि न आव समुद औ गंगा ॥
जेहि कारन गिउ काथरि कंथा । जहाँ सो मिलै जावँ तेहि पंथा ॥
अब एहि समुद परेउँ होइ मरा । मुए केर पानी का करा?॥
मर होइ बहा कतहुँ लेइ जाऊ । ओहि के पंथ कोउ धरि खाऊ ॥
अस मैं जानि समुद महँ परऊँ । जौ कोइ खाइ बेगि निसतरऊँ ॥

सरग सीस, धर धती, हिया सो पेम-समुद ।
नैन कौडिया होइ रहे, लेइ लेइ उठहिं सो बुंद ॥4॥

(हंस=शुद्ध आत्म-स्वरूप,उज्ज्वल हंस, मर=मरा,मृतक,
कौडिया=कौडिल्ला नाम का पक्षी जो पानी में से मछली
पकड़कर फिर ऊपर उड़ने लगता है)

कठिन वियोग जाग दुख-दाहू । जरतहि मरतहि ओर निबाहू ॥
डर लज्जा तहँ दुवौ गवाँनी । देखै किछु न आगि नहिं पानी ॥
आगि देखि वह आगे धावा । पानि देखि तेहि सौंह धँसावा ॥
अस बाउर न बुझाए बूझा । जेहि पथ जाइ नीक सो सुझा ॥
मगर-मच्छ-डर हिये न लेखा । आपुहि चहै पार भा देखा ॥
औ न खाहि ओहि सिंघ सदूरा । काठहु चाहि अधिक सो झूरा ॥
काया माया संग न आथी । जेहिह जिउ सौंपा सोई साथी ॥

जो किछु दरब अहा सँग दान दीन्ह संसार ।
ना जानी केहि सत सेंती दैव उतारै पार ॥5॥

(सदूरा=शार्दूल,एक प्रकार का सिंह, आथा=अस्ति;है, सेंती=से)

धनि जीवन औ ताकर हीया । ऊँच जगत महँ जाकर दीया ॥
दिया सो जप तप सब उपराहीं । दिया बराबर जग किछु नाहीं ॥
एक दिया ते दशगुन लहा । दिया देखि सब जग मुख चहा ॥
दिया करै आगे उजियारा । जहाँ न दिया तहाँ अँधियारा ॥
दिया मँदिर निसि करै अँजोरा । दिया नाहिं घर मूसहिं चोरा ॥
हातिम करन दिया जो सिखा । दिया रहा धर्मन्ह महँ लिखा ॥
दिया सो काज दुवौ जग आवा । इहाँ जो दिया उहाँ सब पावा ॥

“निरमल पंथ कीन्ह तेइ जेइ रे दिया किछु हाथ ।
किछु न कोइ लेइ जाइहि दिया जाइ पै साथ” ॥6॥

(यह मन…सीऊ=यह मन शक्ति की सीमा है, दीया=दिया,
हुआ,दान,दीपक)

लेखक

  • जायसी

    मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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