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राघव-चेतन-देस-निकाला-खंड-38 पद्मावत/जायसी

राघव चेतन चेतन महा । आऊ सरि राजा पहँ रहा ॥
चित चेता जाने बहु भेऊ । कबि बियास पंडित सहदेऊ ॥
बरनी आइ राज कै कथा । पिंगल महँ सब सिंघल मथा ॥
जो कबि सुनै सीस सो धुना । सरवन नाद बेद सो सुना ॥
दिस्टि सो धरम-पंथ जेहि सूझा । ज्ञान सो जो परमारथ बूझा ॥
जोगि, जो रहै समाधि समाना । भोगि सो, गुनी केर गुन जाना ॥
बीर जो रिस मारै, मन गहा । सोइ सिगार कंत जो चहा ॥

बेग-भेद जस बररुचि, चित चेता तस चेत ।
राजा भोज चतुरदस,भा चेतन सौं हेत ॥1॥

(आऊ सरि=आयु पर्यंत,जन्म भर, चेता=ज्ञान प्राप्त,
भेऊ=भेद,मर्म, पिंगल=छंद या कविता में, सिंघल
मथा=सिंघलदीप की सारी कथा मथकर वर्णन की,
मन गहा=मन को वश में किया, राजा भोज
चतुरदस=चौदहों विद्याओं में राजा भोज के समान)

होइ अचेत घरी जौ आई । चेतन कै सब चेत भुलाई ॥
भा दिन एक अमावस सोई । राजै कहा `दुइज कब होई?’॥
राघव के मुख निकसा `आजू’ । पंडितन्ह कहा`काल्हि, महराजू’ ॥
राजै दुवौ दिसा फिरि देखा । इन महँ को बाउर, को सरेखा ॥
भुजा टेकि पंडित तब बोला । `छाँडहिं देस बचन जौ डोला’ ॥
राघव करै जाखिनी-पूजा । चहै सो भाव देखावै दूजा ॥
तेहि ऊपर राघव बर खाँचा । `दुइज आजु तौ पँडित साँचा’ ॥

राघव पूजि जाखिनी, दुइज देखाएसि साँझ ।
बेद-पंथ जे नहिं चलहिं ते भूलहिं बन माँझ ॥2॥

(होइ अचेत,..जौ आई=जब संयोग आ जाता है तब
चेतन भी अचेत हो जाता है;बुद्धिमान भी बुद्धि खो
बैठता है, भुजा टेकि=हाथ मारकर,जोर देकर,
जाखिनी=यक्षिणी, बर खाँचा=रेखा खीचकर कहा,
जोर देकर कहा)

पँडितन्ह कहा परा नहिं धोखा । कौन अगस्त समुद जेइ सोखा ॥
सो दिन गएउ साँझ भइ दूजी । देखी दुइज घरी वह पूजी ॥
पँडितन्ह राजहि दीन्ह असीसा । अब कस यह कंचन और सीसा ॥
जौ यह दुइज काल्हि कै होती । आजु तेज देखत ससि-जोती ॥
राघव दिस्टिबंध कल्हि खेला । सभा माँझ चेटक अस मेला ॥
एहि कर गुरु चमारिन लोना । सिखा काँवरू पाढ़न टोना ॥
दुइज अमावस कहँ जो देखावै । एक दिन राहु चाँद कहँ लावै ॥

राज-बार अस गुनी न चाहिय जेहि टोना कै खोज ।
एहि चेटक औ विद्या छला जो राजा भोज ॥3॥

(कौन अगस्त…सोखा=अर्थात् इतनी अधिक प्रत्यक्ष
बात को कौन पी जा सकता है? अब कस सीसा=
अब यह कैसा कंचन कंचन और सीसा सीसा हो
गया, काल्हि कै=कल को, दिस्टिबंध=इंद्रजाल,
जादू, चेटक=माया, चमारिनि लोना=कामरूप की
प्रसिद्ध जादूगरनी लोना चमारी, एक दिन राहु
चाँद कहँ लावै=जब चाहे चंद्रग्रहण कर दे;
पद्मावती के कारण बादशाह की चढ़ाई का
संकेत भी मिलता है)

राघव -बैन जो कंचन रेखा । कसे बानि पीतर अस देखा ॥
अज्ञा भई, रिसअन नरेसू । मारहु नाहिं, निसारहु देसू ॥
झूठ बोलि थिर रहै न राँचा । पंडित सोइ बेद-मत-साँचा ॥
वेद-वचन मुख साँच जो कहा । सो जुग-जुग अहथिर होइ रहा ॥
खोट रतन सोई फटकारै । केहि घर रतन जो दारिद हरै?॥
चहै लच्छि बाउर कबि सोई । जहँ सुरसती, लच्छि कित होई?॥
कविता-सँग दारिद मतिभंगी । काँटे-कूँट पुहुप कै संगी ॥

कवि तौ चेला, विधि गुरू; सीप सेवाती-बूँद ।
तेहि मानुष कै आस का जौ मरजिया समुंद?॥4॥

(फटकरै=फटक दे, मतिभंगी=बुद्धि भ्रष्ट करनेवाला, तेहि
मानुष कै आस का=उसको मनुष्य की क्या आशा करनी
चाहिए?)

एहि रे बात पदमावति सुनी । देस निसारा राघव गुनी ॥
ज्ञान-दिस्टि धनि अगम बिचारा । भल न कीन्ह अस गुनी निसारा ॥
जेइ जाखिनी पूजि ससि काढ़ा । सूर के ठाँव करै पुनि ठाढ़ा ॥
कवि कै जीभ खड़ग हरद्वानी । एक दिसि आगि, दुसर दिसि पानी ॥
जिनि अजुगुति काढ़ै मुख भोरे । जस बहुते, अपजस होइ थोरे ॥
रानी राघव बेगि हँकारा । सूर-गहन भा लेहु उतारा ॥
बाम्हन जहाँ दच्छिना पावा । सरग जाइ जौ होई बोलावा ।

आवा राघव चेतन, धौराहर के पास ।
ऐस न जाना ते हियै, बिजुरी बसै अकास ॥5॥

(अगम=आगम,परिणाम, जाखिनी=यक्षिणी, सूर के
ठाँव ..ठाढ़ा=सूर्य की जगह दूसरा सूर्य खड़ा कर दे,
(राजा पर बादशाह को चढ़ा लाने का इशारा)हरद्वानी=
हरद्वान की तलवार प्रसिद्ध थी, अजुगुति=अनहोनी
बात,अयुक्त बात, भोरे=भूलकर, जस बहुते….थोरे=यश
बहुत करने से मिलता है, अपयश थोड़े ही में मिलता
है, उतारा=निछावर किया हुआ दान)

पदमावति जो झरोखे आई । निहकलंक ससि दीन्ह दिखाई ॥
ततखन राभव दीन्ह असीसा । भएउ चकोर चंदमुख दीसा ॥
पहिरे ससि नखतन्ह कै मारा । धरती सरग भएउ उजियारा ॥
औ पहिरै कर कंकन-जोरी । नग लागे जेहि महँ नौ कोरी ॥
कँकन एक कर काढ़ि पवारा । काढ़त हार टूट औ मारा ॥
जानहुँ चाँद टूट लेइ तारा । छुटी अकास काल कै धारा ॥
जानहु टूटि बीजु भुइँ परी । उठा चौधि राघव चित हरी ॥

परा आइ भुइँ कंकन, जगत भएउ उजियार ।
राघव बिजुरी मारा, बिसँभर किछ न सँभार ॥6॥

(कोरी=बीस की संख्या, पवारा=फेंका, चौंधि उठा=
आँखों में चकाचौंध हो गई)

पदमावति हँसि दीन्ह झरोखा । जौ यह गुनी मरै, मोहिं दोखा ॥
सबै सहेली दैखै धाईं । `चेतन चेतु’ जगावहिं आई ॥
चेतन परा, न आवै चैतू । सबै कहा `एहि लाग परेतु’ ॥
कोई कहै, आहि सनिपातू । कोई कहै, कि मिरगी बातू ॥
कोइ कह, लाग पवन झर झोला । कैसेहु समुझि न चेतन बोला ॥
पुनि उठाइ बैठाएन्हि छाहाँ पूछहिं, कौन पीर हिय माहाँ?॥
दहुँ काहू के दरसन हरा । की ठग धूत भूत तोहि छरा ॥

की तोहि दीन्ह काहु किछु, की रे डसा तोहि साँप?।
कहु सचेत होइ चेतन, देह तोरि कस काँप ॥7॥

(सनिपातू=सन्निपात,त्रिदोष)

भएउ चेत चेतन चित चेता । नैन झरोखे, जीउ सँकेता ॥
पुनि जो बोला मति बुधि खोवा । नैन झरोखा लाए रोवा ॥
बाउर बहिर सीस पै धूना । आपनि कहै, पराइ न सुना ॥
जानहु लाई काहु ठगौरी । खन पुकार, खन बातैं बौरी ॥
हौं रे ठगा एहि चितउर माहाँ । कासौं कहौं, जाउँ केहि पाहाँ॥
यह राजा सठ बड़ हत्यारा । जेइ राखा अस ठग बटपारा ॥
ना कोइ बरज, न लाग गोहारी । अस एहि नगर होइ बटपारी ॥

दिस्टि दीन्ह ठगलाडू, अलक-फाँस परे गीउ ।
जहाँ भिखारि न बाँचै, तहाँ बाँच को जीऊ?॥8॥

(सँकेता=संकट में, ठगोरी लाई=ठग लिया; सुध-बुध नष्ट
करके ठक कर लिया, बौरी=बावलों की सी, बरज=मना
करता है, गोहारि लगना=पुकार सुनकर सहायता के
लिये आना)

कित धोराहर आइ झरोखे?। लेइ गइ जीउ दच्छिना-धोखे ॥
सरग ऊइ ससि करै अँजोरी । तेहि ते अधिक देहुँ केहि जोरी?॥
तहाँ ससिहि जौ होति वह जोती । दिन होइ राति, रैनि कस होती?॥
तेइ हंकारि मोहिं कँकन दीन्हा । दिस्टि जो परी जीउ हरि लीन्हा ॥
नैन-भिखारि ढीठ सतछँडा । लागै तहाँ बान होइ गडा ॥
नैनहिं नैन जो बेधि समाने । सीस धुनै निसरहिं नहिं ताने ॥
नवहिं न आए निलज भिखारी । तबहिं न लागि रही मुख कारी ॥

कित करमुहें नैन भए, जीउ हरा जेहि वाट ।
सरवर नीर-निछोह जिमि दरकि दरकि हिय फाट ॥9॥

(दच्छिना-धोखे=दक्षिणा का धोखा देकर, जोरी=पटतर,
उपमा, दिन होइ राति=तो रात में भी दिन होता और
रात न होती, हँकारि=बुलाकर, सतछँडा=सत्य
छोड़नेवाला, समाने=खींचने से, तबहिं न….कारी=
तभी न (उसी कारण से) आँखों के मुँह में कालिमा
काली-पुतली,लग रही है, सरवर नीर ….फाट=तालाब
के सूखने पर उसकी जमीन में चारों ओर दरारें सी
पड़ जाती है)

सखिन्ह कहा चेतसि बिसँमारा । हिये चेतु जेहि जासि न मारा ॥
जौ कोइ पावै आपन माँगा । ना कोइ मरै, न काहू खाँगा ॥
वह पदमावति आहि अनूपा । बरनि न जाइ काहु के रूपा ॥
जो देखा सो गुपुत चलि गएउ । परगट कहाँ, जीउ बिनु भएउ ॥
तुम्ह अस बहुत बिमोहित भए । धुनि धुनि सीस जीउ देइ गए ॥
बहुतन्ह दीन्ह नाइ कै गीवा । उतर देइ नहिं, मारै जीवा ॥
तुइँ पै मरहिं होइ जरि भूई । अबहुँ उघेलु कान कै रूई ॥

कोइ माँगे नहिं पावै, कोइ माँगे बिनु पाव ।
तू चेतन औरहि समुझावै, तोकहँ को समुझाव?॥10॥

(बरनि न जाइ….रूपा=किसी के साथ उसकी उपमा
नहीं दी जा सकती, भूई=सरकंडे का धूआ, उघेलु….रूई=
सुनकर चेत कर, कान की रूई खोल )

भएउ चेत, चित चेतन चेता । बहुरि न आइ सहौं दुख एता ॥
रोवत आइ परे हम जहाँ ।रोवत चले, कौन सुख तहाँ?॥
जहाँ रहे संसौ जिउ केरा । कौन रहनि? चलि चलै सबेरा ॥
अब यह भीख तहाँ होइ मागौं । देइ एत जेहि जनम न खाँगौं ॥
अस कंकन जौ पावौं दूजा । दारिद हरै, आस मन पूजा ॥
दिल्ली नगर आदि तुरकानू । जहाँ अलाउदीन सुलतानू ॥
सोन ढरै जेहि के टकसारा । बारह बानी चलै दिनारा ॥

कँवल बखानौं जाइ तहँ जहँ अलि अलाउदीन ।
सुनि कै चढ़ै भानु होइ, रतन जो होइ मलीन ॥11॥

(एता=इतना, संसौ=शंशय, कौन रहनि=वहाँ का रहना
क्या? देइ एत…खाँगौं=इतना दो कि फिर मुझे कमी न हो,
सोन ढरै=सोना ढलता है,सोने के सिक्के ढाले जाते हैं,
बारहबानी=चोखा, दिनारा=दीनार नाम का प्रचलित सोने
का सिक्का, अलि=भौंरा)

लेखक

  • जायसी

    मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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