मीत भै माँगा बेगि बिवानू । चला सूर, सँवरा अस्थानू ॥
चलत पंथ राखा जौ पाऊ । कहाँ रहै थिर चलत बटाऊ ॥
पंथी कहाँ कहाँ सुसताई । पंथ चलै तब पंथ सेराई ॥
छर कीजै बर जहाँ न आँटा । लीजै फूल टारिकै काँटा ॥
बहुत मया सुनि राजा फूला । चला साथ पहुँचावै भूला ॥
साह हेतु राजा सौं बाँधा । बातन्ह लाइ लीन्ह, गहि काँधा ॥
घिउ मधु सानि दीन्ह रस सोई । जो मुँह मीठ, पेट बिष होई ॥
अमिय-बचन औ माया को न मुएउ रस-भीज?।
सत्रु मरै जौ अमृत, कित ता कहँ बिष दीज? ॥1॥
(मीत भै=मित्र से, सेराई=समाप्त होता है, छर=छल, बर=बल,
न आँटा=नहीं पूरा पड़ता है, हेतु=प्रेम, घिउ मधु, कहते हैं, घी
और शहद बराबर मिलाने से विष हो जाता है, मुँह=मुँह में,
पेट=पेट में)
चाँद घरहि जौ सूरुज आवा । होइ सो अलोप अमावस पावा ॥
पूछहिं नखत मलीन सो मोती । सोरह कला न एकौ जोती ॥
चाँद क गहन अगाह जनावा । राज भूल गहि साह चलावा ॥
पहिलौं पँवरि नाँघिजौ आवा । ठाढ़ होइ राजहि पहिरावा ॥
सौ तुषार, तेइस गज पावा । दुंदुभि औ चौघड़ा दियावा ॥
दूजी पँवरि दीन्ह असवारा । तीजि पँवरि नग दीन्ह अपारा ॥
चौथि पँवरि देइ दरब करोरी । पँचईं दुइ हीरा कै जोरी ॥
छठइँ पँवरि देइ माँडौ, सतईं दीन्ह चँदेरि ।
सात पँवरि नाँघत नृपहिं लेइगा बाँधि गरेरि ॥2॥
(चाँद=पद्मावती, सूरुज=बादशाह, नखत=अर्थात् पद्मावती की सखियाँ,
अगाह=आगे से,पहले से, राज भूलल=राजा भूला हुआ है, पहिरावा=
राजा को खिलात पहनाई, चौघड़ा=एक प्रकार का बाजा, माडौ=
माडौगढ़, चँदेरि=चँदेरी का राज्य, गरेरि=घेरकर, )
एहि जग बहुत नदी-जल जूड़ा । कोउ पार भा, कोऊ बूड़ा ॥
कोउ अंध भा आगु न देखा । कोउ भएउ डिठियार सरेखा ॥
राजा कहँ बिधाय भइ माया । तजि कबिलास धरा भुइँ पाया ॥
जेहि कारन गढ़ कीन्ह अगोठी । कित छाँडै जौ आवै मूठी?॥
सत्रुहि कोउ पाव जौ बाँधी । छोड़ि आपु कहँ करै बियाधी ॥
चारा मेलि धरा जस माछू । जल हुँत निकसि मुवै कित काछू?॥
सत्रू नाग पेटारी मूँदा । बाँधा मिरिग पैग नहिं खूँदा ॥
राजहि धरा, आनि कै तन पहिरावा लोह ।
ऐस लोह सो पहिरै चीत सामि कै दोह ॥3॥
(एहि जग…(यह संसार समुद्र है) इसमें बहुत सी नदियों का
जल इकट्ठा हुआ है,इसमें बहुत तरह के लोग हैं, आगु=आगम,
डिठियार=दृष्टिवाला, सरेखा=चतुर, तजि कबिलास….पाया=
किले से नीचे उतरा; सुख के स्थान से दुःख के स्थान में गिरा,
अगोठी=अगोठा,छेका, घेरा, जल हुँत…काछू=वही कछुवा है जो
जल से नहीं निकलता और नहीं मरता, सत्रू….मँदा=शत्रु रूपी
नाग को पेटारी में बंद कर लिया, पैग नहीं खूँदा=एक कदम
भी नहीं कूदता, चीत सामि कै दोह=जो स्वामी का द्रोह मन
में बिचारता है)
पायँन्ह गाढ़ी बेड़ी परी । साँकर गीउ, हाथ हथकरी ॥
औ धरि बाँधि मँजूषा मेला । ऐस सत्रु जिनि होइ दुहेला!॥
सुनि चितउर महँ परा बखाना । देस देस चारिउ दिसि जाना ॥
आजु नरायन फिरि जग खूँदा । आजु सो सिंघ मँजूषा मूँदा ॥
आजु खसे रावन दस माथा । आजु कान्ह कालीफन नाथा ॥
आजु परान कंस कर ढीला । आजु मीन संखासुर लीला ॥
आजु परे पंडव बदि माहाँ । आजु दुसासन उतरीं बाहाँ ॥
आजु धरा बलि राजा, मेला बाँधि पतार ।
आजु सूर दिन अथवा, भा चितउर अँधियार ॥4॥
(ऐसे शत्र दुहेला=शत्रु भी ऐसे दुख में न पड़े, बखाना=चर्चा,
जग खूँदा=संसार में आकर कूदे, मूँदा=बंद किया, मीन=मत्स्य
अवतार, पंडव=पांडव)
देव सुलैमा के बँदि परा । जह लगि देव सबै सत-हरा ॥
साहि लीन्ह गहि कीन्ह पयाना । जो जहँ सत्रु सो तहाँ बिलाना ॥
खुरासान औ डरा हरेऊ । काँपा बिदर, धरा अस देऊ!॥
बाँधौं, देवगिरि, धौलागिरी । काँपी सिस्टि, दोहाई फिरी ॥
उबा सूर, भइ सामुँह करा । पाला फूट, पानि होइ ढरा ॥
दुंदुहि डाड दीन्ह, जहँ ताईं । आइ दंडवत कीन्ह सबाईं ॥
दुंद डाँड सब सरगहि गई । भूमि जो डोली अहथिर भई ॥
बादशाह दिल्ली महँ, आइ बैठ सुख-पाट ॥
जेइ जेइ सीस उठावा धरती धरा लिलाट ॥5॥
(देव=राजा,दैत्य, सुलेमाँ=यहूदियों के बादशाह सुलेमान ने
देवों और परियों को वश में किया था, बँदि परा=कैद में
पड़ा, सत-हरा=सत्य छोड़े हुए; धरा अस देउ=कि ऐसे बड़े
राजा को पकड़ लिया, दुंदुहि=दुंदुभी या नगाड़े पर, डाँड
दीन्ह=डंडा या चोट मारी)
हबसी बँदवाना जिउ-बधा । तेहि सौंपा राजा अगिदधा ॥
पानि पवन कहँ आस करेई । सो जिउ बधिक साँस भर देई ॥
माँगत पानि आगि लेइ धावा । मुँगरी एक आनि सिर लावा ॥
पानि पवन तुइ पिया सो पिया । अब को आनि देइ पानीया?॥
तब चितउर जिउ रहा न तोरे । बादसाह है सिर पर मोरे ॥
जबहि हँकारे है उठि चलना । सकती करै होइ कर मलना ॥
करै सो मीत गाँढ वँदि जहाँ । पान फूल पहुँचावै तहाँ ॥
जब अंजल मुँह, सोवा; समुद न सँवरा जागि ।
अब धरि काढ़ि मच्छ जिमि, पानी माँगति आगि ॥6॥
(बँदवाना=बन्दीगृह का रक्षक,दरोगा, जिउ-बधा=बधिक,जल्लाद,
अगिदधा=आग से जले हुए, साँस भर=साँस भर रहने के लिये,
पानीया=पानी, जिउ रहा=जी में यह बात नहीं रही, सकती=
बल, जब अंजल मुँह सोवा=जब तक अन्न-जल मुँह में पड़ता
रहा तब तक तो सोया किया)
पुनि चलि दुइ जन पूछै आए । ओउ सुठि दगध आइ देखराए ॥
तुइँ मरमुरी न कबहुँ देखी । हाड जो बिथुरै देखि न लेखी ॥
जाना नहिं कि होब अस महूँ । खौजे खौज न पाउब कहूँ ॥
अब हम्ह उतर देहु, रे देवा । कौने गरब न मानेसि सेवा ॥
तोहि अस बुत गाड़ि खनि मूँदे । बहुरि न निकसि बार होइ खूँदे ॥
जो जस हँसा तो तैसे रोवा । खेलत हँसत अभय भुइँ सोवा ॥
जस अपने मुह काढे धूवाँ । मेलेसि आनि नरक के कूआँ ॥
जरसि मरसि अब बाँधा तैस लाग तोहि दोख ।
अबहुँ माँगु पदमिनी, जौ चाहसि भा मोख ॥7॥
पूछहिं बहुत, न बोला राजा । लीन्हेसि जोउ मीचु कर साजा ॥
खनि गड़वा चरनन्ह देइ राखा । नित उठि दगध होहिं नौ लाखा ॥
ठाँव सो साँकर औ अँधियारा । दूसर करवट लेइ न पारा ॥
बीछी साँप आनि तहँ मेला । बाँका आइ छुआवहिं हेला ॥
धरहिं सँडासन्ह, छूटै नारी । राति-दिवस दुख पहुँचै भारी ॥
जो दुख कठिन न सहै पहारू । सो अँगवा मानुष-सिर भारू ॥
जो सिर परै आइ सो सहै । किछु न बसाइ, काह सौं कहै?॥
दुख जारै, दुख भूँजै, दुख खोवै सब लाज ।
गाजहु चाहि अधिक दुख दुखी जान जेहि बाज ॥8॥
(मरपुरी=यमपुरी, हाड जो….लेखी=बिखरी हुई हड्डियों को
देखकर भी तुझे उसका चेत न हुआ, महूँ=मैं भी, खोज=पता,
बार होइ खूँदे=अपने द्वार पर पैर न रखा, धूवाँ=गर्व या
क्रोध की बातत, तस=ऐसा, माँग=बुला भेज, गढावा=गड्ढा,
चरनन्ह देइ राखा=पैरों को गड्ढे में गाड़ दिया, बाँका=
धरकारों का टेढ़ा औजार जिससे वे बाँस छीलते हैं, हेला=
डोम, सँडास=संसी, जिससे पकड़कर गरम बटलोई उतारते
हैं, गाजहु चाहि=ब्रज से भी बड़कर, बाज=पड़ता है)