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बादशाह-दूती-खंड-50 पद्मावत/जायसी

रानी धरमसार पुनि साजा । बंदि मोख जेहि पावहिं राजा ॥
जावत परदेसी चलि आवहिं । अन्नदान औ पानी पावहिं ॥
जोगि जती आवहिं जत कंथी । पूछै पियहि, जान कोइ पंथी ॥
दान जो देत बाहँ भइ ऊँची । जाइ साह पहँ बात पहूँची ॥
पातुरि एक हुति जोगि-सवाँगी । साह अखारे हुँत ओहि माँगी ॥
जोगिनि-भेस बियोगिनि कीन्हा । सींगी-सबद मूल तँत लीन्हा ॥
पदमिनि पहँ पठई करि जोगिनि । बेगि आनु करि बिरह-बियोगिनि ॥

चतुर कला मन मोहन, परकाया-परवेस ।
आइ चढ़ी चितउरगढ़ होइ जोगिनि के भेस ॥1॥

(धरमसार=धर्मशाला,सदाबर्त,खैरातखाना, मोख पावहिं=
छूटें, जत=जितने, हुति=थी, जोगि-सवाँगी=जोगिन का
स्वाँग बनाने वाली, अखारे हुँत=रंगशाला से,नाचघर से,
माँगा=बुला भेजा, तँत=तत्त्व, कला मनमोहन=मन
मोहने की कला में)

माँगत राजबार चलि आई । भीतर चेरिन्ह बात जनाई ॥
जोगिनि एक बार है कोई । माँगै जैसि बियोगिनि सोई ॥
अबहीं नव जोबन तप लीन्हा । फारि पटोरहि कंथा कीन्हा ॥
बिरह-भभूत, जटा बैरागी । छाला काँध, जाप कँठलागी ॥
मुद्रा स्रवन, नाहिं थिर जीऊ । तन तिरसूल, अधारी पीऊ ॥
छात न छाहँ, धूप जनु मरई । पावँ न पँवरी, भूभुर जरई ॥
सिंगी सबद, धँधारी करा । जरै सो ठाँव पावँ जहँ धरा ॥

किंगरी गहे बियोग बजावै, बारहि बार सुनाव ।
नयन चक्र चारिउ दिसि (हेरहिं) दहुँ दरसन कब पाव ॥2॥

(राजबार=राजद्वार, बार=द्वार, तन तिरसूल….पीऊ=सारा
शरीर ही त्रिशूलमय हो गया है और अधारी के स्थान पर
प्रिय ही है अर्थात् उसी का सहारा है, पवँरी=चट्टी या खड़ाऊँ,
भूभुर=धूप से तपी धूल या बालू, धँधारी=गोरखधंधा)

सुनि पदमावति मँदिर बोलाई । पूछा “कौन देस तें आई?॥
तरुन बैस तोहि छाज न जोगू । केहि कारन अस कीन्ह बियोगू” ॥
कहेसि बिरह-दुख जान न कोई । बिरहनि जान बिरह जेहि होई ॥
कंत हमार गएउ परदेसा । तेहि कारन हम जोगिनि भेसा ॥
काकर जिउ, जोबन औ देहा । जौ पिउ गएउ, भएउ सब खेहा ॥
फारि पटोर कीन्ह मैं कंथा । जहँ पिउ मिलहिं लेउँ सो पंथा ॥
फिरौं, करौं चहुँ चक्र पुकारा । जटा परीं, का सीस सँभारा?॥

हिरदय भीतर पिउ बसै, मिलै न पूछौं काहि?॥
सून जगत सब लागै, ओहि बिनु किछु नहिं आहि ॥3॥

(छाज न=नहीं सोहता, खेहा=धूल, मिट्टी, चहुँ चक्र=पृथ्वी
के चारों खूँट में, आहि=है)

स्रवन छेद महँ मुद्रा मेला । सबद ओनाउँ कहाँ पिउ खेला ॥
तेहि बियोग सिंगी निति पूरौं । बार बार किंगरी लेइ झूरौं ॥
को मोहिं लेइ पिउ कंठ लगावै । परम अधारी बात जनावै ॥
पाँवरि टूटि चलत, पर छाला । मन न भरै, तन जोबन बाला ॥
गइउँ पयाग, मिला नहिं पीऊ । करवत लीन्ह, दीन्ह बलि जीऊँ ॥
जाइ बनारस जारिउँ कया । पारिउँ पिंड नहाइउँ गया ॥
जगन्नाथ जगरन कै आई । पुनि दुवारिका जाइ नहाई ॥

जाइ केदार दाग तन, तहँ न मिला तिन्ह आँक ।
ढूँढि अजोध्या आइउँ सरग दुवारी झाँक ॥4॥

(ओनाउँ=झुकती हूँ, सबद ओनाउँ…खेला=आहट लेने के
लिए कान लगाए रहती हूँ कि प्रिय कहाँ गया, झूरों=
सूखती हूँ, अधारी=सहारा देनेवाली, पर=पड़ता है, बाला=
नवीन,जागरण, दाग=दागा,तप्त मुद्रा ली, तिन्ह=उस
प्रिय का, आँक=चिन्ह,पता, सरगदुवारी=अयोध्या में
एक स्थान)

गउमुख हरिद्वार फिर कीन्हिउँ । नगरकोट कटि रसना दीन्हिउँ ॥
ढूँढिउँ बालनाथ कर टीला । मथुरा मथिउँ, नसो पिउ मीला ॥
सुरुजकुंड महँ जारिउँ देहा । बद्री मिला न जासौं नेहा ॥
रामकुंड, गोमति, गुरुद्वारू । दाहिनवरत कीन्ह कै बारू ॥
सेतुबंध, कैलास, सुमेरू । गइउँ अलकपुर जहाँ कुबेरू ॥
बरम्हावरत ब्रह्मावति परसी । बेनी-संगम सीझिउँ करसी ॥
नीमषार मिसरिख कुरुछेता । गोरखनाथ अस्थान समेता ॥

पटना पुरुब सो घर घर हाँडि फिरिउँ संसार ।
हेरत कहूँ न पिउ मिला, ना कोइ मिलवनहार ॥5॥

(गउमुख=गोमुख तीर्थ, गंगोत्तरी का वह स्थान जहाँ से
गंगा निकलती है, नागरकोट=जहाँ देवी का स्थान है, कटि
रसना दीन्हिउँ=जीभ काटकर चढ़ाई, बालनाथ कर टीला=
पंजाब में सिंध और झेलम के बीच पड़नेवाले नमक के
पहाड़ों की एक चोटी, मीला=मिला, सुरुजकुंड=अयोध्या,
हरिद्वार आदि कई तीर्थों में इस नाम के कुंड हैं, बद्री=
बदरिकाश्रम में, कै बारू=कई बार, अलकपुर=अलकापुरी,
ब्रह्मावति=कोई नदी, करसी=करीषाग्नि में; उपलों की
आग में, हाँडि फिरिउँ=छान डाला,ढूँढ डाला,टटोल डाला)

बन बन सब हेरेउँ नव खंडा । जल जल नदी अठारह गंडा ॥
चौसठ तीरथ के सब ठाऊँ । लेत फिरिउँ ओहि पिउ कर नाऊँ ॥
दिल्ली सब देखिउँ तुरकानू । औ सुलतान केर बंदिखानू ॥
रतनसेन देखिउँ बँदि माहाँ । जरै धूप, खन पाव न छाहाँ ॥
सब राजहि बाँधे औ दागे । जोगनि जान राज पग लागे ॥
का सो भोग जेहि अंत न केऊ । यह दुख लेइ सो गएउ सुखदेऊ ॥
दिल्ली नावँ न जानहु ढीली । सुठि बँदि गाढ़ि,निकस नहीं कीली ॥

देखि दगध दुख ताकर अबहुँ कया नहिं जीउ ।
सो धन कैसे दहुँ जियै जाकर बँदि अस पीउ? ॥6॥

(राज पगलागे=राजा ने प्रणाम किया, न केऊ=पास में
कोई न रह जाय, लेइ गएउ=लेने या भोगने गया,
सुखदेऊ=सुख देनेवाला तुम्हारा प्रिय, दिल्ली नावँ=
दिल्ली या ढिल्ली इस नाम से, सुठि=खूब, कीली=
कारागार के द्वार का अर्गल, अबहुँ कया नहिं जीउ=
अब भी मेरे होश ठिकाने नहीं)

पदमावति जौ सुना बँदि पीऊ । परा अगिनि महँ मानहुँ घीऊ ।
दौरि पायँ जोगिनि के परी । उठी आगि अस जोगिनि जरी ॥
पायँ देहि, दुइ नैनन्ह लाऊँ । लेइ चलु तहाँ कंत जेहि ठाऊँ ॥
जिन्ह नैनन्ह तुइ देखा पीऊ । मोहिं देखाउ, देहुँ बलि जीऊ ॥
सत औ धरम देहुँ सब तोहीं । पिउ कै बात कहै जौ मोहीं ॥
तुइ मोर गुरू, तोरि हौं चेली । भूली फिरत पंथ जेहि मेली ॥
दंड एक माया करु मोरे । जोगिनि होउँ, चलौं सँग तोरे ॥

सखिन्ह कहा, सुनु रानी करहु न परगट भेस ।
जोगी जोगवै गुपुत मन लेइ गुरु कर उपदेस ॥7॥

(माया=मया,दया)

भीख लेहु, जोगिनि! फिरि माँगू । कंत न पाइय किए सवाँगू ॥
यह बड़ जोग बियोग जो सहना । जेहुँ पीउ राखै तेहुँ रहना ॥
घर ही महँ रहु भई उदासा । अँजुरी खप्पर, सिंगी साँसा ॥
रहै प्रेम मन अरुझा गटा । बिरह धँधारि, अलक सिर जटा ॥
नैन चक्र हेरे पिउ-कंथा । कया जो कापर सोई कंथा ॥
छाला भूमि, गगन सिर छाता । रंग करत रह हिरदय राता ॥
मन -माला फेरै तँत ओही । पाँचौ भूत भसम तन होहीं ॥

कुंडल सोइ सुनु पिउ-कथा, पँवरि पाँव पर रेहु ।
दंडक गोरा बादलहि जाइ अधारी लेहु ॥8॥

(फिरि माँगू=जाओ,और जगह घूम कर माँगो, सवाँग=स्वाँग,
नकल, आडंबर, यह बड़….सहना=वियोग का जो सहना है यही
बड़ा भारी योग है, जेहुँ=जैसे,ज्यों, तेहुँ=त्यों,उस प्रकार, सिंगी
साँसा=लंबी साँस लेने को ही सिंगी फूँकना समझो, गटा=
गटरमाला, रहै प्रेम….गटा=जिसमें उलझा हुआ मन है उसी
प्रेम को गटरमाला समझो, छाला=मृगछाला, तँत=तत्त्व या
मंत्र, पाँचों भूत…होहीं=शरीर के पंचभूतों को ही रमी हुई
भभूत या भस्म समझो, पँवरि पाँच पर रेहु=पाँव पर जो
धूल लगे उसी को खड़ाऊँ समझ, अधारी=अड्डे के आकार
की लकड़ी जिसे सहारे के लिये साधु रखते हैं, अधारी
लेहु=सहारा लो)

लेखक

  • जायसी

    मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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