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पद्मावती-रूप-चर्चा-खंड-41 पद्मावत/जायसी

वह पदमिनि चितउर जो आनी । काया कुंदन द्वादसबानी ॥
कुंदन कनक ताहि नहिं बासा । वह सुगंध जस कँवल बिगासा ॥
कुंदन कनक कठोर सो अंगा । वह कोमल, रँग पुहुप सुरंगा ॥
ओहि छुइ पवन बिरिछ जेहि लागा । सोइ मलयागिरि भएउ सुभागा ॥
काह न मूठी-भरी ओहि देही?। असि मूरति केइ देउ उरेही?॥
सबै चितेर चित्र कै हारे । ओहिक रूप कोइ लिखै न पारे ॥
कया कपूर, हाड़ सव मोती । तिन्हतें अधिक दीन्ह बिधि जोती ॥

सुरुज-किरिन जसि निरमल, तेहितें अधिक सरीर ।
सौंह दिस्ट नहिं जाइ करि, नैनन्ह आवै नीर ॥1॥

(बासा=महक,सुगंध, ओहि छुइ ….सभागा=उसको छूकर वायु
जिन पेड़ों में लगी वे मलयागिरि चंदन हो गए, काह न
मूठि…देही=उस मुट्ठी भर देह में क्या नहीं है? चितेर=
चित्रकार)

ससि-मुख जबहिं कहै किछु बाता । उठत ओठ सूरुज जस राता ॥
दसन दसन सौं किरिन जो फूटहिं । सब जग जनहुँ फुलझरी छूटहिं ॥
जानहुँ ससि महँ बीजु देखावा । चौंधि परै किछु कहै न आवा ॥
कौंधत अह जस भादौं-रैनी । साम रैनि जनु चलै उडैनी ॥
जनु बसंत ऋतु कोकिल बोली । सुरस सुनाइ मारि सर डोली ॥
ओहि सिर सेस नाग जौ हरा । जाइ सरन बेनी होइ परा ॥
जनु अमृत होइ बचन बिगासा । कँवल जो बास बास धनि पासा ॥

सबै मनहि हरि जाइ मरि जो देखै तस चार ।
पहिले सो दुख बरनि कै, बरनौ ओहिक सिंगार ॥2॥

(सामरैनि=अँधेरी रात, उडैनी=जुगनू, सर=बाण, चार=ढंग,
ढब, दुख=उसके दर्शन से उत्पन्न विकलता)

कित हौं रहा काल कर काढ़ा । जाइ धौरहर तर भा ठाढ़ा ॥
कित वह आइ झरोखै झाँकी । नैन कुरँगिनि, चितवनि बाँकी ॥
बिहँसि ससि तरईं जनु परी । की सो रैनि छूटीं फुलझरी ॥
चमक बीजु जस भादौं रैनी । जगत दिस्टि भरि रही उडैनी ॥
काम-कटाछ दिस्टि विष बसा । नागिनि-अलक पलक महँ डसा ॥
भौंह धनुष, पल काजर बूडी । वह भइ धानुक, हौं भा ऊडी ॥
मारि चली, मारत हू हँसा । पाछे नाग रहा, हौं डंसा ॥

काल घालि पाछे रखा, गरुड़ न मंतर कोइ ।
मोरे पेट वह पैठा, कासौं पुकारौं रोइ? ॥3॥

(काल कर काढ़ा=काल का चुना हुआ, पल=पलक, बूडी=
डूबी हुई, धानुक=धनुष चलानेवाली, ऊडी=पनडुब्बी चिड़िया,
घालि….रखा=डाल रखा)

बेनी छोरि झार जौ केसा । रैनि होइ,जग दीपक लेसा ॥
सिर हुत बिसहर परे भुइँ बारा । सगरौं देस भएउ अँधियारा ॥
सकपकाहिं विष-भरे पसारे । लहरि-भरे लहकहिं अति कारे ॥
जानहुँ लोटहिं चढ़े भुअंगा । बेधे बास मलयगिरि-अंगा ॥
लुरहिं मुरहिं जनु मानहिं केली । नाग चढ़े मालति कै बेली ॥
लहरैं देइ जनहुँ कालिंदी । फिरि फिरि भँवर होइ चित-बंदी ॥
चँवर ढुरत आछै चहुँ पासा । भँवर न उडहिं जो लुबुधे बासा ॥

होइ अँधियार बीजु धन लाँपै जबहि चीर गहि झाँप ।
केस-नाग कित देख मैं, सँवरि सँवरि जिय काँप ॥4॥

(झार=झारती है, जग दीपक लेसा=रात समझकर लोग दीया
जलाने लगते हैं, सिर हुँत=सिर से, बिसहर=बिषधर,साँप,
सकपकाहिं=हिलते डोलते हैं, लहकहिं=लहराते हैं,झपटते हैं,
लुरहिं=लोटते हैं, फिरि फिरि भँवर=पानी के भँवर में चक्कर
खाकर, बन्दी=कैद,बँधुवा, ढुरत आछै=ढरता रहता है, झाँप=
ढाँकती है)

माँग जो मानिक सेंदुर-रेखा । जनु बसंत राता जग देखा ॥
कै पत्रावलि पाटी पारी । औ रुचि चित्र बिचित्र सँवारी ॥
भए उरेह पुहुप सब नामा । जनु बग बिखरि रहे घन सामा ॥
जमुना माँझ सुरसती मंगा । दुहुँ दिसि रही तरंगिनी गंगा ॥
सेंदुर-रेख सो ऊपर राती । बीरबहूटिन्ह कै जसि पाँती ॥
बलि देवता भए देखी सेंदूरू । पूजै माँग भोर उटि सूरू ॥
भोर साँझ रबि होइ जो राता । ओहि रेखा राता होइ गाता ॥

बेनी कारी पुहुप लेइ निकसी जमुना आइ ।
पूज इंद्र आनंद सौं सेंदुर सीस चढ़ाइ ॥5॥

(पत्रावलि=पत्रभंग-रचना, पाटी=माँग के दोनों ओर बैठाए हुए
बाल, उरेह=विचित्र सजावट, बग=बगल, पूजै=पूजन करता है)

दुइज लिलाट अधिक मनियारा । संकर देखि माथ तहँ धारा ॥
यह निति दुइज जगत सब दीसा । जगत जोहारै देइ असीसा ॥
ससि जो होइ नहिं सरवरि छाजै । होइ सो अमावस छपि मन लाजै ॥
तिलक सँवारि जो चुन्नी रची । दुइज माँझ जनहुँ कचपची ॥
ससि पर करवत सारा राहू । नखतन्ह भरा दीन्ह बड़ दाहू ॥
पारस-जोति लिलाटहि ओती । दिस्टि जो करै होइ तेहि जोती ॥
सिरी जो रतन माँग बैठारा । जानहु गगन टूट निसि तारा ॥

ससि औ सूर जो निरमल तेहि लिलाट के ओप ।
निसि दिन दौरि न पूजहिं, पुनि पुनि होहिं अलोप ॥6॥

(मनियारा=कांतिमान्=सोहावना, चुन्नी=चमकी या सितारे जो
माथे या कपोलों पर चिपकाए जाते हैं, पारस-जोति=ऐसी ज्योति
जिससे दूसरी वस्तु को ज्योति हो जाय, सिरी=श्री नाम का
आभूषण, ओप=चमक, पूजहिं=बराबरी को पहुँचते हैं)

भौहैं साम धनुक जनु चढ़ा । बेझ करै मानुष कहँ गढ़ा ॥
चंद क मूठि धनुक वह ताना । काजर मनच, बरुनि बिष-बाना ॥
जा सहुँ हेर जाइ सो मारा । गिरिवर टरहिं भौंह जो टारा ॥
सेतुबंध जेइ धनुष बिगाड़ा । उहौ धनुष भौंहन्ह सौं हारा ॥
हारा धनुष जो बेधा राहू । और धनुष कोइ गनै न काहू ॥
कित सो धनुष मैं भौंहन्ह देखा । लाग बान तिन्ह आउ न लेखा ॥
तिन्ह बानन्ह झाँझर भा हीया । जो अस मारा कैसे जीया?॥

सूत सूत तन बेधा, रोवँ रोवँ सब देह ।
नस नस महँ ते सालहिं, हाड़ हाड़ भए बेह ॥7॥

(बेझ करै=बेध करने के लिये, पनच=पतंचिका,धनुष की डोरी,
बिहाड़ा=नष्ट किया, धनुष जो बेधा राहू=मत्स्यबेध करने वाला
अर्जुन का धनुष, आउ न लेखा=आयु को समाप्त समझा, बेह=
बेध,छेद)

नैन चित्र एहि रूप चितेरा । कँवल-पत्र पर मधुकर फेरा ॥
समुद-तरंग उठहि जनु राते । डोलहि औ घूमहिं रस-माते ॥
सरद-चंद महँ खंजन-जोरी । फिरि फिरि लरै बहोरि बहोरी ॥
चपल बिलोल डोल उन्ह लागे । थिर न रहै चंचल बैरागे ॥
निरखि अघाहिं न हत्या हुँते । फिरि फिरि स्रवनन्ह लागहिं मते ॥
अंग सेत, मुख साम सो ओही । तिरछे चलहिं सूध नहिं होहीं ॥
सुर, नर, गंध्रब लाल कराहीं । उथले चलहिं सरग कहँ जाहीं ॥

अस वै नयन चक्र दुइ भँवर समुद उलथाहिं ।
जनु जिउ घालि हिंडोलहिं लेइ आवहिं, लेइ जाहिं ॥8॥

(नैन चित्र…चितेरा=नेत्रों का चित्र इस रूप से चित्रित हुआ है,
चितेरा=चित्रित किया गया, बहोरि बहोरी=फिर फिर, फिरि
फिरि=घूम घूम कर, मते सलाह=करने में, अँग सेत…ओही=
आँखों के सफेद डेले और काली पुतलियाँ, लाल=लालसा)

नासिक-खड़ग हरा धनि कीरू । जोग सिंगार जिता औ बीरू ॥
ससि-मुँह सौंहँ खड़ग देइ रामा । रावन सौं चाहै संग्रामा ॥
दुहुँ समुद्र महँ जनु बिच नीरू । सेतु बंध बाँधा रघुबीरू ॥
तिल के पुहुप अस नासिक तासू । औ सुगंध दीन्ही बिधि बासू ॥
हीर-फूल पहिरे उजियारा । जनहुँ सरद ससि सोहिल तारा ॥
सोहिल चाहि फूल वह ऊँचा । धावहिं नखत, न जाइ पहूँचा ॥
न जनौं कैस फूल वह गढ़ा । बिगसि फूल सब चाहहिं चढ़ा ॥

अस वह फूल सुबासित भएउ नासिका-बंध ।
जेत फूल ओहि हिरकहिं तिन्ह कहँ होइ सुगंध ॥9॥

(कीरू=तोता, सोहिल तारा=सुहेल तारा जो चंद्रमा के पास
रहता है, बिगसि फूल..चढ़ा=फूल जो खिलते हैं मानों उसी
पर निछावर होने के लिये)

अधर सुरंग, पान अस खीने । राते-रंग, अमिय-रस-भीने ॥
आछहिं भिजे तँबोल सौं राते । जनु गुलाल दीसहिं बिहँसाते ॥
मानिक अधर, दसन जनु हीरा । बैन रसाल, काँड मुख बीरा ॥
काढे अधर डाभ जिमि चीरा । रुहिर चुवै जौ खाँडै बीरा ॥
ढारै रसहि रसहि रस-गीली । रकत-भरी औ सुरँग रँगीली ॥
जनु परभात राति रवि-रेखा । बिगसे बदन कँवल जनु देखा ॥
अलक भुअंगिनि अधरहि राखा । गहै जो नागिनि सो रस चाखा ॥

अधर अधर रस प्रेम कर, अलक भुअंगिनि बीच ।
तब अमृत-रस पावै जब नागिनि गहि खींच ॥10॥

(काढ़े अधर…चीर=जैसे कुश का चीरा लगा हो ऐसे पतले
ओठ हैं, जो खाँडै बीरा=जब बीड़ा चबाती है, जनु परभात…
देखा=मानों विकसित कमलमुख पर सूर्य की लाल किरनें
पड़ी हों)

दसन साम पानन्ह-रँग-पाके । बिगसे कँवल माँह अलि ताके ॥
ऐसि चमक मुख भीतर होई । जनु दारिउँ औ साम मकोई ॥
चमकहिं चौक बिहँस जौ नारी । बीजु चमक जस निसि अँधियारी ॥
सेत साम अस चमकत दीठी । नीलम हीरक पाँति बईठी ॥
केइ सो गढ़े अस दसन अमोला । मारै बीजु बिहँसि जौ बोला ॥
रतन भीजि रस-रंग भए सामा । ओही छाज पदारथ नामा ॥
कित वै दसन देख रस-भीने । लेइ गइ जोति, नैन भए हीने ॥

दसन-जोति होइ नैन-मग हिरदय माँझ पईठ ।
परगट जग अँधियार जनु, गुपुत ओहि मैं दीठ ॥11॥

(ताके=दिखाई पड़े, मकोई=जंगली मकोय जो काली
होती है, कित वै दसन…भीने=कहाँ से मैंने उन रंग-भीने
दाँतों को देखा)

रसना सुनहु जो कह रस-बाता । कोकिल बैन सुनत मन राता ॥
अमृत-कोंप जीभ जनु लाई । पान फूल असि बात सोहाई ॥
चातक-बैन सुनत होइ साँती । सुनै सो परै प्रेम-मधु माती ॥
बिरवा सूख पाव जस नीरू । सुनत बैन तस पलुह सरीरू ॥
बोल सेवाति-बूँद जनु परहीं । स्रवन-सीप-मुख मोती भरहीं ॥
धनि वै बैन जो प्रान-अधारू । भूखे स्रवनहिं देहिं अहारू ॥
उन्ह बैनन्ह कै काहि न आसा । मोहहि मिरिग बीन-विस्वासा ॥

कंठ सारदा मोहै, जीभ सुरसती काह?
इंद्र, चंद्र, रवि देवता सबै जगत मुख चाह ॥12॥

(कोंप=कोंपल,नया कल्ला, साँती=शांति, माती=मात कर,
बिरवा=पेड़, सूख=सूखा हुआ, पलुह=पनपता है,हरा होता है,
बीन बिस्वासा=बीन समझकर)

स्रवन सुनहु जो कुंदन-सीपी । पहिरे कुंडल सिंघलदीपी ॥
चाँद सुरुज दुहुँ दिसि चमकाहीं । नखतन्ह भरे निरखि नहिं जाहीं ॥
खिन खिन करहिं बीजु अस काँपा । अँबर-मेघ महँ रहहिं न झाँपा ॥
सूक सनीचर दुहुँ दिसि मते । होहिं निनार न स्रवनन्ह-हुँते ॥
काँपत रहहिं बोल जो बैना । स्रवनन्ह जौ लागहि फिर नैना ॥
जस जस बात सखिन्ह सौं सुना । दुहुँ दिसि करहिं सीस वै धुना ॥
खूँट दुवौ अस दमकहिं खूँटी । जनहु परै कचपचिया टूटी ॥

वेद पुरान ग्रंथ जत स्रवन सुनत सिखि लीन्ह ।
नाद विनोद राग रस-बंधक स्रवन ओहि बिधि दीन्ह ॥13॥

(कुंदन सीपी=कुंदन की सीप (ताल के सीपों का आधा
संपुट), अंबर=वस्त्र, खूँट=कोना, ओर, खूँटी=खूँट नाम का
गहना, कचपचिया=कृत्तिका नक्षत्र)

कँवल कपोल ओहि अस छाजै । और न काहु देउ अस साजै ॥
पुहुक-पंक रस-अमिय सँवारे । सुरँग गेंद नारँग रतनारे ॥
पुनि कपोल वाएँ तिल परा । सो तिल बिरह-चिनगि कै करा ॥
जो तिल देख जाइ जरि सोई । बएँ दिस्टि काहु जिनि होई ॥
जानहुँ भँवर पदुम पर टूटा । जीउ दीन्ह औ दिए न छूटा ॥
देखत तिल नैनन्ह गा गाडी । और न सूझै सो तिल छाँडी ॥
तेहि पर अलक मनि-जरि ड़ोला । छुबै सो नागिनि सुरंग कपोला ॥

रच्छा करै मयूर वह, नाँघि न हिय पर लोट ।
गहिरे जग को छुइ सकै, दुई पहार के ओट ॥14॥

(पुहुप पंक=फूल का कीचड़ या पराग, कै करा=के रूप,
के समान, बाएँ दिस्टि…होई= किसी की बाईं ओर न
जाय क्योंकि
वहाँ तिल है, गा गाडी=गड़ गया, दुइ पहार=कुच)

गीउ मयूर केरि जस ठाढ़ी । कुंदै फेरि कुंदेरै काढ़ी ॥
धनि वह गीउ का बरनौं करा । बाँक तुरंग जनहुँ गहि परा ॥
घिरिन परेवा गीउ उठावा । चहै बोल तमचूर सुनावा ॥
गीउ सुराही कै अस भई । अमिय पियाला कारन नई ॥
पुनि तेहि ठाँव परी तिनि रेखा । तेइ सोइ ठाँव होइ जो देखा ॥
सुरुज-किरिनि हुँत गिउ निरमली । देखे बेगि जाति हिय चली ॥
कंचन तार सोह गिउ भरा । साजि कँवल तेहि ऊपर धरा ॥

नागिनि चढ़ी कँवल पर, चढ़ि कै बैठ कमंठ ।
कर पसार जो काल कहँ, सो लागै ओहि कंठ ॥15॥

(कुंदै=खराद पर, कुँदेरै=कुँदेरे ने, करा=कला,शोभा, घिरिन
परेवा=गिरह बाज कबूतर, तमचूर=मुर्गा, तेइ सोइ ठाँव…देखा=
जो उसे देखता है वह उसी जगह ठक रह जाता है, जाति
हिय चली=हृदय में बस जाती है, नागिनि=केश, कमंठ=
कछुए के समान पीठ या खोपड़ी)

कनक दंड भुज बनी कलाई । डाँडी-कँवल फेरि जनु लाई ॥
चंदन खाँभहि भुजा सँवारी । जानहुँ मेलि कँवल-पौनारी ॥
तेहि डाँडी सँग कवँल-हथोरी । एक कँवल कै दूनौ जोरी ॥
सहजहि जानहु मेँहदी रची । मुकुताहल लीन्हें जनु घुँघची ॥
कर-पल्लव जो हथोरिन्ह साथा । वै सब रकत भरे तेहि हाथा ॥
देखत हिया काढ़ि जनु लेई । हिया काढ़ि कै जाई न देई ॥
कनक-अँगूठी औ नग जरी । वह हत्यारिन नखतन्ह भरी ॥

जैसी भुजा कलाई, तेहि बिधि जाइ न भाखि ।
कंकन हाथ होइ जहँ, तहँ दरपन का साखि? ॥16॥

(डाँडी कँवल ….लाई=कमलनाल उलटकर रखा हो,
कर-पल्लव=उँगली, साखि=साक्षी, कंगन हाथ…साखि=
हाथ कंगन को आरसी क्या?)

हिया थार, कुच कनक-कचोरा । जानहुँ दुवौ सिरीफल-जोरा ॥
एक पाट वै दूनौ राजा । साम छत्र दूनहुँ सिर छाजा ॥
जानहुँ दोउ लटु एक साथा । जग भा लटू,चढ़ै नहिं हाथा ॥
पातर पेट आहि जनु पूरी । पान अधार, फूल अस फूरी ॥
रोमावली ऊपर लटु घूमा । जानहु दोउ साम औ रूमा ॥
अलक भुअंगिनि तेहि पर लोटा । हिय -घर एक खेल दुइ गोटा ॥
बान पगार उठे कुच दोऊ । नाँघि सरन्ह उन्ह पाव न कोऊ ॥

कैसहु नवहिं न नाए, जोबन गरब उठान ।
जो पहिले कर लावै, सो पाछे रति मान ॥17॥

(कचोरा=कटोरा, पाट=सिंहासन, साम छत्र=कुच का
श्याम अग्रभाग, लट्टू=लट्टू, फूरी=फूली, साम=शाम
(सीरिया) का मुल्क जो अरब के उत्तर है, घर=
खाना,कोठा, गोटा=गोटी, पगार=प्राकार या परकोटे पर)

भृंग-लंक जनु माँझ न लागा । दुइ खंड-नलिन माँझ जनु तागा ॥
जब फिरि चली देख मैं पाछे । अछरी इंद्रलोक जनु काछे ॥
जबहिं चली मन भा पछिताऊ । अबहूँ दिस्टि लागि ओहि ठाऊ ।
अछरी लाजि छपीं गति ओही । भईं अलोप, न परगट होहीं ॥
हंस लजाइ मानसर खेले । हस्ती लाजि धूरि सिर मेले ॥
जगत बहुत तिय देखी महूँ । उदय अस्त अस नारि न कहूँ ॥
महिमंडल तौ ऐसि न कोई । ब्रह्मंडल जौ होइ तो होई ॥

बरनेउँ नारि, जहाँ लगि, दिस्टि झरोखे आइ ।
और जो अही अदिस्ट धनि, सो किछु बरनि न जाइ ।18॥

(देख=देखा, खेले=चले गए, ब्रह्मँडल=स्वर्ग)

का धनि कहौं जैसि सुकुमारा । फूल के छुए होइ बेकरारा ॥
पखुरी काढहि फूलन सेंती । सोई डासहिं सौंर सपेती ॥
फूल समूचै रहै जौ पावा । व्याकुल होइ नींद नहिं आवा ॥
सहै न खीर, खाँड औ घीऊ । पान-अधार रहै तन जीऊ ॥
नस पानन्ह कै काढहि हेरी । अधर न गड़ै फाँस ओहि केरी ॥
मकरि क तार तेहि कर चीरू । सो पहिरे छिरि जाइ सरीरू ॥
पालग पावँ, क आछै पाटा । नेत बिछाव चलै जौ बाटा ॥

घालि नैन ओहि राखिय, पल नहिं कीजिय ओट ।
पेम का लुबुधा पाव ओहि, काह सो बड का छोट ॥19॥

(बेकरारा=बेचैन, डासहिं=बिछाती हैं, सौंर=चादर, फाँस=कड़ा तंतु,
मकरि क तार=मकड़ी के जाले सा महीन, छिरि जाइ=छिल जाता
है, पालँग पाँव…पाटा=पैर या तो पलंग पर रहते हैं या सिंहासन
पर, नेत=रेशमी कपड़े की चादर,नेत्र)

जौ राघव धनि बरनि सुनाई । सुना साह, गइ मुरछा आई ॥
जनु मूरति वह परगट भई । दरस देखाइ माहिं छपि गई ॥
जो जो मंदिर पदमिनि लेखी । सुना जौ कँवल कुमुद अस देखी ॥
होइ मालति धनि चित्त पईठी । और पुहुप कोउ आव न दीठी ॥
मन होइ भँवर भएउ बैरागा । कँवल छाँडि चित और न लागा ॥
चाँद के रंग सुरुज जस राता । और नखत सो पूछ न बाता ॥
तब कह अलाउदीं जग-सूरू । लेउँ नारि चितउर कै चूरू ॥

जौ वह पदमिनि मानसर, अलि न मलिन होइ जात ।
चितउर महँ जो पदमिनी फेरि उहै कहु बात ॥20॥

(माहिं=भीतर हृदय के, जो जो मंदिर…देखी=अपने घर की जिन
जिन स्त्रियों को पद्मिनी समझ रखा था वे पद्मिनी (कँवल) का
वृत्तांत सुनने पर कुमुदिनी के समान लगने लगीं, चूरू कै=
तोड़कर, मलिन=हतोत्साह)

ए जगसूर! कहौं तुम्ह पाहाँ । और पाँच नग चितउर माहाँ ॥
एक हंस है पंखि अमोला । मोती चुनै, पदारथ बोला ॥
दूसर नग जौ अमृत-बसा । सो विष हरै नाग कर डसा ॥
तीसर पाहन परस पखाना ।लोह छुए होइ कंचन-बाना ॥
चौथ अहै सादूर अहेरी । जो बन हस्ति धरै सब घेरी ॥
पाँचव नग सो तहाँ लागना । राजपंखि पेखा गरजना ॥
हरिन रोझ कोइ भागि न बाँचा । देखत उड़ै सचान होइ नाचा ॥

नग अमोल अस पाँचौ भेंट समुद ओहि दीन्ह ।
इसकंदर जो न पावा सो सायर धँसि लीन्ह ॥21॥

(पदारथ=बहुत उत्तम बोल, परस पखाना=पारस पत्थर,
सादूर=शार्दूल,सिंह, लागना=लगनेवाला,शिकार करनेवाला,
गरजन=गरजनेवाला, रोझ=नीलगाय, सचान=बाज, सायर=
समुद्र)

पान दीन्ह राघव पहिरावा । दस गज हस्ति घोड़ सो पावा ॥
औ दूसर कंकन कै जोरी । रतन लाग ओहि बत्तिस कोरी ॥
लाख दिनार देवाई जेंवा । दारिद हरा समुद कै सेवा ॥
हौ जेहि दिवस पदमिनी पावौं । तोहि राघव चितउर बैठावौं ॥
पहिले करि पाँचौं नग मूठी । सो नग लेउँ जो कनक-अँगूठी ॥
सरजा बीर पुरुष बरियारू । ताजन नाग, सिंघ असवारू ॥
दीन्ह पत्र लिखि, बेगि चलावा । चितउर-गढ़ राजा पहँ आवा ॥

राजै पत्र बँचावा, लिखी जो करा अनेग ।
सिंगल कै जो पदमिनी, पठै देहु तेहि बेग ॥22॥

(जेंवा=दक्षिणा में, ताजन नाग=नाग का कोड़ा,
करा=कला से,चतुराई से)

लेखक

  • जायसी

    मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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