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पद्मावती-रत्नसेन-भेंट-खंड-27 पद्मावत/जायसी

सात खंड ऊपर कबिलासू । तहवाँ नारि-सेज सुख-बासू ॥
चारि खंभ चारिहु दिसि खरे । हीरा-रतन-पदारथ-जरे ॥
मानिक दिया जरावा मोती । होइ उजियार रहा तेहि जोती ॥
ऊपर राता चँदवा छावा । औ भुइँ सुरग बिछाव बिछावा ॥
तेहि महँ पालक सेज सो डासी । कीन्ह बिछावन फूलन्ह बासी ॥
चहुँ दिसि गेंडुवा औ गलसूई । काँची पाट भरी धुनि रूई ॥
बिधि सो सेज रची केहि जोगू । को तहँ पौढ़ि मान रस भोगू? ॥

अति सुकुवाँरि सेज सो डासी, छुवै न पारै कोइ ।
देखत नवै खिनहि खिन, पाव धरत कसि होइ ॥1॥

(पालक=पलंग, डासी=बिछाई, गेंडुआ=तकिया, गलसूई=
गाल के नीचे रखने का छोटा तकिया, काँची=गोटा पट्टा,
पौड़ि=लेटकर, सुकुवाँरि=कोमल)

राजै तपत सेज जो पाई । गाँठि छोरि धनि सखिन्ह छपाई ॥
कहैं, कुँवर! हमरे अस चारू । आज कुँवर कर करब सिंगारू ॥
हरदि उतारि चढ़ाउब रगू । तब निसि चाँद सुरुज सौं संगू ॥
जस चातक-मुख बूंद सेवाती । राजा-चख जोहत तेहि भाँती ॥
जोगि छरा जनु अछरी साथा । जोग हाथ कर भएउ बेहाथा ॥
वै चातुरि कर लै अपसईं । मंत्र अमोल छीनि लेइ गईं ॥
बैठेउ खोइ जरी औ बूटी । लाभ न पाव, मूरि भइ टूटी ॥

खाइ रहा ठग-लाडु, तंत मंत बुधि खोइ ।
भा धौराहर बनखंड, ना हँसि आव, न रोइ ॥2॥

(तपत=तप करते हुए, चारू=चार,रीति,चाल, हरदि उतारि=
ब्याह के लग्न में शरीर में जो हलदी लगती है उसे छुड़ाकर,
रंगू=अंगराग, छरा=ठगा गया, खोया, कर हाथ से, टूटि
भइ=घाटा हुआ, हानि हुई, ठग-लाडु=विष या नशा मिला
हुआ लड्डु जिसे पथिकों को खिलाकर ठग लोग बेहोश
करते थे)

अस तप करत गएउ दिन भारी । चारि पहर बीते जुग चारी ॥
परी साँझ, पुनि सखी सो आई । चाँद रहा, उपनी जो तराई ॥
पूँछहिं “गुरू कहाँ, रे चेला! । बिनु ससि रे कस सूर अकेला?॥
धअतु कमाय सिखे तैं जोगी । अब कस भा निरधातु बियोगी? ॥
कहाँ सो खोएहु बिरवा लोना । जेहि तें होइ रूप औ सोना ॥
कअ हरतार पार नहिं पावा । गंधक काहे कुरकुटा खावा ॥
कहाँ छपाए चाँद हमारा? । जेहि बिनु रैनि जगत अँधियारा ” ॥

नैन कौडिया, हिय समुद, गुरु सो तेहि महँ जोति ।
मन मरजिया न होइ परे हाथ न आवै मोति ॥3॥

(चाँद रहा…तराई=पद्मिनी तो रह गई,केवल उसकी सखियाँ
दिखाई पड़ी, निरधातु=निस्सार, बिरवा लोना=(क) अमलोनी
नाम की घास जिसे रसायनी धातु सिद्ध करने के काम में
लाते हैं, (ख) सुंदर वल्ली, द्मावती, रूप=(क) रूपा (ख) चाँदी,
कौडिया=पक्षी जो मछली पकड़ने के लिए पानी के ऊपर
मँडराता है)

का पूछहु तुम धातु, निछोही! जो गुरु कीन्ह अँतर फट ओही ॥
सिधि-गुटिका अब मो संग कहा । भएउँ राँग, सत हिये न रहा ॥
सो न रूप जासौं मुख खोलौं । गएउ भरोस तहाँ का बोलौं? ॥
जहँ लोना बिरवा कै जाती । कहि कै सँदेस आन को पाती? ॥
कै जो पार हरतार करीजै । गंधक देखि अबहिं जिउ दीजै ॥
तुम्ह जोरा कै सूर मयंकू । पुनि बिछोहि सो लीन्ह कलंकू ॥
जो एहि घरी मिलावै मोहीं । सीस देउँ बलिहारी ओही ॥

होइ अबरक इंगुर भया, फेरि अगिनि महँ दीन्ह ।
काया पीतर होइ कनक, जौ तुम चाहहु कीन्ह ॥4॥

(निछोही=निष्ठुर, जो …ओही=जो उस गुरु (पद्मावती) को
तुमने छिपा दिया है, राँग=राँगा, जोरा के= (क) एक बार
जोड़ी मिलाकर, (ख) तोले भर राँगे और तोले भर चाँदी का
दो तोले चाँदी बनाना रसायिनों की बोली में जोड़ा करना
कहलाता है)

का बसाइ जौ गुरु अस बूझा । चकाबूह अभिमनु ज्यौं जूझा ।
विष जो दीन्ह अमृत देखराई । तेहि रे निछौही को पतियाई?॥
मरै सोइ जो होइ निगूना । पीर न जानै बिरह बिहूना ॥
पार न पाव जो गंधक पीया । सो हत्यार कहौ किमि जीया ॥
सिद्धि-गुटीका जा पहँ नाहीं । कौन धातु पूछहु तेहि पाहीं ॥
अब तेहि बाज राँग भा डोलौं । होइ सार तौ बर कै बोलौं ॥
अबरक कै पुनि ईंगुर कीन्हा । सो तन फेरि अगिनि महँ दीन्हा ॥

मिलि जो पीतम बिछुरहि काया अगिनि जराइ ।
की तेहि मिले तन तप बुझै, की अब मुए बुझाइ ॥5॥

(का बसाइ=क्या वश चल सकता है? बाज=बिना, बर=बल)

सुनि कै बात सखी सब हँसी । जानहुँ रैनि तरई परगसीं ॥
अब सो चाँद गगन महँ छपा । लालच कै कित पावसि तपा?॥
हमहुँ न जानहि दहुँ सो कहाँ । करब खोज औ बिनउब तहाँ ॥
औ अस कहब आहि परदेसी । करहि मया; हत्या जनि लेसी ॥
पीर तुम्हारि सुनत भा छोह । देउ मनाउ, होइ अस ओहू ॥
तू जोगी फिरि तपि करु जोगू । तो कहँ कौन राज सुख-भोगू ॥
वह रानी जहवाँ सुख राजू । बारह अभरन करै सो साजू ॥

जोगी दिढ़ आसन करै अहथिर धरि मन ठावँ ।
जो न सुना तौ अब सुनहि बारह अभरन नावँ ॥6॥

(तपा=तपस्वी, जनि लेसी=न ले, दैउ मनाउ…ओहु=ईश्वर
को मना कि उसे (पद्मावती की ) भी वैसी ही दया हो जैसी
हम लोगों को तुझ पर आरही है)

प्रथमै मज्जन होइ सरीरू । पुनि पहिरै तन चंदन चीरू ॥
साजि माँगि सिर सेंदुर सारे । पुनि लिलाट रचि तिलक सँवारै ॥
पुनि अंजन दुहुँ नैनन्ह करै । औ कुंडल कानन्ह महँ पहिरै ॥
पुनि नासिक भल फूल अमोला । पुनि राता मुख खाइ तमोला ॥
गिउ अभरन पहिरै जहँ ताईं । औ पहिरे कर कँगन कलाई ॥
कटि छुद्रावलि अभरन पूरा । पायन्ह पहिरै पायल चूरा ॥
बारह अभरन अहैं बखाने । ते पहिरै बरहौं अस्थाने ॥

पुनि सोरहौ सिंगार जस चारिहु चौक कुलीन ।
दीरघ चारि, चारि लघु सुभर चौ खीन ॥7॥

(फूल=नाक में पहनने की लोंग, छुद्रावलि=क्षुद्रघंटिका,करधनी,
चूरा=कड़ा, चौक=चार चार का समूह, कुलीन=उत्तम, सुभर=
शुभ्र)

पदमावति जो सँवारै लीन्हा । पूनउँ राति देउ ससि कीन्हा ॥
करि मज्जन तन कीन्ह नहानू । पहिरे चीर, गएउ छपि भानू ॥
रचि पत्रावलि, माँग सदूरु । भरे मोति औ मानिक चूरू ॥
चंदन चीर पहिर बहु भाँती । मेघघटा जानहुँ बग-पाँती ॥
गूँथि जो रतन माँग बैसारा । जानहुँ गगन टूटि निसि तारा ॥
तिलक लिलाट धरा तस दीठा । जनहुँ दुइज पर सुहल बईठा ॥
कानन्ह कुंडल खूँट औ खूँटी । जानहुँ परी कचपची टूटी ॥

पहिरि जराऊ ठाढ़ि भइ, कहि न जाइ तस भाव ।
मानहुँ दरपन गगन भा तेहि ससि तार देखाव ॥8॥

(सँवारै=श्रृंगार को, पत्रावलि=पत्रभंग रचना, दुइज=दूज
का चंद्रमा, सुहल=सुहेल (अगस्त्य) तारा जो दूज के चंद्रमा
के साथ दिखाई पड़ता है और अरबी फारसी काव्य में प्रसिद्ध
है, खूँट=कान का एक चक्राकार गहना, मानहुँ दरपन …देखाव=
मानो आकाश-रूपी दर्पण में जो चंद्रमा और तारे दिखाई पड़ते
हैं वे इसी पद्मावती के प्रतिबिंब हैं)

बाँक नैन औ अंजन-रेखा । खंजन मनहुँ सरद ऋतु देखा ॥
जस जस हेर, फेर चख मोरी । लरै सरद महँ खंजन-जोरी ॥
भौहैं धनुक धनुक पै हारा । नैनन्ह साधि बान-बिष मारा ॥
करनफूल कानन्ह अति सोभा । ससि-मुख आइ सूर जनु लोभा ॥
सुरँग अधर औ मिला तमोरा । सोहे पान फूल कर जोरा ॥
कुसुमगंध अति सुरँग कपोला । तेहि पर अलक-भुअंगिनि डोला ॥
तिल कपोल अलि कवँल बईठा । बेधा सोइ जेइ तिल दीठा ॥

देखि सिंगार अनूप विधि बिरह चला तब भागि ।
काल-कस्ट इमि ओनवा, सब मोरे जिउ लागि ॥9॥

(खंजन….देखा=पद्मावती का मुख चंद्र शरद के पूर्ण चंद्र
के समान होकर शरद ऋतु का आभास देता है, हेर=ताकती
है, धनुक=इंद्रधनुष, ओनवा=झुका,पड़ा, काल-कस्ट…लागि=
बिरह कहता है कि यह कालकष्ट आ पड़ा सब मेरे ही
जी के लिये)

का बरनौं अभरन औ हारा । ससि पहिरे नखतन्ह कै मारा ॥
चीर चारू औ चंदन चोला । हीर हार नग लाग अमोला ॥
तेहि झाँपी रोमावलि कारी । नागिनि रूप डसै हत्यारी ॥
कुच कंचुकी सिराफल टाँड सलोनी । डोलत बाँह भाव गति लोनी ॥
बाँहन्ह बहुटा टाँड सलोनी । डोलत बाँह भाव गति लोनी ॥
तरवन्ह कवल-करी जनु बाँधी। बसा-लंक जानहुँ दुइ आधी ॥
छुद्रघंट कटि कंचन-तागा । चलतै उठहिं छतीसौ रागा ॥

चूरा पायल अनवट पायँन्ह परहिं बियोग ।
हिये लाइ टुक हम कहँ समदहु मानहुँ भोग ॥10॥

(मारा=माला, झाँपी=ढाँक दिया, उभे=उठे हुए, बहुँटा
और टाँड=बाँह पर पहनने के गहने, पायल=पैर का एक
गहना, अनवट=अँगूठे का एक गहना, समुदहु=मिलो,
आलिंगन करो)

अस बारह सोरह धनि साजै । छाज न और; आहि पै छाजै ॥
बिनवहिं सखी गहरु का कीजै?। जेहि जिउ दीन्ह ताहि जिउ दीजे ॥
सवरि सेज धनि-मन भइ संका । ढाढ तेवानि टेकि कर लंका ॥
अनचिन्ह पिउ, कापौं मन माँहा । का मैं कहब गहब जौ बाँहा ॥
बारि बैस गइ प्रीति न जानी । तरुनि भई मैमंत भुलानी ॥
जोबन-गरब न मैं किछु चेता । नेह न जानौं सावँ कि सेता ॥
अब सो कंत जो पूछिहि बाता । कस मुख होइहि पीत कि राता ॥

हौं बारी औ दुलहिनि, पीउ तरुन सह तेज ।
ना जानौं कस होइहि चढ़ँत कंत के सेज ॥11॥

(गहरू=देर, विलंब, सँवरि=स्मरण करके, तेवनि=सोच
या चिंता में पड़ गई, अनचिन्ह=अपरिचित, साँव=श्याम,
पूछिहि=पूछेगा)

सुनु धनि! डर हिरदय तब ताई । जौ लगि रहसि मिलै नहिं साईं ॥
कौन कली जो भौंर न राई? । डार न टूट पुहुप गरुआई ॥
मातु पिता जौ बियाहै सोई । जनम निबाह कंत सँग होई ॥
भरि जीवन राखै जहँ चहा । जाइ न मेंटा ताकर कहा ॥
ताकहँ बिलँब न कीजै बारी । जो पिउ-आयसु सोइ पियारी ॥
चलहु बेगि आयसु भा जैसे । कंत बोलावै रहिए कैसे? ॥
मान न करसि, पोढ़ करु लाडू । मान मरत रिस मानै चाँडू ॥

साजन लेइ पठावा, आयसु जाइ न मेट ।
तन,मन, जोबन, साजि के देइ चली लेइ भेंट ॥12॥

(राई=अनुरुक्त हुई, डार न टूट…गरुआई=कौन फूल
अपने बोझ से ही डाल से टूट कर न गिरा? पोढ़=पुष्ट,
लाडू=लाड़,प्यार,प्रेम, चाँडू=गहरी चाहवाला, साजन=पति)

पदमिनि-गवन हंस गए दूरी । कुंजर लाज मेल सिर धूरी ॥
बदन देखि घटि चंद छपाना । दसन देखि कै बीजु लजाना ॥
खंजन छपे देखि कै नैना । किकिल चपी सुनत मधु बैना ॥
गीव देखि कै छपा मयूरू । लंक देखि कै छपा सुदूरू ॥
बौंहन्ह धनुक छपा आकारा । बेनी बासुकि छपा पतारा ॥
खड़ग छपा नासिका बिसेखी । अमृत छपा अधर-रस देखी ॥
पहुँचहि छपी कवल पौनारी । जंघ छपा कदली होइ बारी ।

अछरी रूप छपानीं जबहिं चली धनि साजि ।
जावत गरब-गहेली सबै छपीं मन लाजि ॥13॥

(मेल=डालता है, सदूरू=शार्दूल, सिंह, पहुँचा=कलाई,
पौनारी=पद्मनाल, खड़ग छपा=तलवार छिपी (म्यानमें),
बारी होइ=बगीचे में जाकर, गरब-गहेली=गर्व धारण
करनेवाली)

मिलीं गोहने सखी तराईं ।लेइ चाँद सूरज पहँ आई ॥
पारस रूप चाँद देखराई । देखत सूरुज गा मुरझाई ॥
सोरह कला दिस्टि ससि कीन्ही । सहसौ कला सुरुज कै लीन्ही ॥
भा रवि अस्त, तराई हसी । सूर न रहा, चाँद परगसी ॥
जोगी आहि, न भोगी होई । खाइ कुरकुटा गा पै सोई ॥
पदमावति जसि निरमल गंगा । तू जो कंत जोगी भिखमंगा ॥
आइ जगावहिं `चेला जागै । आवा गुरू, पायँ उठि लागै’॥

बोलहिं सबद सहेली कान लागि, गहि माथ ।
गोरख आइ ठाढ़ भा, उठु, रे चेला नाथ!॥14॥

(गोहने=साथ में, कुरकुटा=अन्न का टुकड़ा;मोटा रुखा
अन्न ।पै=निश्चयवाचक,ही, नाथ=जोगी,गोरखपंथी
साधु नाथ कहलाते हैं)

सुनि यह सबद अमिय अस लागा । निद्रा टूटि, सोइ अस जागा ॥
गही बाँह धनि सेजवाँ आनी । अंचल ओट रही छपि रानी ॥
सकुचै डरै मनहि मन बारी । गहु न बाँह, रे जोगि भिखारी? ॥
ओहट होसि, जोगि! तोरि चेरी । आवै बास कुरकुटा केरी ॥
देखि भभूति छूति मोहि लागै । काँपै चाँद, सूर सौं भागै ॥
जोगि तोरि तपसी कै काया । लागि चहै मोरे अँग छाया ॥
बार भिखारि न माँगसि भीखा । माँगे आइ सरग पर सीखा ॥

जोगि भिखारि कोई मँदिर न पैठै पार ।
माँगि लेहु किछु भिक्षा जाइ ठाढ़ होइ बार ॥15॥

(बार=द्वार, पैठ पार=घुसने पाता है)

मैं तुम्ह कारन, पेम-पियारी । राज छाँडि कै भएउँ भिखारी ॥
नेह तुम्हार जो हिये समाना । चितउर सौं निसरेउँ होइ आना ॥
जस मालति कहँ भौंर बियोगी । चढ़ा बियोग, चलेउँ होइ जोगी ॥
भौंर खोजि जस पावै केवा । तुम्ह कारन मैं जिउ पर छेवा ॥
भएउँ भिखारि नारि तुम्ह लागी । दीप=पतँग होइ अँगएउँ आगी ॥
एक बार मरि मिले जो आई । दूसरि बार मरै कित जाई ॥
कित तेहि मीचु जो मरि कै जीया?। भा सो अमर, अमृत-मधु पीया ॥

भौंर जो पावै कँवल कहँ बहु आरति बहु आस ।
भौंर होइ नेवछावरि, कँवल देइ हँसि बास ॥16॥

(होइ आना=अन्य अर्थात् योगी होकर, केवा=कमल,
छेवा=फेंका, डाला खेला, अँगएउँ=अँगेजा,शरीर पर सहा)

अपने मुँह न बड़ाई छाजा । जोगी कतहुँ होहिं नहिं राजा ॥
हौं रानी, तू जोगि भिखारी । जोगहि भोगहि कौन चिन्हारी?॥
जोगी सबै छंद अस खेला । तू भिखारि तेहि माहिं अकेला ॥
पौन बाँधि अपसवहिं अकासा । मनसहिं जाहिं ताहि के पासा ॥
एही भाँति सिस्टि सब छरी । एही भेख रावन सिय हरी ॥
भौंरहिं मीचु नियर जब आवा । चंपा-बास लेइ कहँ धावा ॥
दीपक-जोति देखि उजियारी । आइ पाँखि होइ परा भिखारी ॥

रैनि जो देखै चंदमुख ससि तन होइ अलोप ।
तुहुँ जोगी तस भूला करि राजा कर ओप ॥17॥

(चिन्हारी=जान पहचान, छंद=कपट,धूर्तता, तेहि माहिं
अकेला=उनमें एक ही धूर्त्त है, अपसवहि=जाते हैं,
मनसहिं=मन में ध्यान या कामना करते हैं)

अनु, धानि तू निसिअर निसि माहाँ । हौं दिनिअर जेहि कै तूछाहाँ॥
चादहि कहाँ जोति औ करा । सुरुज के जोति चाँद निरमरा ॥
भौंर बास-चंपा नहिं लेई । मालति जहाँ तहाँ जिउ देई ॥
तुम्ह हुँत भएउँ पतँग कै करा । सिंघलदीप आइ उड़ि परा ॥
सेएउँ महादेव कर बारू । तजा अन्न, भा पवन अहारू ॥
अस मैं प्रीति गाठि हिय जोरी । कटै न काटे, छुटै न छोरी ॥
सीतै भीखि रावनहिं दीन्हीं । तूँ असि निठुर अतरपट कीन्हीं ॥

रंग तुम्हारेहि रातेउँ, चढ़ेउँ गगन होइ सूर ।
जहँ ससि सीतल तहँ तपौं,मन हींछा,धनि!पूर॥18॥

(निसिअर=निशाकर,चंद्रमा, अनु=फिर, आगे, करा=कला,
तुम्ह हुँत=तुम्हारे लिये, पतँग कै करा=पतंग के रूप का,
बारू=द्वार)

जोगि भिखारी! करसि बहु बाता । कहसि रंग, देखौं नहिं राता ॥
कापर रँगे रंग नहिं होई । उपजे औटि रंग भल सोई ॥
चाँद के रंग सुरुज जब राता । देखै जगत साँझ परभाता ।
दगधि बिरह निति होइ अँगारा । ओही आँच धिकै संसारा ॥
जो मजीठ औटे बहु आचा । सो रंग जनम न डोलै राँचा ॥
जरै बिरह जस दीपक=बाती भीतर जरै, उपर होइ राती ॥
जरि परास होइ कोइल-भेसू । तब फूलै राता होइ टेसू ॥

पान,सुपारी, खैर जिमि मेरइ करै चकचून ।
तौ लगि रंग न राचै जौ लगि होइ न चून ॥19॥

(देखै…जगत परभाता=संध्या सवेरे जो ललाई
दिखाई पड़ती है, धिकै=तपता है, मजीठ=साहित्य में
पक्के राग या प्रेम को मंजिष्ठा राग कहते हैं, जनम
न डोलै=जन्म भर नहीं दूर होता, चक चून करै=चूर्ण
करे, चून=चूना पत्थर या कंकड़ जलाकर बनाया जाता है)

का, धनि! पान-रंग, का चूना । जेहि तन नेह दाध तेहि दूना ॥
हौं तुम्ह नेह पियर भा पानू । पेडी हुँत सोनरास बखानू ॥
सुनि तुम्हार संसार बड़ौना । जोग लीन्ह, तन कीन्ह गड़ौना ॥
करहिं जो किंगरी लेइ बैरागी । नौती होइ बिरह कै आगी ॥
फेरि फेरि तन कीन्ह भुँजौना । औटि रकत रँग हिरदय औना ॥
सूखि सोपारी भा मन मारा । सिरहिं सरौता करवत सारा ॥
हाड़ चून भा, बिरहँहि दहा । जानै सोइ जो दाध इमि सहा ॥

सोई जान वह पीरा जेहि दुख ऐस सरीर ।
रकत-पियासा होइ जो का जानै पर पीर?॥20॥

(पेडी हुँत=पेडी ही से; जो पान डाल या पेडी ही में
पुराना होता है उसे भी पेडी ही कहते हैं, सोनरास=पका
हुआ सफेद या पीला पान, बड़ौना=(क) बड़ाई, (ख)एक
जाति का पान, गडौना=एक प्रकार का पान जो जमीन
में गाड़कर पकाया जाता है, नौती=नूतन,ताजी, भुँजौना
कीन्ह=भुना, औना=आना है, आ सकता है)

जोगिन्ह बहुत छंद न ओराहीं । बूँद सेवाती जैस पराहीं ॥
परहिं भूमि पर होइ कचूरु । परहिं कदलि पर होइ कपूरू ॥
परहिं समुद्र खार जल ओही । परहिं सीप तौ मोती होहीं ॥
परहिं मेरु पर अमृत होई । परहिं नागमुख विष होइ सोई ॥
जोगी भौंर निठुर ए दोऊ । केहि आपन भए? कहै जौ कोऊ ॥
एक ठाँव ए थिर न रहाहीं । रस लेइ खेलि अनत कहुँ जाहीं ॥
होइ गृही पुनि होइ उदासी । अंत काल दूवौ बिसवासी ॥

तेहि सौं नेह को दिढ़ करै? रहहिं न एकौ देस ।
जोगी, भौंर, भिखारी इन्ह सौं दूर अदेश ॥21॥

(ओराहीं=चुकते हैं, छंद=छल,चाल, कचूर=हलदी की
तरह का एक पौधा, दूरि अदेश=दूर ही से प्रणाम)

थल थल नग न होहिं जेहि जोती । जल जल सीप न उपनहिं मोती ॥
बन बन बिरिछ न चंदन होई । तन तन बिरह न उपनै सोई ॥
जेहि उपना सो औटि मरि गयऊ । जनम निनार न कबहूँ भएऊ ॥
जल अंबुज,रवि रहै अकासा । जौं इन्ह प्रीति जानु एक पासा ॥
जोगी भौंर जो थिर न रहाहीं । जेहि खोजहि तेहि पावहिं नाहीं ॥
मैं तोहि पायउँ आपन जीऊ । छाड़ि सेवाति न आनहि पीऊ ॥
भौंर मालती मिलै जौ आई । सो तजि आन फूल कित जाई?॥

चंपा प्रीति न भौंरहि, दिन दिन आगरि बास ।
भौंर जो पावै मालती मुएहु न छाँड़ै पास ॥22॥

(न आनहिं पीऊ=दूसरा जल नहीं पीता, आगरि=अधिक)

ऐसे राजकुवर नहीं मानौं । खेलु सारि पाँसा तब जानौं ॥
काँचे बारह परा जो पाँसा । पाके पैंत परी तनु रासा ॥
रहै न आठ अठारह भाखा । सोरह सतरस रहैं त राखा ॥
सत जो धरै सो खेलनहारा । ढारि इगारह जाइ न मारा ॥
तूँ लीन्हे आछसि मन दूवा । ओ जुग सारि जहसि पुनि छूवा ॥
हौं नव नेह रचों तोहि पाहा । दसव दाव तोरे हिय माहा ॥
तौ चौपर खेलौं करि हिया । जौ तरहेल होइ सौतिया ॥

जेहि मिलि बिछुरन औ तपनि अंत होइ जौ नित ।
तेहि मिलि गंजन को सहै? बरु बिनु मिलै निचिंत ॥23॥

(सारी=गोटी पैंत=दाँव, रास=ठीक, सत=सत्य,सात का
दाँव, इगारह=दस इंद्रियाँ और मन, ग्यारह का दाँव, दूवा=
दुबधा, जुग सारि=दो गोटियाँ,कुच, दसवँ दावँ=दसवाँ
दाँव,अंत तक पहुँचानेवाली चाल, तरहेल=अधीन,नीचे
पड़ा हुआ, सौतिया=तिया,एक दाँव,सपत्नी, गंजन=नाश,
दुःख)

बोलौं रानि! बचन सुनु साचा । पुरुष क बोल सपथ औ बाचा
यह मन लाएउ तोहिं अस, नारी । दिन तुइ पासा औ निसि सारी ॥
पौ परि बारहि बार मनाएउ । सिर सौ खेलि पैंत जिउ लाएउ ॥
हौं अब चौंक पंज तें बाची । तुम्ह बिच गोट न आवहि काची ॥
पाकि उठाएउ आस करीता । हौं जिउ तोहि हारा, तुम जीता ॥
मिलि कै जुग नहिं होहु निनारी । कहा बीच दूती देनिहारी? ॥
अब जिउ जनम जनम पासा । चढ़ेउँ जोग, आएउँ कबिलासा ॥

जाकर जीऊ बसै जेहि तेहि पुनि ताकर टेक ।
कनक सोहाग न बिछुरे, ओटि मिलै होइ एक ॥24॥

(बाचा=प्रतिज्ञा, पैंत लाएउ=दाँव पर लगाया, चौक पंज=
चौका पंजा दाँव, छल=कपट,छक्का पंजा, तुम्हबिच…..काँची=
कच्ची,गोटी तुम्हारे बीच नहीं पड़ सकती पाकि=पक्की
गोटी, जुग निनारा होना=चौसर में युग फूटना,जोड़ा
अलग होना, कहाँ बीच…देनिहारी=मध्यस्त होनेवाली
दूती की कहाँ आवश्यकता रह जाती है)

बिहँसी धनि सुनि कै सत बाता । निहचय तू मोरे रंग राता ॥
निहचय भौर कवल-रस सा । जो जेहि मन सो तेहि मन बसा ॥
जब हीरामन भएउ सँदेसी । तुम्ह हुँत मँडप गइउँ, परदेसी ॥
तोर रूपतस देखेउँ लोना । जनु, जोगी! तू मेलेसि टोना ॥
सिधि-गुटिका जो दिस्टि कमाई । पारहि मेलि रूप बैसाई ॥
भुगुति देइ कहँ मैं तोहि दीठा । कँवल-नैन होइ भौंर बईठा ॥
नैन पुहुप, तू अलि भा सोभी । रहा बेधि अस, उढ़ा न लोभी ॥

जाकर आस होइ जेहि, तेहि पुनि ताकरि आस ।
भौंर जो दाधा कँवल कहँ, कस न पाव सो बास? ॥25॥

(सँदेसी=संदेसा ले जाने वाला, तुम्ह हुँत=तुम्हारे लिये,
रूप=रूपा,चाँदी, बैसाय=बैठाया,जमाया, कँवल-नैन …बईठा
मेरे नेत्र कमल में तू भौंरा (पुतली के समान ) होकर बैठ
गया, कँवल कहँ=कमल के लिए)

कौन मोहनी दहुँ हुति तोही । जो तोहि बिधा सो उपनी मोही ॥
बिनु जल मीन तलफ जस जीऊ । चातकि भइउँ कहत “पीउ पीउ”॥
जरिउँ बिरह जस दीपक-बाती । पंथ जोहत भइ सीप सेवाती ॥
डाढि डाढि जिमि कोइल भई । भइउँ चकोरि, नींद निसि गई ॥
तोरे पेम पेम मोहिं भएऊ । राता हेम अगिनि जिमि तएऊ॥
हीरा दिपै जौ सूर उदोती । नाहिं त किंत पाहन कहँ जोती! ॥
रवि परगासे कँवल बिगासा । नाहिं त कित मधुकर, कित बासा ॥

तासौं कौन अँतरपट जो अस पीतम पीउ ।
नेवछावरि अब सारौं तन, मन, जोबन, जीउ ॥26॥

हँसि पदमावति मानी बाता । निहचय तू मोरे रँग राता ॥
तू राजा दुहुँ कुल उजियारा । अस कै चरिचिउँ मरम तुम्हारा ॥
पै तूँ जंबूदीप बसेरा । किमि जानेसि कस सिंघल मोरा?॥
किमि जानेसि सो मानसर केवा । सुनि सो भौंर भा, जिउ पर छेवा ॥
ना तुँइ सुनी, न कबहूँ दीठी । कैस चित्र होइ चितहि पईठी? ॥
जौ लहि अगिनि करै नहिं भेदू । तौ लहि औटि चुवै नहिं मेदू ॥
कहँ संकर तोहि ऐस लखावा?। मिला अलख अस पेम चखावा ॥

जेहि कर सत्य सँघाती तेहि कर डर सोइ मेट ।
सो सत कहु कैसे भा,दुवौ भाँति जो भेंट ॥27॥

(चरचिउँ=मैंने भाँपा, बसेरा=निवासी, केवा=कमल,
छेवा=डाला या खेला)

सत्य कहौं सुनु पदमावती । जहँ सत पुरुष तहाँ सुरसती ॥
पाएउँ सुवा, कही वह बाता । भा निहचय देखत मुख राता ।
रूप तुम्हार सुनेउँ अस नीका । ना जेहि चढ़ा काहु कहँ टीका ॥
चित्र किएउँ पुनि लेइ लेइ नाऊँ । नैनहि लागि हिये भा ठाऊँ ॥
हौं भा साँच सुनत ओहि घड़ी । तुम होइ रूप आइ चित चढ़ी ॥
हौं भा काठ मूर्ति मन मारे । चहै जो कर सब हाथ तुम्हारे ॥
तुम्ह जौ डोलाइहु तबहिं डोला । मौन साँस जौ दीन्ह तौ बोला ॥

को सोवै, को जागै? अस हौं गएउँ बिमोहि ।
परगट गुपुत न दूसर, जहँ देखौं तहँ तोहि ॥28॥

(नैनहि लागि=आँखों से लेकर, साँच=सत्य स्वरूप,
साँचा, रूप, चाँदी)

बिहँसी धनि सुनि कै सत भाऊ । हौं रामा तू रावन राऊ ॥
रहा जो भौंर कँवल के आसा । कस न भोग मानै रस बासा?॥
जस तस कहा कुँवर! तू मोही । तस मन मोर लाग पुनि तोही ॥
जब-हुँत कहि गा पंखि सँदेसी । सुनिउँ कि आवा है परदेसी ॥
तब-हुत तुम बिनु रहै न जीऊ । चातकि भइउँ कहत “पिउ पिऊ ॥
भइउ चकोरि सो पंथि निहारी । समुद सीप जस नैन पसारी ॥
भइउ बिरह दहि कोइल कारी । डार डार जिमि कूकि पुकारी ॥

कौन सो दिन जब पिउ मिलै यह मन राता तासु ।
वह दुख देखै मोर सब, हौं दुख देखौं तासु ॥29॥

(रावन=रमण करनेवाला,रावण, जब-हुँत=जब से,
सुनिउँ=(मैंने ) सुना, तबहुँत=तब से)

कहि सत भाव भई कँठलागू । जनु कंचन औ मिला सोहागू ॥
चौरासी आसन पर जोगी । खट रस, बंधक चतुर सो भोगी ॥
कुसुम-माल असि मालति पाई । जनु चम्पा गहि डार ओनाई ॥
कली बेधि जनु भँवर भुलाना । हना राहु अरजुन के बाना ॥
कंचन करी जरी नग जोती । बरमा सौं बेधा जनु मोती ॥
नारँग जानि कीर नख दिए । अधर आमरस जानहुँ लिए ॥
कौतुक केलि करहिं दुख नंसा । खूँदहिं कुरलहिं जनु सर हंसा ॥

रही बसाइ बासना चोवा चंदन मेद ।
जुहि अस पदमिनि रानी सो जानै यह भेद ॥30॥

(चौरासी आसन=योग के, कामशास्त्र के बंधक=
कामशास्त्र के बंध, औनाई=झुकाई, राहु=रोहू मछली,
बरमा=छेद करने का औजार, नंसा करहि=नष्ट करते
हैं, खूँदहिं=कुदते हैं, कुरलहिं=हंस आदि के बोलने को
कुरलाना कहते हैं)

रतनसेन सो कंत सुजानू । खटरस-पंडित सोरह बानू ॥
तस होइ मिले पुरुष औ गोरी ।जैसी बिछुरी सारस-जोरी ॥
रची सारि दूनौ एक पासा । होइ जुग जुग आवहिं कबिलासा ॥
पिय धनि गही, दीन्हि गलबाहीं । धनि बिछुरी लागी उर माहीं ॥
ते छकि रस नव केलि करेहीं । चोका लाइ अधर-रस लेहीं ॥
धनि नौ सात, सात औ पाँचा । पुरुष दस ते रह किमि बाँचा?॥
लीन्ह बिधाँसिं बिरह धनि साजा । औ सब रचन जीत हुत राजा ॥

जनहुँ औटि कै मिलि गए तस दूनौ भए एक ।
कंचन कसत कसौटी हाथ न कोऊ टेक ॥31॥

(बानू=वर्ण,दीप्ति,कला, गौरी=स्त्री, सारि=चौपड़,
चोका=चूसने की क्रिया या भाव, चोका लाइ=चूसकर,
नौ सात=सोलह श्रृंगार, सात औ पाँचा=बारह आभरण,
पुरुष….बाँचा=वे श्रृंगार और आभरण पुरुष की दस
उँगलियों से कैसे बचे रह सकते हैं)

चतुर नारि चित अधिक चिहूँटी । जहाँ पेम बाढ़े किमी छूटी ॥
कुरला काम केरि मनुहारी । कुरला जेहिं सो न सुनारी ॥
कुरलहिं होइ कंत कर तोखू । कुरलहि किए पाव धनि मोखू ॥
जेहि कुरला सो सोहाग सुभागी । चंदन झेस साम कँठ लागी ॥
गेंद गोद कै जानहु लई । गेंद चाहि धनि कोमल भई ॥
दारिउँ, दाख, बेलरस चाखा । पिय के खेल धनि जीवन राखा ॥
भएउ बसंत कली मुख खोली । बैन सोहावन कोकिल बोली ॥

पिउ पिउ करत जो सूखि रहि धनि चातक की भाँति ।
परी सो बूँद सीप जनु, मोती होइ सुख-सांति ॥32॥

(चिहूँटी=चिमटी, कुरला=क्रीड़ा, मनुहारी=शांति,तृप्ति,
मोखू=मोक्ष,छुटकारा, चाहि=अपेक्षा,बनिस्बत)

भएउ जूझ जस रावन रामा । सेज बिधाँसि बिरह-संग्रामा ॥
लीन्हि लंक, कंचन-गढ़ टूटा । कीन्ह सिंगार अहा सब लूटा ॥
औ जोबन मैमंत विधाँसा । विचला बिरह जीउ जो नासा ॥
टूटे अंग अंग सब भेसा । छूटी माँग, भंग भए केसा ॥
कंचुकि चूर, चूर भइ तानी । टूटे हार, मोति छहरानी ॥
बारी, टाँण सलोनी टूटी । बाहूँ कँगन कलाई फूटी ॥
चंदन अंग छूट अस भेंटी । बेसरि टूटि, तिलक गा मेटी ॥

पुहुप सिंगार सँवार सब जोबन नवल बसंत ।
अरगज जिमि हिय लाइ कै मरगज कीन्हेउ कंत ॥33॥

(बिधाँसि=विध्वंस की गई,बिगड़ गई, जीउ जो नासा=
जिसने जीव की दशा बिगाड़ रखी थी, तानी=तनी,बंद,
बारी=बालियाँ, अरगज=अरगजा नामक सुगंध-द्रव्य
जिसका लेप किया जाता है, मरगज=मला-दला हुआ)

बिनय करै पदमावति बाला । सुधि न, सुराही पिएउ पियाला ॥
पिय-आयसु माथे पर लेऊँ । जो माँगै नइ नइ सिर देऊँ ॥
पै, पिय! बचन एक सुनु मोरा । चाखु, पिया! मधु थोरै थोरा ॥
पेम-सुरा सोई पै पिया । लखै न कोई कि काहू दिया ॥
चुवा दाख-मधु जो एक बारा । दूसरि बार लेत बेसँभारा ॥
एक बार जो पी कै रहा । सुख-जीवन, सुख-भोजन लहा ॥
पान फूल रस रंग करीजै । अधर अधर सौं चाखा कीजै ॥

जो तुम चाहौ सौ करौ, ना जानौ भल मंद ।
जो भालै सो होइ मोहिं तुम्ह, पिउ! चहौं अनंद ॥34॥

(नइ=नवाकर)

सुनु, धनि! प्रेम-सुरा के पिए । मरन जियन डर रहै न हिए ॥
जेहि मद तेहि कहाँ संसारा । को सो घूमि रह, की मतवारा ॥
सो पै जान पियै जो कोई । पी न अघाइ, जाइ परि सोई ॥
जा कहँ होइ बार एक लाहा । रहै न ओहि बिनु, ओही चाहा ॥
अरथ दरब सो देइ बहाई । की सब जाहु, न जाइ पियाई ॥
रातिहु दुवस रहै रस-भीजा । लाभन देख, न देखै छीजा ॥
भोर होत तब पलुह सरीरू । पाव कूमारी सीतल नीरू ॥

एक बार भरि पियाला, बार-बार को माँग?।
मुहमद किमि न पुकारै ऐस दाँव जो खाँग? ॥35॥

(जाइ परि सोई=पड़कर सो जाता है, छीजा=क्षति,
हानि, पलुह=पनपता है, खाँग=कमी हुई)

भा बिहान ऊठा रवि साईं । चहुँ दिसि आईं नखत तराईं ॥
सब निसि सेज मिला ससि सूरू । हार चीर बलया भए चूरू ॥
सो धनि पान, चून भइ चोली । रग-रँघीलि निरग भइ भोली ॥
जागत रैनि भएउ भिनसारा । भई अलस सावत बेकरारा ॥
अलक सुरंगिनि हिरदय परी । नारंग छुव नागिनि बिष-भरी ॥
लरी मुरी हिय-हार लपेटी । सुरसरि जनु कालिंदी भेंटी ॥
जनु पयाग अरइल बिच मिली । सोमित बेनी रोमावली ॥

नाभी लाभु पुन्नि कै कासीकुंड कहाव ।
देवता करहिं कलप सिर आपुहि दोष न लाव ॥36॥

(रवि=सूर्य और रत्नसेन, साईं=स्वामी, नखत तराईं=
सखियाँ, बलया=चूड़ी, पान=पके पान सी सफेद या
पीली, चून=चूर्ण, निरँग=विवर्ण,बदरंग, आलस=
आलस्य-युक्त, छुव=छूती है, लरी मुरी=बाल की
काली लटें मोतियों के हार से लिपटकर उलझीं,
नाभी लाभु….लाव=नाभि पुण्य लाभ करके
काशीकुंड कहलाती है इसी से देवता लोग उस
पर सिर काटकर मरते हैं पर उसे दोष नहीं
लगता)

बिहँसि जगावहिं सखी सयानी । सूर उठा, उठु पदमिनि रानी! ॥
सुनत सूर जनु कँवल बिगासा । मधुकर आइ लीन्ह मधु बासा ॥
जनहुँ माति निसयानी बसी । अति बेसँभार फूलि जनु अरसी ॥
नैन कवँल जानहुँ दुइ फूले । चितवन मोहि मिरिग जनु भूले ॥
तन न सँभार केस औ चोली । चित अचेत जनु बाउरि भोली ॥
भइ ससि हीन गहन अस गही । बिथुरे नखत, सेज भरि रही ॥
कँवल माँह जनु केसरि दीठी । जोबन हुत सो गँवाइ बईठी ॥

बेलि जो राखी इंद्र कहँ पवन बास नहिं दीन्ह ।
लागेउ आइ भौंर तेहि, कली बेधि रस लीन्ह ॥37॥

(सुनत सूर…मधुबासा=कमल खिला अर्थात् नेत्र
खुले और भौंरे मधु और सुगंध लेने बैठे अर्थात्
काली पुतलियाँ दिखाई पड़ीं, निसयानीं=सुध-बुध
खोए हुए, बिथुरे नखत=आभूषण इधर-उधर
बिखरे हैं)

हँसि हँसि पूछहिं सखी सरेखी । मानहुँ कुमुद चंद्र-मुख देखी ॥
रानी! तुम ऐसी सुकुमारा । फूल बास तन जीव तुम्हारा ॥
सहि नहिं सकहु हिये पर हारू । कैसे सहिउ कंत कर भारू?॥
मुख-अंबुज बिगसे दिन राती । सो कुँभिलान कहहु केहि भाँती?॥
अधर-कँवल जो सहा न पानू । कैसे सहा लाग मुख भानू?॥
लंक जो पैग देत मुरि जाई । कैसे रही जौ रावन राई?॥
चंदन चोव पवन अस पीऊ । भइउ चित्र सम, कस भा जीऊ?॥

सब अरगज मरगज भयउ, लोचन बिंब सरोज ।
`सत्य कहहु पद्मावति’ सखी परीं सब खोज ॥38॥

(सरेखी=सयानी,चतुर, फूल बास…तुम्हारा=फूल
शरीर और बास जीव, रावन=रमण करनेवाला,
रावण, खोज परीं=पीछे पड़ी)

कहौं, सखी! आपस सतभाऊ । हौं जो कहति कस रावन राऊ ॥
काँपी भौंर पुहुप पर देखे । जनु ससि गहन तैस मोहिं लेखे
आजु मरम मैं जाना सोई । जस पियार पिउ और न कोई ॥
डर तौ लगि हिय मिला न पीऊ । भानु के दिस्टि छूटि गा सीऊ ॥
जत खन भानु कीन्ह परगासू । कँवल-कली मन कीन्ह बिगासू ॥
हिये छोह उपना औ सीऊ । पिउ न रिसाउ लेउ बरु जीऊ ॥
हुत जो अपार बिरह-दुख दूखा । जनहुँ अगस्त-उदय जल सूखा ॥

हौं रँग बहुतै आनति, लहरै जैस समुंद ।
पै पिउ कै चतुराई खसेऊ न एकौ बुंद ॥39॥

(मोहिं लेखे=मेरे हिसाब से,मेरी समझ में, दूखा=नष्ट
हुआ, खसेउ=गिरा)

करि सिंगार तापहँ का जाऊँ । ओही देखहुँ ठावहिं ठाँऊँ ॥
जौ जिउ महँ तौ उहै पियारा । तन मन सौं नहिं होइ निनारा ॥
नैन माँह है उहै समाना । देखौ तहाँ नाहिं कोउ आना ॥
आपन रस आपुहि पै लेई । अधर सोइ लागे रस देई ॥
हिया थार कुच कंचन लाडू । अगमन भेंट दीन्ह कै चाँडू ॥
हुलसी लंक लंक सौं लसी । रावन रहसि कसौटी कसी ॥
जोबन सबै मिला ओहि जाई । हौं रे बीच हुँत गइउँ हेराई ॥

जस किछु देइ धरै कहँ, आपन लेइ सँभारि ।
रसहि गारि तस लीन्हेसि, कीन्हेसि मोहि ठँठारि ॥40॥

(चाँडू=चाह, जस किछु देइ धरै कहँ=जैसे वस्तु धरोहर
रखे और फिर उसे सहेज कर ले ले, ठँठारि=खुक्ख)

अनु रे छबीली! तोहि छबि लागी । नैन गुलाल कंत सँग जागी ॥
चंप सुदरसन अस भा सोई । सोनजरद जस केसर होई ॥
बैठ भौंर कुच नारँग बारी । लागे नख, उछरीं रँग-धारी ॥
अधर अधर सों भीज तमोरा । अलकाउर मुरि मुरि गा तोरा ॥
रायमुनी तुम औ रत मुहीं । अलिमुख लागि भई फुलचुहीं ॥
जैस सिंगार हार सौं मिली । मालति ऐसि सदा रहु खिली ॥
पुनि सिंगार करू कला नेवारी । कदम सेवती बैठु पियारी ॥

कुंद कली सम बिगसी ऋतु बसंत औ फाग ।
फूलहु फरहु सदा सुख औ सुखसुफल सोहाग ॥41॥

(चंप सुदरसन…होई=तेरा वह सुंदर चंपा का सा रंग
जर्द चमेली सा पीला हो गया है, उछरीं=पड़ी हुई दिखाई
पड़ीं, धारी=रखा, तमोरा=तांबूल, अलकाउर=अलकावलि,
तोरा=तेरा, रायमुनी=एक छोटी सुंदर चिड़िया, रतमुहीं=
लाल मुँह वाली, फुलचुहीं=फुलसुँघनी नाम की छोटी
चिड़िया, सिंगार हार=सिंगार को अस्त-व्यस्त
करनेवाला नायक, परजाता फूल, कला=नकलबाजी,
बहाना (अवधी), नेवारी=दूर कर,एक फूल, कदम
सेवती=चरणों की सेवा करती हुई,कदंब व सेवती फूल)

कहि यह बात सखी सब धाईं । चंपावति पहँ जाइ सुनाई ॥
आजु निरँग पद्मावती बारी । जीवन जानहुँ पवन-अधारी ॥
तरकि तरकि गइ चंदन चोली । धरकि धरकि हिय उठै न बोली ॥
अही जौ कली-कँवल रसपूरी । चूर चूर होइ गईं सो चूरी ॥
देखहु जाइ जैसि कुभिलानी । सुनि सोहाग रानी विहँसानी ॥
सेइ सँग सबही पदमिनी नारी । आई जहँ पदमावति बारी ॥
आइ रूप सो सबही देखा । सोन-बरन होइ रही सो रेखा ॥

कुसुम फूल जस मरदै, निरँग देख सब अंग ।
चंपावति भइ बारी, चूम केस औ मंग ॥42॥

(निरंग=विवर्ण,बदरंग, पवन अधारी=इतनी सुकुमार है
कि पवनही के आधार पर मानो जीवन है, अही=थी,
वारी भइ=निछावरि हुई, मंग=माँग)

सब रनिवास बैठ चहुँ पासा । ससि-मंडल जनु बैठ अकासा ॥
बोलीं सबै “बारि कुँभिलानी । करहु सँभार, देहु खँडवानी ॥
कँवल कली कोमल रँग-भीनी । अति सुकुमारि. लंक कै छीनी ॥
चाँद जैस धनि हुत परगासा । सहस करा होइ सूर बिगासा ॥
तेहिके झार गहन अस गही । भइ निरंग, मुख-जोति न रही ॥
दरब वारि किछु पुन्नि करेहू । औ तेहि लेइ सन्यासिहि देहू ॥
भरि कै थार नखत गजमोती । बारा कीन्ह चंद कै जोती ॥

कीन्ह अरगजा मरदन औ सखि कीन्ह नहानु ।
पुनि भइ चौदसि चाँद सो रूप गएउ ठपि भानु ॥43॥

(झार=ज्वाला,तेज, वारि=निछावर करके, वारा कीन्ह=
चारों ओर घुमाकर उत्सर्ग किया)

पुनि बहु चीर आन सब छोरी । सारी कंचुकि लहर=पटोरी ॥
फुँदिया और कसनिया राती । छायल बँद लाए गुजराती ॥
चिकवा चीर मघौना लोने । मोति लाग औ छापे सोने ॥
सुरंग चीर भल सिंघलदीपी । कीन्ह जो छापा धनि वह छीपी ॥
पेमचा डरिया औ चौधारी । साम, सेत पीयर, हरियारी ॥
सात रंग औ चित्र चितेरे । भारि कै दीठि जाहिं नहीं हेरे ॥
चँदनौता औ खरदुक भारी । बाँसपूर झिलमिल कै सारी ॥

पुनि अभरन बहु काढ़ा, अनबन भोति जराव ।
हेरि फेरि निति पहिरै, जब जैसे मन भाव ॥44॥

(लहर-पटोरी=पुरानी चाल का रेशमी लहरिया कपड़ा,
फुँदिया=नीवी या इजारबंद के फुलरे, कसनिया=कसनी,
एक प्रकार की अँगिया, छायल=एक प्रकार की कुरती,
चिकवा=चिकट नाम का रेशमी कपड़ा, मघोना=
मेघवर्ण अर्थात् नील का रँगा कपड़ा, पेमचा=एक
प्रकार का कपड़ा, चौधारी=चारखाना, हरियारी=हरी,
चितेरे=चित्रित, चँद नौता=एक प्रकार का लहँगा,
खरदुक=कोई पहनावा, बाँसपूर=ढाके की बहुत
महीन तंजेब जिसका थान बाँस की पतली नली
में आ जाता था, झिलमिल=एक बारीक कपड़ा,
अनबन=अनेक)

लेखक

  • मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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पद्मावती-रत्नसेन-भेंट-खंड-27 पद्मावत/जायसी

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