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पद्मावती-नागमती-सती-खंड-57 पद्मावत/जायसी

पदमावति पुनि पहिरि पटोरी । चली साथ पिउ के होइ जोरी ॥
सूरुज छपा, रैनि होइ गई । पूनो-ससि सो अमावस भई ॥
छोरे केस, मोति लर छूटीं । जानहुँ रैनि नखत सब टूटीं ॥
सेंदुर परा जो सीस अघारा । आगि लागि चह जग अँधियारा ॥
यही दिवस हौं चाहति, नाहा । चलौं साथ, पिउ! देइ गलबाहाँ ॥
सारस पंखि न जियै निनारे । हौं तुम्ह बिनु का जिऔं, पियारे ॥
नेवछावरि कै तन छहरावौं । छार होउँ सँग, बहुरि न आवौं ॥

दीपक प्रीति पतँग जेउँ जनम निबाह करेउँ ।
नेवछावरि चहुँ पास होइ कंठ लागि जिउ देउँ ॥1॥

(आगि लागि …अँधियार=काले बालों के बीच लाल सिंदूर
मानो यह सूचित करता था कि अँधेरे संसार में आग लगा
चाहती है, छहराऊँ=छितराऊँ)

नागमती पदमावति रानी । दुवौ महा सत सती बखानी ॥
दुवौ सवति चढ़ि खाट बईठीं । औ सिवलोक परा तिन्ह दीठी ॥
बैठौ कोइ राज औ पाटा । अंत सबै बैठे पुनि खाटा ॥
चंदन अगर काठ सर साजा । औ गति देइ चले लेइ राजा ॥
बाजन बाजहिं होइ अगूता । दुवौ कंत लेइ चाहहिं सूता ॥
एक जो बाजा भएउ बियाहू । अब दुसरे होइ ओर-निबाहू ॥
जियत जो जरै कंत के आसा । मुएँ रहसि बैठे एक पासा ॥

आजु सूर दिन अथवा, आजु रेनि ससि बूड़ ।
आजु नाचि जिउ दीजिय, आजु आगि हम्ह जूड़ ॥2॥

(महासत=सत्य में तिन्ह दीठि परा=उन्हें दिखाई पड़ा,
बैठी चाहे बैठे, खाटा=अर्थी, टिकठी, अगूता होइ=आगे
होकर, सूता चहहिं=सोना चाहती हैं, बाजा=बाजे से, ओर
निबाहू=अंत का निर्वाह, रहसि=प्रसन्न होकर, बूड़=डूबा,
हम्ह=हमें हमारे लिये, जूड़=ठंढी)

सर रचि दान पुन्नि बहु कीन्हा । सात बार फिरि भाँवरि लीन्हा ॥
एक जो भाँवरि भईं बियाही । अब दुसरे होइ गोहन जाहीं ॥
जियत, कंत! तुम हम्ह गर लाई । मुए कंठ नहिं छोडंहिं,साईं!
औ जो गाँठि, कंत! तुम्ह जोरी । आदि अंत लहि जाइ न छोरी ।
यह जग काह जो अछहि न आथी । हम तुम, नाह! दुहुँ जग साथी ॥
लेइ सर ऊपर खाट बिछाई । पौंढ़ी दुवौ कंत गर लाई ॥
लागीं कंठ आगि देइ होरी । छार भईं जरि, अंग न मोरी ॥

रातीं पिउ के नेह गइँ, सरग भएउ रतनार ।
जो रे उवा, सो अथवा; रहा न कोइ संसार ॥3॥

(सर=चिता, गोहन=साथ, हम्ह गर लाई=हमें गले लगाया,
अंत लहि=अंत तक, अछहि=है, आथी=सार;पूँजी,अस्तित्व,
अछहि न आथी,जो स्थिर या सारवान् नहीं, रतनार=लाल,
प्रेममय या आभापूर्ण)

वै सहगवन भईं जब जाई । बादसाह गड़ छेंका आई ॥
तौ लगि सो अवसर होइ बीता । भए अलोप राम औ सीता ॥
आइ साह जो सुना अखारा । होइगा राति दिवस उजियारा ॥
छार उठाइ लीन्ह एक मूठी । दीन्ह उड़ाइ, पिरथिमी झूठी ॥
सगरिउ कटक उठाई माटी । पुल बाँधा जहँ जहँ गढ़-घाटी ॥
जौ लहि ऊपर छार न परै । तौ लहि यह तिस्ना नहिं मरै ॥
भा धावा, भइ जूझ असूझा । बादल आइ पँवरि पर जूझा ॥

जौहर भइ सब इस्तरी, पुरुष भए संग्राम ।
बादसाह गढ़ चूरा, चितउर भा इसलाम ॥4॥

(सहगवन भईं=पति के साथ सहगमन किया,सती हुई, तौ
लगि…बीता=तब तक तो वहाँ सब कुछ हो चुका था, अखारा=
अखाड़े, या सभा में,दरबार में, गढ़ घाटी=गढ़ की खाईं, पुल
बाँधा…घाटी=सती स्त्रियों एक मुट्ठी राख इतनी हो गई कि
उसने जगह जगह खाईं पट गई और पुल सा बँध गया,
जौ लहि=जबतक, तिस्ना=तृष्णा, जौहर भइँ=राजपूत प्रथा
के अनुसार जल मरीं, संग्राम भए=खेत रहे, लड़कर मरे,
चितउर भा इसलाम=चित्तौरगढ़ में भी मुसलमानी
अमलदारी हो गई)

लेखक

  • मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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