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नागमती-सुवा-संवाद-खंड-8 पद्मावत/जायसी

दिन दस पाँच तहाँ जो भए । राजा कतहुँ अहेरै गए ॥
नागमती रूपवंती रानी । सब रनिवास पाट-परधानी ॥
कै सिंगार कर दरपन लीन्हा । दरसन देखि गरब जिउ कीन्हा ॥
बोलहु सुआ पियारे-नाहाँ । मोरे रूप कोइ जग माहाँ?॥
हँसत सुआ पहँ आइ सो नारी । दीन्ह कसौटी ओपनिवारी ॥
सुआ बानि कसि कहु कस सोना । सिंघलदीप तोर कस लोना?॥
कौन रुप तोरी रुपमनी । दहुँ हौं लोनि, कि वै पदमिनी?॥

जो न कहसि सत सुअटा तेहि राजा कै आन ।
है कोई एहि जगत महँ मोरे रूप समान ॥1॥

(ओपनिवारी=चमकानेवाली, बानि=वर्ण, कसि=कसौटी
पर कसकर, लोनी=लावण्यमयी,सुंदरी, आन=शपथ,कसम)

सुमिरि रूप पदमावति केरा । हँसा सुआ, रानी मुख हेरा ॥
जेहि सरवर महँ हंस न आवा । बगुला तेहि सरस हंस कहावा ॥
दई कीन्ह अस जगत अनूपा । एक एक तें आगरि रूपा ॥
कै मन गरब न छाजा काहू । चाँद घटा औ लागेउ राहू ॥
लोनि बिलोनि तहाँ को कहै । लोनी सोई कंत जेहि चहै ॥
का पूछहु सिंघल कै नारी । दिनहिं न पूजै निसि अँधियारी ॥
पुहुप सुवास सो तिन्ह कै काया । जहाँ माथ का बरनौं पाया?॥

गढ़ी सो सोने सोंधे, भरी सो रूपै भाग ।
सुनत रूखि भइ रानी, हिये लोन अस लाग ॥2॥

(सौंधे=सुगंध से)

जौ यह सुआ मँदिर महँ अहई । कबहुँ बात राजा सौं कहई ॥
सुनि राजा पुनि होइ वियोगी । छाँड़ै राज, चलै होइ जोगी ॥
बिख राखिय नहिं, होइ अँकूरू । सबद न देइ भोर तमचूरू ॥
धाय दामिनी बेगि हँकारी । ओहि सौंपा हीये रिस भारी ॥
देखु सुआ यह है मँदचाला । भएउ न ताकर जाकर पाला ॥
मुख कह आन, पेट बस आना । तेहि औगुन दस हाट बिकाना ॥
पंखि न राखिय होइ कुभाखी । लेइ तहँ मारू जहाँ नहिं साखी ॥

जेहि दिन कहँ मैं डरति हौं, रैनि छपावौं सूर ।
लै चह-दीन्ह कवँल कहँ, मोकहँ होइ मयूर ॥3॥

(तमचूर=ताम्रचूड,मुर्गा, धाय=दाई,धात्री, दामिनी=दासी
का नाम, मयूर=मोर,मोर नाग का शत्रु है, नागमती के
वाक्य से शुक के शत्रु होने की ध्वनि निकलती है,
`कमल’ में पद्मावती की ध्वनि है)

धाय सुआ लेइ मारै गई । समुझि गियान हिये मति भई ॥
सुआ सो राजा कर बिसरामी । मारि न जाइ चहै जेहि स्वामी ॥
यह पंडित खंडित बैरागू । दोष ताहि जेहि सूझ न आगू ॥
जो तिरिया के काज न जाना । परै धोख, पाछे पछिताना ॥
नागमति नागिनि-बुधि ताऊ । सुआ मयूर होइ नहिं काऊ ॥
जौ न कंत के आयसु माहीं । कौन भरोस नारि कै वाही?॥
मकु यह खोज निसि आए । तुरय-रोग हरि-माथे जाए ॥

दुइ सो छपाए ना छपै एक हत्या एक पाप ।
अंतहि करहिं बिनास लेइ, सेइ साखी देइँ आप ॥4॥

(बिसरामी=मनोरंजन की वस्तु, खंडित बैरागू=बैराग्य
में चूक गया,इससे तोते का जन्म पाया, काऊ=कभी,
मकु=शायद,कदाचित, तुरय=तुरग,घोड़ा, ताऊ=उसकी,
हरि=बंदर, तुरय…जाए=कहते हैं कि घुड़साल में बंदर
रखने से घोड़े नीरोग रहते हैं, उनका रोग बंदर पर
जाता है, सेइ=वे ही,हत्या और पाप ही)

राखा सुआ, धाय मति साजा । भएउ कौज निसि आएउ राजा ॥
रानी उतर मान सौं दीन्हा । पंडित सुआ मजारी लीन्हा ॥
मैं पूछा सिंघल पदमिनी । उतर दीन्ह तुम्ह, को नागिनी?॥
वह जस दिन, तुम निसि अँधियारी । कहाँ बसंत; करील क बारी ॥
का तोर पुरुष रैनि कर राऊ । उलू न जान दिवस कर भाऊ ॥
का वह पंखि कूट मुँह कूटे । अस बड़ बोल जीभ मुख छोटे ॥
जहर चुवै जो जो कह बाता । अस हतियार लिए मुख राता ॥

माथे नहिं बैसारिय जौ सुठि सुआ सलोन ।
कान टुटैं जेहि पहिरे का लेइ करब सो सोन?॥5॥

(कूट=कालकूट,विष, कूटे=कूट कूटकर भरे हुए,
बैसारिये=बैठाइए)

राजै सुनि वियोग तस माना । जैसे हिय विक्रम पछिताना ॥
बह हीरामन पंडित सूआ । जो बोलै मुख अमृत चूआ ॥
पंडित तुम्ह खंडित निरदोखा । पंडित हुतें परै नहिं धोखा ॥
पंडित केरि जीभ मुख सूधी । पंडित बात न कहै बिरूधी ॥
पंडित सुमति देइ पथ लावा । जो कुपंथि तेहि पँडित न भावा ॥
पंडित राता बदन सरेखा । जो हत्यार रुहिर सो देखा ॥
की परान घट आनहु मती। की चलि होहु सुआ सँग सती ॥

जिनि जानहु कै औगुन मँदिर सोइ सुखराज ।
आयसु मेटें कंत कर काकर भा न अकाज?॥6॥

(तुम्ह खंडित=तुमने खंडित या नष्ट किया, सरेख=सज्ञान,
चतुर, मती=विचार करके)

चाँद जैस धनि उजियारि अही । भा पिउ-रोस, गहन अस गही ॥
परम सोहाग निबाहि न पारी । भा दोहाग सेवा जब हारी ॥
एतनिक दोस बिरचि पिउ रूठा । जो पिउ आपन कहै सो झूठा ॥
ऐसे गरब न भूलै कोई । जेहि डर बहुत पियारी सोई ॥
रानी आइ धाय के पासा । सुआ मुआ सेवँर कै आसा ॥
परा प्रीति-कंचन महँ सीसा । बिहरि न मिलै, स्याम पै दीसा ॥
कहाँ सोनार पास जेहि जाऊँ । देइ सोहाग करै एक ठाऊँ ॥

मैं पिउ -प्रीति भरोसे गरब कीन्ह जिउ माँह ।
तेहि रिस हौं परहेली, रूसेउ नागर नाहँ ॥7॥

(दोहाग=दुर्भाग्य, विरचि=अनुरक्त होकर, देइ सोहाग=
(क) सौभाग्य, (ख) सोहागा दे, परहेली=अवहेलना की,
बेपरवाही की)

उतर धाय तब दीन्ह रिसाई । रिस आपुहि, बुधि औरहि खाई ॥
मैं जो कहा रिस जिनि करु बाला । को न गयउ एहि रिस कर घाला?॥
तू रिसभरी न देखेसि आगू । रिस महँ काकर भयउ सोहागू?॥
जेहि रिस तेहि रस जोगे न जाई । बिनु रस हरदि होइ पियराई ॥
बिरसि बिरोध रिसहि पै होई । रिस मारै, तेहि मार न कोई ॥
जेहि रिस कै मरिए, रस जीजै । सो रस तजि रिस कबहुँ न कीजै ॥
कंत-सोहाग कि पाइय साधा । पावै सोइ जो ओहि चित बाँधा ॥

रहै जो पिय के आयसु औ बरतै होइ हीन ।
सोइ चाँद अस निरमल, जनम न होइ मलीन ॥8॥

(आगू=आगम,परिणाम, जोग न जाई=रक्षा नहीं किया
जाता, बिरस=अनबन, साधा=साध या लालसा मात्र से,
हीन=दीन,नम्र)

जुआ-हारि समुझी मन रानी । सुआ दीन्ह राजा कहुँ आनी ॥
मानु पीय! हौं गरब न कीन्हा । कंत तुम्हार मरम मैं लीन्हा ॥
सेवा करै जो बरहौ मासा । एतनिक औगुन करहु बिनासा ॥
जौं तुम्ह देइ नाइ कै गीवा । छाँड़हुँ नहिं बिनु मारे जीवा ॥
मिलतहु महँ जनु अहौ निनारे । तुम्ह सौं अहै अदेस, पियारे!॥
मैं जानेउँ तुम्ह मोही माहाँ । देखौं ताकि तौ हौ सब पाहाँ ॥
का रानी, का चेरी कोई । जा कहँ मया करहु भल सोई ॥

तुम्ह सौं कोइ न जीता, हारे बररुचि भोज ।
पहिलै आपु जो खोवै करै तुम्हार सो खोज ॥9॥

लेखक

  • जायसी

    मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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