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नागमती-पद्मावती-विवाद-खंड-36 पद्मावत/जायसी

जाही जूही तेहि फुलवारी । देखि रहस रहि सकी न बारी ॥
दूतिन्ह बात न हिये समानी । पदमावति पहँ कहा सो आनी ॥
नागमती है आपनि बारी । भँवर मिला रस करै धमारी ॥
सखी साथ सब रहसहिं कूदहिं । औ सिंगार-हार सब गूँथहिं ॥
तुम जो बकावरि तुम्ह सौं भर ना । बकुचन गहै चहै जो करना ॥
नागमती नागेसरि नारी । कँवल न आछे आपनि बारी ॥
जस सेवतीं गुलाल चमेली । तैसि एक जनु वहू अकेली ॥

अलि जो सुदरसन कूजा , कित सदबरगै जोग?
मिला भँवर नागेसरिहि , दीन्ह ओहि सुख-भोग ॥1॥

(धमारी करै=होली की सी धमार या क्रीड़ा करता है,
तुम जो बकावरि …भर ना=तुम जो बकावली फूल हो
क्या तुमसे राजा का जी नहीं भरता? बकुचन गहे…
करना=जो वह करना फूल को पकड़ना या आलिंगन
करना चाहता है, नागेसरि=नागकेसर, कँवल न….
आपनि बारी=कँवल (पद्मावती) अपनी बारी या घर
में नहीं है अर्थात् घर नागमती का जान पड़ता है,
जस सेवतीं..चमेली=जैसे सेवती और गुलाला आदि
(स्त्रियाँ) नागमती की सेवा करती हैं वैसे ही एक
पद्मिनी भी है, अलि जो ….सदबरगै जोग=जो भँवरा
सुदरसन फूल पर गूँजेगा वह सदबर्ग (गेंदा) के
योग्य कैसे रह जायगा?)

सुनि पदमावति रिस न सँभारी । सखिन्ह साथ आई फुलवारी ॥
दुवौ सवति मिलि पाट बईठी । हिय विरोध, मुख बातैं मीठी ॥
बारी दिस्टि सुरंग सो आई । पदमावति हँसि बात चलाई ॥
बारी सुफल अहैं तुम रानी । है लाई, पै लाइ न जानी ॥
नागेसर औ मालति जहाँ । सँगतराव नहिं चाही तहाँ ॥
रहा जो मधुकर कँवल-पिरीता । लाइउ आनि करीलहि रीता ॥
जह अमिलीं पाकै हिय माहाँ । तहँ न भाव नौरँग कै छाहाँ ॥

फूल फूल जस फर जहाँ , देखहु हिये बिचारि ।
आँब लाग जेहि बारी जाँबु काह तेहि बारि? ॥2॥

(संगतराव=सँगतरा नीबू;संगत राव,राजा का साथ,
अमिलीं=इमली;न मिली हुई;विरहिणी, नौरँग=नारंगी;
नए आमोद-प्रमोद )

अनु, तुम कही नीक यह सोभा । पै फल सोइ भँवर जेहि लोभा ॥
साम जाँबु कस्तूरी चोवा । आँब ऊँच, हिरदय तेहि रोवाँ ॥
तेहि गुन अस भइ जाँबु पियारी । लाई आनि माँझ कै बारी ॥
जल बाढ़े बहि इहाँ जो आई । है पाकी अमिली जेहि ठाईं ॥
तुँ कस पराई बारी दूखी । तजा पानि, धाई मुँह-सूखी ॥
उठै आगि दुइ डार अभेरा । कौन साथ तहँ बैरी केरा ॥
जो देखी नागेसर बारी । लगे मरै सब सूआ सारी ॥

जो सरवर-जल बाढ़ै रहै सो अपने ठाँव ।
तजि कै सर औ कुंडहि जाइ न पर-अंबराव ॥3॥

(अनु=और, तजा पाकि=सरोवर का जल छोड़ा, अभेरा=भिड़ंत,
रगड़ा, सारी=सारिका,मैना, सरवर-जल=सरोवर के जल में,
बाढ़ै=बढ़ता है?)

तुइँ अँबराव लीन्हा का जूरी?। काहे भई नीम विष-मूरी ॥
भई बैरि कित कुटिल कटेली । तेंदू टेंटी चाहि कसेली ॥
दारिउँ दाख न तोरि फुलवारी । देखि मरहिं का सूआ सारी?॥
औ न सदाफर तुरँज जँभीरा । लागे कटहर बडहर खीरा ॥
कँवल के हिरदय भीतर केसर । तेहि न सरि पूजै नागेसर ॥
जहँ कटहर ऊमर को पूछै?। बर पीपर का बोलहिं छूँछै ॥
जो फल देखा सोई फीका । गरब न करहिं जानि मन नीका ॥

रहु आपनि तू बारी, मोसौं जूझु, न बाजु ।
मालति उपम न पूजै वन कर खूझा खाजु ॥4॥

(तुइँ अँबराव…जूरी=तूने अपने अमराव में इकट्ठा ही क्या
किया है? ऊमर=गूलर, न बाजु=न लड़, खूझा खाजु=खर
पतवार, नीरस फल)

जो कटहर बडहर झड़बेरी । तोहि असि नाहीं, कोकाबेरी! ॥
साम जाँबु मोर तुरँज जँभीरा । करुई नीम तौ छाँह गँभीरा ॥
नरियर दाख ओहि कहँ राखौं । गलगल जाउँ सवति नहिं भाखौं ॥
तोरे कहे होइ मोरर काहा?। फरे बिरिछ कोइ ढेल न बाहा ॥
नवैं सदाफर सदा जो फरई । दारिउँ देखि फाटि हिय मरई ॥
जयफर लौंग सोपारि छोहारा । मिरिच होइ जो सहै न झारा ॥
हौं सो पान रंग पूज न कोई । बिरह जो जरै चून जरि होई ॥

लाजहिं बूड़ि मरसि नहिं,, उभि उठावसि बाँह ।
हौं रानी, पिय राजा; तो कहँ जोगी नाह ॥5॥

(झड़बेरी=झड़बेर,जंगली बेर, कोकाबेरी=कमलिनी, गल गल
जाउ=चाहे गल जाऊँ;गलगल नीबू, सवति नहिं भाखौं=
सपत्नी का नाम न लूँ, कोइ ढेल न बाहा=कोई ढेला
न फेंके (उससे क्या होता है) ऊभी=उठाकर)

हौं पदमिनि मानसर केवा । भँवर मराल करहिं मोरि सेवा ॥
पूजा-जोग दई हम्म गढ़ी । और महेस के माथे चढ़ी ॥
जानै जगत कँवल कै करी । तोहि अस नहिं नागिनि बिष-भरी ॥
तुइँ सब लिए जगत के नागा । कोइल भेस न छाँडेसि कागा ॥
तू भुजइल, हौं हँसिनि भोरी । मोहि तोहि मोति पोति कै जोरी ॥
कंचन-करी रतन नग बाना । जहाँ पदारथ सोह न आना ॥
तू तौ राहु, हौं ससि उजियारी । दिनहि न पूजै निसि अँधियारी ॥

ठाढ़ि होसि जेहि ठाईं मसि लागै तेहि ठाव ।
तेहि डर राँध न बैठौं मकु साँवरि होइ जाव ॥6॥

(केवा=कमल, कागा=कौवापन, भुजइल=भुजंगा पक्षी, पोत=काँच
या पत्थर की गुरिया, मसि=स्याही, राँध=पास,समीप)

कँवल सो कौन सोपारी रोठा । जेहि के हिये सहस दस कोठा ॥
रहै न झाँपै आपन गटा । सो कित उघेलि चहै परगटा ॥
कँवल-पत्र तर दारिउँ, चोली । देखे सूर देसि है खोली ॥
ऊपर राता, भीतर पियरा । जारौं ओहि हरदि अस हियरा ॥
इहाँ भँवर मुख बातन्ह लावसि । उहाँ सुरुज कह हँसि बहरावसि ॥
सब निसि तपि तपि मरसि पियासी । भोर भए पावसि पिय बासी ॥
सेजवाँ रोइ रोइ निसि भरसी । तू मोसौं का सरवरि करसी?॥

सुरुज-किरन बहरावै, सरवर लहरि न पूज ।
भँवर हिया तोर पावै, धूप देह तोरि भूँज ॥7॥

(रोठा=रोड़ा,टुकड़ा, जेहि के हिये..कोठा=कँवल गट्टे के भीतर
बहुत से बीज कोष होते हैं, गटा=कँवलगट्टा, उघेलि=खोलकर,
दारिउँ=अनार के समान कँवलगट्टा जो तेरा स्तन है, निसि
भरसी=रात बिताती है तू, करसी=तू करती है, सरवर…पूज=
ताल की लहर उसके पास तक नहीं पहुँचती;वह जल के
ऊपर उठा रहता है, भूँज=भूनती है)

मैं हौं कँवल सुरुज कै जोरी । जौ पिय आपन तौ का चोरी?॥
हौं ओहि आपन दरपन लेखौं । करौं सिंगार, भोर मुख देखौं ॥
मोर बिगास ओहिक परगासू । तू जरि मरसि निहारि अकासू ॥
हौं ओहि सौं, वह मोसौं राता । तिमिर बिलाइ होत परभाता ॥
कँवल के हिरदय महँ जो गटा । हरि हर हार कीन्ह, का घटा?॥
जाकर दिवस तेहि पहँ आवा । कारि रैनि कित देखै पावा?॥
तू ऊमर जेहि भीतर माखी । चाहहिं उड़ै मरन के पाँखी ॥

धूप न देखहि, बिषभरी! अमृत सो सर पाव ।
जेहि नागनि डस सो मरै, लहरि सुरुज कै आव ॥8॥

(हरि हर हार कीन्ह=कमल की माला विष्णु और शिव
पहनते हैं, मरन के पाँखी=कीड़ों को जो पंख अंत समय
में निकलते हैं)

फूल न कँवल भानु बिनु ऊए । पानी मैल होइ जरि छूए ॥
फिरहिं भँवर तारे नयनाहाँ । नीर बिसाइँध होइ तोहि पाहाँ ॥
मच्छ कच्छ दादुर कर बासा । बग अस पंखि बसहिं तोहि पासा ॥
जे जे पंखि पास तोहि गए । पानी महँ सो बिसाइँध भए ॥
जौ उजियार चाँद होइ ऊआ । बदन कलंक डोम लेइ छूआ ॥
मोहि तोहि निसि दिन कर बीचू । राहु के साथ चाँद कै मीचू ॥
सहस बार जौ धोवै कोई । तौहु बिसाइँध जाइ न धोई ॥

काह कहौं ओहि पिय कहँ, मोहि सिर धरेसि अँगारि ।
तेहि के खेल भरोसे तुइ जीती, मैं हारि ॥9॥

(जरि=जड़,मून, डोम छूआ=प्रवाद है कि चंद्रमा डोमों के
ऋणी हैं वे जब घेरते हैं तब ग्रहण होता है)

तोर अकेल का जीतिउँ हारू । मैं जीतिउँ जग कर सिंगारू ॥
बदन जितिउँ सो ससि उजियारी । बेनी जितिउँ भुअंगिनि कारी ॥
नैनन्ह जितिउँ मिरिग के नैना । कंठ जितिउँ कोकिल के बैना ॥
भौंह जितिउँ अरजुन धनुधारी । गीउ जितिउँ तमचूर पुछारी ॥
नासिक जितिउँ पुहुप तिल, सूआ । सूक जितिउँ बेसरि होइ ऊआ ॥
दामिनि जितिउँ दसन दमकाहीं । अधर-रंग जीतिउँ बिंबाहीं ॥
केहरि जितिउँ, लंक मैं लीन्हीं । जितिउँ मराल, चाल वे दीन्ही ॥

पुहुप-बास मलयगिरि निरमल अंग बसाई ।
तू नागिनि आसा-लुबुध डससि काहु कहँ जाइ ॥10॥

(आसालुबुध=सुगंध की आशा से साँप चंदन में लिपटे रहते हैं)

का तोहिं गरब सिंगार पराए । अबहीं लैहिं लूट सब ठाएँ ॥
हौं साँवरि सलोन मोर नैना । सेत चीर, मुख चातक-बैना ॥
नासिक खरग, फूल धुव तारा । भौंहैं धनुक गगन गा हारा ॥
हीरा दसन सेत औ सामा । चपै बीजु जौ बिहँसै बामा ॥
बिद्रूम अधर रंग रस-राते । जूड़ अमिय अस, रबि नहिं ताते ॥
चाल गयंद गरब अति भारी । बसा लंक, नागेसर= करी ॥
साँवरि जहाँ लोनि सुठि नीकी । का सरवरि तू करसि जो फीकी ॥

पुहुप-बास औ पवन अधारी कँवल मोर तरहेल ।
चहौं केस धरि नावौं, तोर मरन मोर खेल ॥11॥

(सिंगार पराए=दूसरों से लिया सिंगार जैसा कि ऊपर कहा है,
जूड़ अमिय …ताते=उन अधरों में बालसूर्य की ललाई है पर वे
अमृत के समान शीतल हैं;गरम नहीं, नागेसर-करी=नागेसर फूल
की कली, तरहेल=नीचे पड़ा हुआ,अधीन)

पदमावति सुनि उतर न सही । नागमती नागिनि जिमि गही ॥
वह ओहि कहँ,वह ओहि कहँ गहा । काह कहौं तस जाइ न कहा ॥
दुवौ नवल भरि जोबन गाजैं । अछरी जनहुँ अखारे बाजैं ॥
भा बाहुँन बाहुँन सौं जोरा । हिय सौं हिय, कोइ बाग न मोरा ॥
कुच सों कुच भइ सौंहैं अनी । नवहिं न नाए, टूटहिं तनी ॥
कुंभस्थल जिमि गज मैमंता । दूवौ आइ भिरे चौदंता ॥
देवलोक देखत हुत ठाढ़े । लगे बान हिय, जाहिं न काढ़े ॥

जनहुँ दीन्ह ठगलाडू देखि आइ तस मीचु ।
रहा न कोइ धरहरिया करै दुहुन्ह महँ बीचु ॥12॥

(बाजैं=लड़ती हैं, बाग न मोरा=बाग नहीं मोड़ती,लड़ाई से
हटती नहीं, अनी=नोक, तनी=चोली के बंद, चौदंता=स्याम
देश का एक प्रकार का हाथी;थोड़ी अवस्था का उद्दंड पशु
(बैल, घोड़े आदि के लिये इस शब्द का प्रयोग होता है ),
ठगलाडू=ठगों के लड्डू जिन्हें खिलाकर वे मुसाफिरों को
बेहोश करते हैं, धरहरिया=झगड़ा छुड़ानेवाला, बीचु करै=
दोनों को अलग करे,झगड़ा मिटाए)

पवन स्रवन राजा के लागा । कहेसि लड़हिं पदमिनि औ नागा ॥
दूनौ सवति साम औ गोरी । मरहिं तौ कहँ पावसि असि जोरी ॥
चलि राजा आवा तेहि बारी । जरत बुझाई दूनौ नारी ॥
एक बार जेइ पिय मन बूझा । सो दुसरे सौं काहे क जूझा?॥
अस गियान मन आव न कोई । कबहुँ राति, कबहुँ दिन होई ॥
धूप छाँह दोउ पिय के रंगा । दूनौ मिली रहहिं एक संगा ॥
जूझ छाँड़ि अब बूझहु दोऊ । सेवा करहु सेव-फल होऊ ॥

गंग जमुन तुम नारि दोउ, लिखा मुहम्मद जोग ।
सेव करहु मिलि दूनौ तौ मानहु सुख भौग ॥13॥

अस कहि दूनौ नारि मनाई । बिहँसि दोउ तब कंठ लगाई ॥
लेइ दोउ संग मँदिर महँ आए । सोन-पलँग जहँ रहे बिछाए ॥
सीझी पाँच अमृत-जेवनारा । औ भोजन छप्पन परकारा ॥
हुलसीं सरस खजहजा खाई । भोग करत बिहँसी रहसाई ॥
सोन-मँदिर नगमति कहँ दीन्हा । रूप-मँदिर पदमावति लीन्हा ॥
मंदिर रतन रतन के खंभा । बैठा राज जोहारै सभा ॥
सभा सो सबै सुभर मन कहा । सोई अस जो गुरु भल कहा ॥

बहु सुगंध, बहु भौग सुख, कुरलहिं केलि कराहिं ।
दुहुँ सौं केलि नित मानै, रहस अनँद दिन जाहिं ॥14॥

लेखक

  • जायसी

    मलिक मुहम्मद जायसी हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं । वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। उनका जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है। सैयद अशरफ़ उनके गुरु थे और अमेठी नरेश उनके संरक्षक थे। उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है। इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।

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