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धरोहर

सतपुड़ा के जंगल/भवानी प्रसाद मिश्र

सतपुड़ा के घने जंगल नींद मे डूबे हुए-से, ऊँघते अनमने जंगल। झाड़ ऊँचे और नीचे, चुप खड़े हैं आँख मीचे, घास चुप है, कास चुप है मूक शाल, पलाश चुप है। बन सके तो धँसो इनमें, धँस न पाती हवा जिनमें, सतपुड़ा के घने जंगल ऊँघते अनमने जंगल। सड़े पत्ते, गले पत्ते, हरे पत्ते, जले […]

गीत-फ़रोश/भवानी प्रसाद मिश्र

गीत–फ़रोश जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ। मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ; मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत बेचता हूँ। जी, माल देखिए दाम बताऊँगा, बेकाम नहीं है, काम बताऊंगा; कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने, कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने; यह गीत, सख़्त सरदर्द भुलाएगा; यह गीत पिया को पास बुलाएगा। […]

घर की याद/भवानी प्रसाद मिश्र

आज पानी गिर रहा है, बहुत पानी गिर रहा है, रात भर गिरता रहा है, प्राण मन घिरता रहा है, अब सवेरा हो गया है, कब सवेरा हो गया है, ठीक से मैंने न जाना, बहुत सोकर सिर्फ़ माना— क्योंकि बादल की अँधेरी, है अभी तक भी घनेरी, अभी तक चुपचाप है सब, रातवाली छाप […]

सन्नाटा/भवानी प्रसाद मिश्र

तो पहले अपना नाम बता दूँ तुमको, फिर चुपके चुपके धाम बता दूँ तुमको तुम चौंक नहीं पड़ना, यदि धीमे धीमे मैं अपना कोई काम बता दूँ तुमको। कुछ लोग भ्रान्तिवश मुझे शान्ति कहते हैं, कुछ निस्तब्ध बताते हैं, कुछ चुप रहते हैं मैं शांत नहीं निस्तब्ध नहीं, फिर क्या हूँ मैं मौन नहीं हूँ, […]

गीत-फ़रोश (काव्य संग्रह)/भवानी प्रसाद मिश्र

कवि क़लम अपनी साध, और मन की बात बिलकुल ठीक कह एकाध ये कि तेरी-भर न हो तो कह, और बहते बने सादे ढंग से तो बह। जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख, और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख। चीज़ ऐसी दे कि स्वाद सर चढ़ जाए बीज ऐसा बो […]

दूसरा सप्तक/भवानी प्रसाद मिश्र

कमल के फूल फूल लाया हूँ कमल के। क्या करूँ’ इनका, पसारें आप आँचल, छोड़ दूँ; हो जाए जी हल्का। किन्तु होगा क्या कमल के फूल का? कुछ नहीं होता किसी की भूल का- मेरी कि तेरी हो- ये कमल के फूल केवल भूल हैं- भूल से आँचल भरूँ ना गोद में इनका सम्भाले मैं […]

तूस की आग/भवानी प्रसाद मिश्र

तूस की आग जैसे फैलती जाती है लगभग बिना अनुमान दिये तूस की आग ऐसे उतर रहा है मेरे भीतर-भीतर कोई एक जलने और जलाने वाला तत्व जिसे मैंने अनुराग माना है क्योंकि इतना जो जाना है मैंने कि मेरे भीतर उतर नही सकता ऐसी अलक्ष्य गति से ऊष्मा देता हुआ धीरे-धीरे… समूचे मेरे अस्तित्व […]

शरीर कविता फसलें और फूल/भवानी प्रसाद मिश्र

गीत-आघात तोड़ रहे हैं सुबह की ठंडी हवा को फूट रही सूरज की किरनें और नन्हें-नन्हें पंछियों के गीत मज़दूरों की काम पर निकली टोलियों को किरनों से भी ज़्यादा सहारा गीतों का है शायद नहीं तो कैसे निकलते वे इतनी ठंडी हवा में !  आँखें बोलेंगी जीभ की ज़रूरत नहीं है क्योंकि कहकर या […]

त्रिकाल संध्या/भवानी प्रसाद मिश्र

बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले, उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले उनके ढंग से उड़े,, रुकें, खायें और गायें वे जिसको त्यौहार कहें सब उसे मनाएं कभी कभी जादू हो जाता दुनिया में दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में ये औगुनिए चार […]

बुनी हुई रस्सी/भवानी प्रसाद मिश्र

बुनी हुई रस्सी बुनी हुई रस्सी को घुमायें उल्टा तो वह खुल जाती हैं और अलग अलग देखे जा सकते हैं उसके सारे रेशे मगर कविता को कोई खोले ऐसा उल्टा तो साफ नहीं होंगे हमारे अनुभव इस तरह क्योंकि अनुभव तो हमें जितने इसके माध्यम से हुए हैं उससे ज्यादा हुए हैं दूसरे माध्यमों […]

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