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ग़ज़ल

राम जाने ये कैसी बस्ती है/ग़ज़ल/ए.एफ़. ’नज़र’

राम जाने ये कैसी बस्ती है, छत गिरे तो दिवार हँसती है। हम उन्हीं मौसमों के पाले हैं, धूप जब छाँव को तरसती है। ज़िन्दगी की तमाम जद्दोजहद, धूप में पानियों की मस्ती है। इन चमकते हुए सवेरों से, रात ही रात क्यूँ बरसती है। जाने क्या आप ढूँढ़ते हैं यहाँ, दिल अजायब घरों की […]

कौन होता है फ़लक तेरे के बराबर पैदा/ग़ज़ल/ए.एफ़. ’नज़र’

कौन होता है फ़लक तेरे के बराबर पैदा, आदमी आप ही करता है मुक़द्दर पैदा। रास्ता जिनको समन्दर ने दिया ख़ुद झुककर, इसी मिट्टी में हुए हैं वो कलन्दर पैदा। हौसला तो मेरा ऊँचा है गगन तुझसे भी, क्या है जो क़द न हुआ तेरे बराबर पैदा। अब किसी बात पे हैरत नहीं होती हमको, […]

छत से छत की मीठी बातें और अपनापन छीन लिया/ग़ज़ल/ए.एफ़. ’नज़र’

छत से छत की मीठी बातें और अपनापन छीन लिया, फ़्लैटों की तहज़ीब ने हमसे चौड़ा आँगन छीन लिया। शहर की रोशन गलियो तुमको अपना दुख क्या बतलाएँ, रोटी कर फ़िक्रों ने हमसे गाँव का सावन छीन लिया। रूखी-सूखी जो मिलती सब भाई बाँट के खाते थे, अहदे तरक़्क़ी ऐसा आया सब अपनापन छीन लिया। […]

फ़ुर्सतों में जब कभी मिलताहूँ दिन इतवार के/ग़ज़ल/ए.एफ़. ’नज़र’

फ़ुर्सतों में जब कभी मिलताहूँ दिन इतवार के, मुस्करा देते है गुमसुम आईने दीवार के। रंग क्या-क्या पेश आए हमको इस संसार के, हमने जिनको घर का समझा निकले वो बाज़ार के। अब सफ़र का लुत्फ़ भी जाता रहा अफ़सोस है, हम दिवाने क्यूँ हुए दुनिया तेरी रफ़्तार के। किस क़दर महँगाई है हम मुफ़लिसों […]

गरदनें भी कमाल करती हैं/ग़ज़ल/ए.एफ़. ’नज़र’

गरदनें भी कमाल करती हैं, चाकुओं से सवाल करती हैं। एक वहशत है जिसकी सदियों से, बस्तियाँ देखभाल करती हैं। दुनिया कपड़े बदलती है अपने, सम्तें जब ख़ुद को लाल करती हैं। तेरे आँगन की फ़ाख़्ताएँ अब, मेरे घर में धमाल करती हैं। उसकी आँखों की ख़ैर हो मौला, उसकी आँखें सवाल करती हैं।

अब भला कौन पड़ोसी की ख़बर रखता है/ग़ज़ल/ए.एफ़. ’नज़र’

अब भला कौन पड़ोसी की ख़बर रखता है, आज हर शख़्स सितारों पे नज़र रखता है। खूब पछताऐगा यह गाँव से जाने वाला, हर नगर जलती हुई राहगुज़र रखता है। एक मुद्दत से न ली अपने बुजुर्गों की ख़बर, यूँ तो वो सारे ज़माने की ख़बर रखता है। हक़परस्ती की हिमायत में वही बोलेगा, अपने […]

शह्र के चैरास्तों पर लाल-पीली बत्तियाँ/ग़ज़ल/ए.एफ़. ’नज़र’

शह्र के चैरास्तों पर लाल-पीली बत्तियाँ, रहनुमाई कर रहीं हैं रंग-रंगीली बत्तियाँ। आज भी घर अपने शायद देर से पहुँचूँगा मैं, रास्ता रोके खड़ी हैं लाल-पीली बत्तियाँ। बिछ गईं गलियों में लाशें और घरौंदे जल चुकेे, आ गईं पुरशिस को कितनी लाल-नीली बत्तियाँ। बन्द कर कमरे की खिड़की आ मेरे पहलू में आ, खोल दे […]

चूल्हा-चौका-फ़ाइल-बच्चे दिनभर उलझी रहती है/ग़ज़ल/ए.एफ़. ’नज़र’

चूल्हा-चौका-फ़ाइल-बच्चे दिनभर उलझी रहती है, वो घर में और दफ़्तर में अब आधी-आधी रहती है। मिल कर बैठें दुख-सुख बाँटें इतना हमको वक़्त कहाँ, दिन उगने से रात गये तक आपा-धापी रहती है। जिस दिन से तक़रार हुई उन सियह गुलाबी होंठों में, दो कजरारी आँखों के संग छत भी जागी रहती है। जब से […]

बच्चों को देखती है, दफ़्तर को देखती है/ग़ज़ल/गरिमा सक्सेना

बच्चों को देखती है, दफ़्तर को देखती है दफ़्तर से लौटकर वो, फिर घर को देखती है वह देखती है ख़तरे, धरती के आसमां के जब घर को देखती है, बाहर को देखती है कितनी ही सिलवटों से वो जूझती है भीतर जब सिलवटों को ओढ़े बिस्तर को देखती है जिस देवता पे उसने ख़ुद […]

आदमी में आदमीयत की कमी होने लगी/ग़ज़ल/गरिमा सक्सेना

आदमी में आदमीयत की कमी होने लगी मौत से भी आज बदतर ज़िंदगी होने लगी जाल ख़ुद ही था बनाया क़ैद ख़ुद उसमें हुए फिर बताओ अब तुम्हें क्यों बेबसी होने लगी याद को अब याद करके याद भी धुँधला रही लग रहा तुमसे मिले जैसे सदी होने लगी चाँद, सूरज थे बने सबके लिये […]