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गद्य

ज्ञानदान/यशपाल

महर्षि दीर्घलोम प्रकृति से ही विरक्त थे। गृहस्थ आश्रम में वे केवल थोड़े ही समय के लिए रह पाये थे। उस समय ऋषि पत्नी ने एक कन्यारत्न प्रसव किया था । महर्षि भ्रम और मोह के बन्धनों को ज्ञान की अग्नि में भस्म कर, वैराग्य साधना द्वारा मुक्ति पाने के लिए नर्मदा तीर पर एक […]

आदमी का बच्चा/यशपाल

दो पहर तक डौली कान्वेंट (अंग्रेज़ी स्कूल) में रहती है। इसके बाद उसका समय प्रायः पाया ‘बिंदी’ के साथ कटता है। मामा दोपहर में लंच के लिए साहब की प्रतीक्षा करती है। साहब जल्दी में रहते हैं। ठीक एक बजकर सात मिनट पर आये, गुसलखाने में हाथ-मुंह धोया, इतने में मेज पर खाना आ जाता […]

कुत्ते की पूँछ/यशपाल

श्रीमती जी कई दिन से कह रही थीं- “उलटी बयार” फ़िल्म का बहुत चर्चा है, देख लेते तो अच्छा था। देख आने में ऐतराज़ न था परन्तु सिनेमा शुरू होने के समय अर्थात साढ़े छः बजे तक तो दफ़्तर के काम से ही छुट्टी नहीं मिल पाती। दूसरे शो में जाने का मतलब है- बहुत […]

मक्रील/यशपाल

गर्मी का मौसम था। मक्रील की सुहावनी पहाड़ी। आबोहवा में छुट्टी के दिन बिताने के लिए आई सम्पूर्ण भद्र जनता खिंचकर मोटरों के अड्डे पर, जहाँ पंजाब से आनेवाली सड़क की गाड़ियाँ ठहरती हैं – एकत्र हो रही थी। सूर्य पश्चिम की ओर देवदारों से छाई पहाड़ी की चोटी के पीछे सरक गया था। सूर्य […]

सेवाग्राम के दर्शन/यशपाल

सन 1939 में दूसरा महायुद्ध आरंभ हुआ तो ब्रिटिश साम्राज्‍यशाही सरकार ने भारत की इच्‍छा के विरुद्ध भी देश को उस युद्ध में लपेट लिया। उस समय देश के सभी राजनैतिक दल युद्ध में भाग लेने के विरुद्ध थे। ब्रिटिश सरकार के इस अन्‍याय के विरोध में कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने शासन से असहयोग कर त्‍यागपत्र […]

काबुल/यशपाल

प्राहा में लेखक कांग्रेस के समय जर्मन कवि जिमरिंग से परिचय हुआ था। प्रसंग में बात चली कि मैं कुछ समय के लिए जर्मनी जा सकूँगा या नहीं। बर्लिन देखने की उत्‍सुकता मुझे स्‍वयं थी। तीसरे-चौथे दिन ही प्राहा में पूर्वी जर्मनी के राजदूतावास के एक सज्‍जन ने आकर बात की – ‘प्राहा से बर्लिन […]

व्यक्तिगत/भवानी प्रसाद मिश्र

व्यक्तिगत (कविता) मैं कुछ दिनों से एक विचित्र सम्पन्नता में पड़ा हूँ संसार का सब कुछ जो बड़ा है और सुन्दर है व्यक्तिगत रूप से मेरा हो गया है सुबह सूरज आता है तो मित्र की तरह मुझे दस्तक देकर जगाता है और मैं उठकर घूमता हूँ उसके साथ लगभग डालकर हाथ में हाथ हरे […]

टार्च बेचने वाले/हरिशंकर परसाई

वह पहले चौराहों पर बिजली के टार्च बेचा करता था । बीच में कुछ दिन वह नहीं दिखा । कल फिर दिखा । मगर इस बार उसने दाढी बढा ली थी और लंबा कुरता पहन रखा था । मैंने पूछा, ”कहाँ रहे? और यह दाढी क्यों बढा रखी है? ” उसने जवाब दिया, ”बाहर गया […]

प्रेमचंद के फटे जूते/हरिशंकर परसाई

प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियां उभर आई हैं, पर घनी मूंछें चेहरे को भरा-भरा बतलाती हैं। पांवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं। लापरवाही […]

इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर/हरिशंकर परसाई

वैज्ञानिक कहते हैं, चाँद पर जीवन नहीं है। सीनियर पुलिस इंस्पेक्टर मातादीन (डिपार्टमेंट में एम. डी. साब) कहते हैं- वैज्ञानिक झूठ बोलते हैं, वहाँ हमारे जैसे ही मनुष्य की आबादी है। विज्ञान ने हमेशा इन्स्पेक्टर मातादीन से मात खाई है। फिंगर प्रिंट विशेषज्ञ कहता रहता है- छुरे पर पाए गए निशान मुलज़िम की अँगुलियों के […]