स्वप्न झरे फूल से/गीत/गोपालदास नीरज
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से, लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से, और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे! नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई, पाँव जब तलक उठें कि राह रथ निकल गई, पात-पात झर गए कि शाख-शाख जल गई, फाँस […]
