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कविता

परिणति/डॉ. शिप्रा मिश्रा

नदी अपना मार्ग स्वयं बनाती है कोई नहीं पुचकारता उछालता उसे कोई उसकी ठेस पर मरहम नहीं लगाता दुलारना तो दूर कोई आंख भर देखता भी नहीं तो क्या नदी रुक जाती है या हार मान लेती है कोई उसे मार्ग भी नहीं बताता चट्टानों से भिड़ना उसकी नियति है और उसे अपनी नियति या […]

मेरे भीतर का पिता/डॉ. शिप्रा मिश्रा

मेरे भीतर रहता है एक पिता… जब मैं देखती हूँ उसकी आँखों से जब मैं सुनती हूँ उसी के कानों से जब मैं बोलती हूँ उसी की भाषा जब मैं महसूसती हूँ उसी की संवेदनाएँ मेरे भीतर हमेशा होता है एक पिता…. जो संकेत करता है जब मैं विचलित होती हूँ वह संकेत करता है […]

अर्घ्य/डॉ. शिप्रा मिश्रा

हे सूर्य! तुम इतने प्रखर, तेजस्वी,तेजपुंज के आकर होकर भी हो कितने सहज.. हे आदित्य! तुम संसार को नित्य, नूतन,निरंतर करते हो पुनर्नवा स्वर्ण- रश्मियों से हे भास्कर! अतुल्य,अद्वितीय आभा- मुकुट से कृतार्थ करते हो कण-कण को, क्षण-क्षण.. हे दिनकर! तुम परितृप्त,परिपूर्ण पोषित होते हो हमारी अनभिज्ञ उपासना,अर्चना से.. हे दिवाकर! तुम्हारा अस्त होना कितना […]

लोकतंत्र/डॉ. शिप्रा मिश्रा

बिछ चुकी है बिसात अब फिर नए सिरे से, झोकेंगे अपनी समूची ताकत और सब खेलेंगे दिमाग़ से अपनी चाल अपनी पारी और मंगरुवा ऐसे ही चलाता रहेगा बिना थके चाय,नाश्ता,पान,सिगरेट,शराब बदले में मिल जाऍंगी कुछ फेंकी हुईं हड्डियाँ इन फेंकी,सूखी,चूसी हडि्ड्यों से ही तो सदियों से पोषित होती रही उसकी समूची बिरादरी और पैदा […]

वानप्रस्थ/डॉ. शिप्रा मिश्रा

चले गए सब चले गए जाने दो चले गए अच्छा हुआ चले गए क्या करना जो चले गए अब मैं आराम से खाऊँगी अपने हिस्से की रोटी पहले तो एक ही रोटी के हुआ करते थे कई-कई टुकड़े जाने दो चले गए बहुत अच्छा है चले गए उनके पोतड़े धोते- धोते घिस गईं थीं मेरी […]

आज भी/डॉ. शिप्रा मिश्रा

आज भी.. देखा मैंने उसे पानी में खालिश नमक डाल कर उसने मिटाई अपनी भूख आज भी– खाता है वह सिर्फ रात में ही कभी- कभी तो वह भी उसे होता नहीं नसीब आज भी– उसने जम के पसीने बहाए ढेर सारे और दिन भर की है ईमानदारी से मजूरी आज भी– मिलते हैं उसके […]

बिछिया/डॉ. शिप्रा मिश्रा

उस विवाह में हम भी हुए थे निमंत्रित भरपेट खाए थे भोज और.. मन भर मिठाईयांँ भी एक साड़ी, टिकुली, सेनूर, आलता भेंट भी कर आए थे और.. एक जोड़ी बिछिया भी.. कलेजे का टुकड़ा थी वह मेरी छात्रा नन्दिनी जन्मजात तेजस्विनी ऊर्जस्वित, निष्ठावान मृदुभाषी, सौम्य, शिष्ट उसकी मौन, मूक आँखों ने अनेक बार मेरे […]

तथागत/डॉ. शिप्रा मिश्रा

सभी पुरुष .. प्रवासी नहीं होते लेकिन सभी स्त्रियाँ होती हैं प्रवासी छोड़ जातीं हैं अपनी मिट्टी अपने लोग अपना गाँव- जवार लहलहाते खेत- खलिहान पोखर,अमराईयां, झूले बचपन की सखियाँ घर के आंगन में दबाये कुछ गिलट की अशर्फियां तुलसी चौरे पर छोड़ी हुई आस्था जनेऊ वाले पत्थर मौन महादेव भोर का सूर्योदय संध्या का […]

माँ/दया शर्मा

चूल्हे पे खाना बनाती थी, भर पेट सबको खिलाती थी , कभी स्वयं भूखी रह जाती थी । अपना दुख-दर्द छुपाती थी पर संस्कार का दीप जलाती थी, वो माँ हमारी कहलाती थी । पैसों की रहती तंगी थी , पापा के काम में मंदी थी । माँ शिकवा न कभी करती थी, थोड़े  में  […]

कोई तुमसा नहीं/दया शर्मा

यहाँ  आदमी तो बहुत हैं, पर इन्सान  कोई तुमसा नहीं । यहाँ  दोस्त तो बहुत हैं, पर मेहरबान कोई  तुमसा नहीं। ढूँढती फिरती थी नज़रें , किसी  रहनुमा की तलाश में कारवां तो मिल गया , पर हमनवां कोई तुमसा नहीं । यूँ  तो लगते थे सब अपने बेगानों की इस भीड़ में ऐतबार तो […]

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