+91-9997111311,    support@sahityaratan.com

कविता

तूस की आग/भवानी प्रसाद मिश्र

तूस की आग जैसे फैलती जाती है लगभग बिना अनुमान दिये तूस की आग ऐसे उतर रहा है मेरे भीतर-भीतर कोई एक जलने और जलाने वाला तत्व जिसे मैंने अनुराग माना है क्योंकि इतना जो जाना है मैंने कि मेरे भीतर उतर नही सकता ऐसी अलक्ष्य गति से ऊष्मा देता हुआ धीरे-धीरे… समूचे मेरे अस्तित्व […]

शरीर कविता फसलें और फूल/भवानी प्रसाद मिश्र

गीत-आघात तोड़ रहे हैं सुबह की ठंडी हवा को फूट रही सूरज की किरनें और नन्हें-नन्हें पंछियों के गीत मज़दूरों की काम पर निकली टोलियों को किरनों से भी ज़्यादा सहारा गीतों का है शायद नहीं तो कैसे निकलते वे इतनी ठंडी हवा में !  आँखें बोलेंगी जीभ की ज़रूरत नहीं है क्योंकि कहकर या […]

त्रिकाल संध्या/भवानी प्रसाद मिश्र

बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले, उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले उनके ढंग से उड़े,, रुकें, खायें और गायें वे जिसको त्यौहार कहें सब उसे मनाएं कभी कभी जादू हो जाता दुनिया में दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में ये औगुनिए चार […]

बुनी हुई रस्सी/भवानी प्रसाद मिश्र

बुनी हुई रस्सी बुनी हुई रस्सी को घुमायें उल्टा तो वह खुल जाती हैं और अलग अलग देखे जा सकते हैं उसके सारे रेशे मगर कविता को कोई खोले ऐसा उल्टा तो साफ नहीं होंगे हमारे अनुभव इस तरह क्योंकि अनुभव तो हमें जितने इसके माध्यम से हुए हैं उससे ज्यादा हुए हैं दूसरे माध्यमों […]

इदं न मम/भवानी प्रसाद मिश्र

इदं न मम बड़ी मुश्किल से उठ पाता है कोई मामूली-सा भी दर्द इसलिए जब यह बड़ा दर्द आया है तो मानता हूँ कुछ नहीं है इसमें मेरा !  तुम्हारी छाया में जीवन की ऊष्मा की याद भी बनी है जब तक तब तक मैं घुटने में सिर डालकर नहीं बैठूँगा सिकुड़ा–सिकुड़ा भाई मरण तुम […]

बाल कविताएं/भवानी प्रसाद मिश्र

तुकों के खेल मेल बेमेल तुकों के खेल जैसे भाषा के ऊंट की नाक में नकेल ! इससे कुछ तो बनता है भाषा के ऊंट का सिर जितना तानो उतना तनता है!  साल दर साल साल शुरू हो दूध दही से, साल खत्म हो शक्कर घी से, पिपरमेंट, बिस्किट मिसरी से रहें लबालब दोनों खीसे। […]

मधुज्वाल/सुमित्रानंदन पंत

प्रिय बच्चन को जीवन की मर्मर छाया में नीड़ रच अमर, गाए तुमने स्वप्न रँगे मधु के मोहक स्वर, यौवन के कवि, काव्य काकली पट में स्वर्णिम सुख दुख के ध्वनि वर्णों की चल धूप छाँह भर! घुमड़ रहा था ऊपर गरज जगत संघर्षण, उमड़ रहा था नीचे जीवन वारिधि क्रंदन; अमृत हृदय में, गरल […]

खादी के फूल/सुमित्रानंदन पंत

1. अंतर्धान हुआ फिर देव विचर धरती पर अंतर्धान हुआ फिर देव विचर धरती पर, स्वर्ग रुधिर से मर्त्यलोक की रज को रँगकर! टूट गया तारा, अंतिम आभा का दे वर, जीर्ण जाति मन के खँडहर का अंधकार हर! अंतर्मुख हो गई चेतना दिव्य अनामय मानस लहरों पर शतदल सी हँस ज्योतिर्मय! मनुजों में मिल […]

उत्तरा/सुमित्रानंदन पंत

1. युग विषाद गरज रहा उर व्यथा भार से गीत बन रहा रोदन, आज तुम्हारी करुणा के हित कातर धरती का मन ! मौन प्रार्थना करता अंतर, मर्म कामना भरती मर्मर, युग संध्या : जीवन विषाद से आहत प्राण समीरण ! जलता मन मेघों का सा घर स्वप्नों की ज्वाला लिपटा कर दूर, क्षितिज के […]

युगपथ/सुमित्रानंदन पंत

1. भारत गीत जय जन भारत, जन मन अभिमत, जन गण तंत्र विधाता ! गौरव भाल हिमालय उज्जवल हृदय हार गंगा जल, कटि विन्धयाचल, सिन्धु चरण तल महिमा शाश्वत गाता ! हरे खेत, लहरे नद निर्झर, जीवन शोभा उर्वर, विश्व कर्म रत कोटि बाहु कर अगणित पद ध्रुव पथ पर ! प्रथम सभ्यता ज्ञाता, साम […]

×