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ब्लॉग

हर बार/कविता/रवीन्द्र उपाध्याय

हर बार ठोकरों ने है सिखलाया संभलना मिली जूझने की ताक़त हर बार उपेक्षाओं से जब-तब निन्दाओं ने अधिक निखारा हमको धीरज का उपहार मिला है दुख के हाथों ! घने अँधेरे ने प्रकाश की ओर धकेला घोर उदासी में आशा की किरणें चमकीं पतझड़ से ही मधुऋतु का संकेत मिला है! जब भी हुआ […]

आंख से उनके जो हया निकले/ग़ज़ल/दर्द गढ़वाली

आंख से उनके जो हया निकले। मिलने-जुलने का रास्ता निकले।।   रूह से तो निकल नहीं पाए। इक बदन से तो बारहा निकले।।   शौक हो हमको आजमाने का। देखकर घर से आइना निकले।।   जो वफाओं की बात करते थे। दोस्त मेरे वो बेवफा निकले।।   देखकर भी हमें नहीं देखा। वो हमें करके […]

आपसे मेरा कहां रिश्ता अलग है/ग़ज़ल/दर्द गढ़वाली

आपसे मेरा कहां रिश्ता अलग है। सच कहें तो इश्क़ की दुनिया अलग है।।   जीतकर दुनिया चलो फिर हार जाएं। हमको दुनिया से ज़रा चलना अलग है।।   क्यों बहाने कर रहे हो छोड़ भी दो। साफ कह दो आपको रहना अलग है।।   आप ने ही आंख हमसे फेर ली थी। आपको हमने […]

नक़्श सब अपने मिटाते जाते/ग़ज़ल/दर्द गढ़वाली

नक़्श सब अपने मिटाते जाते। मुझको दिल से भी भुलाते जाते।।   फूल तुरबत पर चढ़ाते जाते। रस्मे-उल्फ़त ही निभाते जाते।।   तुम हो दरिया हो मयस्सर सबको। प्यास मेरी भी बुझाते जाते।।   है बड़ी सादा तुम्हारी डीपी। एक फोटो तो लगाते जाते।।   साथ जीने की कसम खाई थी। एक वादा तो निभाते […]

हुई है मुहब्बत हमें शायरी से/ग़ज़ल/दर्द गढ़वाली

हुई है मुहब्बत हमें शायरी से। निभाएं कहां तक भला ज़िंदगी से।।   दुखों ने तो यारो गले से लगाया। मिली कब ख़ुशी हमको इतनी ख़ुशी से।।   बहुत याद आए गुज़ारे वो लम्हे। कभी हम जो गुज़रे हैं उसकी गली से।।   जहां से चले थे वहीं लौट आए। यहीं तो मिले थे कभी […]

मुहब्बत को कमाना जानते हैं/ग़ज़ल/दर्द गढ़वाली

मुहब्बत को कमाना जानते हैं। कि हम सब कुछ लुटाना जानते हैं।।   ख़ुशी का हम घराना जानते हैं। ग़मे-दिल का ठिकाना जानते हैं।।   मुहब्बत भी हुई अब के उन्हीं से। वो जो दिल को खिलौना जानते हैं।।   दुखाते हम नहीं हैं दिल किसी का। कि लफ़्ज़ों को सजाना जानते हैं।।   अगर […]

अकेलेपन की आदत हो गई है/ग़ज़ल/दर्द गढ़वाली

अकेलेपन की आदत हो गई है। मुझे शायद मुहब्बत हो गई है।।   मुलाजि़म हो गया बेटा मेरा भी। मुझे अब कुछ सहूलत हो गई है।।   जिसे कल ख्वाब में देखा था मैंने। वो मेरे घर की जी़नत हो गई है।।   गरीबी को नहीं ये मुंह लगाती। बड़ी कमजर्फ दौलत हो गई है।। […]

नया इक शौक़ पैदा कर रहे हैं/ग़ज़ल/दर्द गढ़वाली

नया इक शौक़ पैदा कर रहे हैं। बला का वो तमाशा कर रहे हैं।।   मुहब्बत में ख़सारा कर रहे हैं।। ख़ुशी में कुछ इज़ाफ़ा कर रहे हैं।।   वही कल देखना मुंह मोड़ लेंगे। जिन्हें हम-तुम सितारा कर रहे हैं।।   बहुत बेचैन हैं सब दोस्त मेरे। भुलाने का इरादा कर रहे हैं।।   […]

इक नज़र डाले न कोई सरसरी भी/ग़ज़ल/दर्द गढ़वाली

इक नज़र डाले न कोई सरसरी भी। बह्र से ख़ारिज़ हुई क्या ज़िंदगी भी।।   कोई सोचे कोई समझे कोई बूझे। कोई तो देखे हमारी बेबसी भी।।   याद अब मंज़र कोई रहता नहीं है। आंख से जाती रही है रोशनी भी।।   बज़्म में तूफान सा बरपा रही है। बोलती कितना है तेरी ख़ामुशी […]

ये बला कोई आसमानी है/ग़ज़ल/दर्द गढ़वाली

ये बला कोई आसमानी है। ‘जिंदगी दर्द की कहानी है’।।   आप ख़ुद से अगर छिपाएं तो। आपको बात इक बतानी है।।   जिस्म इक दिन फ़ना हो जाएगा। रूह तो यार ज़ाविदानी है।।   बात करना ज़रा सलीके से। वो कमीना भी ख़ानदानी है।।   ये मुहब्बत से मार डालेगी। ये सियासत बड़ी सयानी […]

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