लगाता रोज़ मैं चहरा नया हूँ तेरा ही ऐब हूँ तुझमें छिपा हूँ लड़ाई ख़ुद से ही लड़ता रहा हूँ बख़ूबी बात यह मैं जानता हूँ लगा है रोग सच्चाई का जब से दिखाती हर किसी को आइना हूँ जो बाँधे आपको ताउम्र मुझसे मुहब्बत का वही मैं दाइरा हूँँ जकड़ लेता है सबके ज़ह्न को जो मैं तेरे दिल का वो ही तज़्किरा हूँ उतरता है जो आँखों से जिगर तक ख़यालों से बना वो रास्ता हूँ समझ पाई कभी जिसको न “निर्मल” ख़मोशी तोड़ता वो वाक़िआ हूँ सभी से बात खुल के करता हूँ बस “मैं अपने आप से कम बोलता हूँ”
लगाता रोज़ मैं चहरा नया हूँ/ग़ज़ल/रचना निर्मल