सैंकड़ो उन्वान देकर इक फ़साना बट गया
अब तो पुरखों का मकां भी ख़ाना ख़ाना बंट गया
आज से पहले कभी आबो-हवा ऐसी न थी
दिल बटा, नफ़रत बटी, फिर आशियाना बट गया
शाम थी तो साथ थे सब दिन निकलते क्या हुआ
पेड़ के हर इक परिंदे का ठिकाना बट गया
क़ौमी यकजहती का मंजर अब कहां देखेंगे लोग
इंतहा ये है कि अपना बादा ख़ाना बट गया
एक मसलक से न जाने कितने ही मसलक बने
अब कहां सज़दा करें जब आस्ताना बट गया
दस्ते-मेहनतकश जो ख़ाली था वो ख़ाली ही रहा
हो गया खलिहान ख़ाली दाना-दाना बट गया
लेखक
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प्रेमकिरण प्रकाशन- 'आग चखकर लीजिए', 'पिनकुशन', 'तिलिस्म टूटेगा' (हिन्दी ग़ज़ल संग्रह), ज़ह्राब (उर्दू ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशित। ग़ज़ल एवं कविता के विभिन्न साझा संकलनों में रचनाएं प्रकाशित। इनके अतिरिक्त हिन्दी एवं उर्दू की पत्रिकाओं में ग़ज़ल कविता, कहानी, फीचर, साक्षात्कार, पुस्तक समीक्षा, कला समीक्षा, साहित्यिक आलेख प्रकाशित। संपादन: समय सुरभि ग़ज़ल विशेषांक । अनुवाद प्रसारण: नेपाली एवं बंगला भाषा में ग़ज़लों का अनुवाद। सम्मान: डॉ. मुरलीधर श्रीवास्तव 'शेखर' सम्मान से सम्मानित (2005)। दुष्यंत कुमार शिखर सम्मान से सम्मानित (2006)। शाद अजीमाबादी सम्मान (2007)। बिहार उर्दू अकादमी द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित (2009) प्रसारण: दूरदर्शन, आकाशवाणी, पटना के हिन्दी एवं उर्दू विभाग से कविता, कहानी एवं ग़ज़लें प्रसारित तथा अनेक अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों में शिरकत । संपर्क: कमला कुंज, गुलज़ारबाग, पटना-800007 मो. : +91-9334317153 ई-मेल : premkiran2010@gmail.com
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