अगस्त १९८९, बचने की उम्मीद नहीं थी। तीन-तीन ज़बर्दस्त हार्ट अटैक, एक के बाद एक। एक तो ऐसा कि नब्ज़ बन्द, सांस बन्द, धड़कन बंद। डाक्टरों ने घोषित कर दिया कि अब प्राण नहीं रहे। पर डॉ. बोर्जेस ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी थीं। उन्होंने १०० वाल्ट्स के शाक्स दिए, भयानक प्रयोग। लेकिन वे बोले कि यदि यह मृत शरीर मात्र है तो दर्द महसूस ही नहीं होगा,पर यदि कहीं भी जरा भी एक कण प्राण शेष होंगे तो हार्ट रिवाइव कर सकता है। | |
प्राण तो लौटे पर इस प्रयोग में ६० प्रतिशत हार्ट सदा के लिए नष्ट हो गया। केवल ४० प्रतिशत बचा। उसमें भी तीन अवरोध हैं। ओपेन हार्ट ऑपरेशन तो करना ही होगा। पर सर्जन हिचक रहे हैं। केवल ४० प्रतिशत हार्ट है। ऑपरेशन के बाद न रिवाइव हुआ तो? तय हुआ कि अन्य विशेषज्ञों की राय ले ली जाय तब कुछ दिन बाद ऑपरेशन की सोचेंगे। तब तक घर जाकर बिना हिले-डुले विश्राम करें।
बहरहाल, ऐसी अर्द्धमृत्यु की हालत में वापस घर लाया जाता हूँ। मेरी ज़िद है कि बेडरूम में नहीं, मुझे अपने किताबों वाले कमरे में ही रक्खा जाए। वहीं लिटा दिया गया है मुझे। चलना, बोलना पढ़ना मना। दिन भर पड़े-पड़े दो ही चीज़े देखता रहता हूँ। बायीं ओर की खिड़की के सामने रह-रह कर हवा के झूलते सुपारी के पेड़ के झालदार पत्ते, और अन्दर कमरे में चारों ओर फ़र्श से लेकर छत तक ऊँची, किताबों से ठसाठस भरी आलमारियाँ। बचपन में परीकथाओं में जैसे पढ़ते थे कि राजा के प्राण उसके शरीर में नहीं तोते में रहते हैं, वैसे ही लगता था कि मेरे प्राण इस शरीर से तो निकल चुके हैं, वे प्राण इन हज़ारों किताबों में बसे हैं जो पिछले चालीस-पचास बरस में धीरे-धीरे मेरे पास जमा होती गई हैं। कैसे जमा हुई, संकलन की शुरुआत कैसे हुई, यह कथा बाद में सुनाऊँगा। पहले तो यह बताना ज़रूरी है किताबें पढ़ने और सहेजने का शौक कैसे जागा। बचपन की बात है। उस समय आर्यसमाज का सुधारवादी आन्दोलन अपने पूरे ज़ोर पर था। मेरे पिता आर्यसमाज रानीमण्डी के प्रधान थे और माँ ने स्त्री शिक्षा के लिए आदर्श कन्या पाठशाला की स्थापना की थी। पिता की अच्छी-ख़ासी सरकारी नौकरी थी, वर्मा रोड जब बन रही थी तब बहुत कमाया था उन्होंने। लेकिन मेरे जन्म के पहले ही गांधी जी के आह्वान पर उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी थी। हम लोग बड़े आर्थिक कष्टों से गुज़र रहे थे फिर भी घर में नियमित पत्र-पत्रिकाएँ आती थीं ‘आर्यमित्र’ साप्ताहिक, ‘वेदोदय’, ‘सरस्वती’, ‘गृहिणी’ और दो बाल पत्रिकाएँ ख़ास मेरे लिए- ‘बालसखा’ और ‘चमचम’। उनमें होती थीं परियों, राजकुमारों, दानवों और सुन्दरी राजकन्याओं की कहानियाँ और रेखाचित्र। मुझे पढ़ने की चाट लग गई। हर समय पढ़ता रहता। खान खाते समय थाली के पास पत्रिकाएँ रख कर पढ़ता। अपनी दोनों पत्रिकाओं के अलावा भी ‘सरस्वती’ और ‘आर्यमित्र’ पढ़ने की कोशिश करता। घर में पुस्तकें भी थीं। उपनिषदें और उनके हिन्दी अनुवाद। सत्यार्थ प्रकाश। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के खण्डन-मण्डन वाले अध्याय पूरी तरह समझ में नहीं आता था पर पढ़ने में मज़ा आता था। मेरी प्रिय पुस्तक थी स्वामी दयानन्द की एक जीवनी, रोचक शैली में लिखी हुई, अनेक चित्रों से सुसज्जित। वे तत्कालीन पाखण्डों के विरुद्ध अदम्य साहस दिखाने वाले अद्भुत व्यक्तित्व थे। कितनी ही रोमांचक घटनाएँ थीं उनके जीवन की जो मुझे बहुत प्रभावित करती थीं। चूहे को भगवान का मीठा खाते देख कर मान लेना कि प्रतिमाएँ भगवान नहीं होती, घर छोड़कर भाग जाना। तमाम तीर्थों, जंगलों, गुफ़ाओं, हिम शिखरों पर साधुओं के बीच घूमना और हर जगह इसकी तलाश करना कि भगवान क्या है? सत्य क्या है? जो भी समाज विरोधी, मनुष्य विरोधी मूल्य हैं, रूढ़ियाँ हैं उनका खण्डन करना और अन्त में अपने हत्यारे को क्षमा कर उसे सहारा देना। यह सब मेरे बालमन को बहुत रोमांचित करता। जब इस सबसे थक जाता तब फिर ‘बलसखा’ और ‘चमचम’ की पहले पढ़ी हुई कथाएँ दुबारा पढ़ता। माँ स्कूली पढ़ाई पर ज़ोर देतीं। चिंतित रहतीं कि लड़का कक्षा की किताबें नहीं पढ़ता। पास कैसे होगा। कहीं खुद साधु बन कर फिर से भाग गया तो? पिता कहते जीवन में यही पढ़ाई काम आएगी पढ़ने दो। मैं स्कूल नहीं भेजा गया था, शुरू की पढ़ाई के लिए घर पर मास्टर रक्खे गए थे। पिता नहीं चाहते थे कि नासमझ उम्र में मैं गलत संगति में पड़ कर गाली गलौज सीखूँ, बुरे संस्कार ग्रहण करूँ। अत: स्कूल में मेरा नाम लिखाया गया जब मैं कक्षा दो तक की पढ़ाई घर पर कर चुका था। तीसरे दर्ज़े में भर्ती हुआ। उस दिन शाम को पिता उँगली पकड़ कर मुझे घुमाने ले गए। लोकनाथ की एक दुकान से ताज़ा अनार का शर्बत मिट्टी के कुल्हड़ में पिलाया और सर पर हाथ रख कर बोले- ‘वायदा करो कि पाठयक्रम की किताबें भी इतने ही ध्यान से पढ़ोगे, माँ की चिंता मिटाओगे। ‘उनका आशीर्वाद था या मेरा जी तोड़ परिश्रम कि तीसरे, चौथे में मेरे अच्छे नम्बर आए और पाँचवे दर्जे में तो मैं फर्स्ट आया। माँ ने आँसू भर कर गले लगा लिया, पिता मुस्कुराते रहे कुछ बोले नहीं। चूँकि अंग्रेज़ी में मेरे नम्बर सबसे ज़्यादा थे अत: स्कूल से इनाम में दो अंग्रेज़ी किताबें मिली थीं। एक में दो छोटे बच्चे घोंसलों की खोज में बागों और कुंजों में भटकते हैं और इस बहाने पक्षियों की जातियाँ, उनकी बोलियाँ, उनकी आदतों की जानकारी उन्हें मिलती हैं। दूसरी किताब थी ‘ट्रस्टी द रग’ जिसमें पानी के जहाज़ों की कथाएँ थी, कितने प्रकार के होते हैं। कौन-कौन-सा माल लाद कर लाते हैं, कहाँ से लाते हैं, कहाँ ले जाते हैं, नाविकों की ज़िन्दगी कैसी होती हैं, कैसे कैसे जीव मिलते हैं, कहाँ व्हेल होती है, कहाँ शार्क होती है। इन दो किताबों ने एक नई दुनिया का द्वार मेरे लिए खोल दिया। पक्षियों से भरा आकाश, और रहस्यों से भरा समुद्र। पिता ने आलमारी के एक खाने में अपनी चीज़ें हटा कर जगह बनाई और मेरी दोनों किताबें उस खाने में रख कर कहा, ‘आज से यह खाना तुम्हारी अपनी किताबों का। यह तुम्हारी अपनी लाइब्रेरी है।’ यहाँ से आरम्भ हुई उस बच्चे की लाइब्रेरी। बच्चा किशोर हुआ, स्कूल से कालेज, कालेज से युनिवर्सिटी गया, डाक्टरेट हासिल की, युनिवर्सिटी में अध्यापन किया, अध्यापन छोड़ कर इलाहाबाद से बम्बई आया, सम्पादन किया उसी अनुपात में अपनी लाइब्रेरी का विस्तार करता गया। बरस दर बरस इकठ्ठी होती गई ये तमाम किताबें। पर आप पूछ सकते हैं कि किताबें पढ़ने का शौक तो ठीक। किताबें इकठ्ठी करने की सनक क्यों सवार हुई। उसका कारण भी बचपन का एक अनुभव है। इलाहाबाद भारत के प्रख्यात शिक्षा केन्द्रों में एक रहा है। ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा स्थापित पब्लिक लाइब्रेरी से लेकर महामना मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित भारती भवन तक। विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी तथा अनेक कालेजों की लाइब्रेरी अलग। वहाँ हाइकोर्ट है अत: वकीलों की निजी लाइब्रेरियाँ, अध्यापकों की निजी लाइब्रेरियाँ। अपनी लाइब्रेरी वैसी कभी होगी यह तो स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था, पर अपने मुहल्ले में एक लाइब्रेरी थी हरि भवन। स्कूल से छूट्टी मिली कि मैं उसमें जाकर जम जाता था। पिता दिवंगत हो चुके थे, लाइब्रेरी का चन्दा चुकाने का पैसा नहीं था, अत: वहीं बैठकर किताबें निकलवा कर पढ़ता रहता था। उन दिनों हिन्दी में विश्व साहित्य, विशेषकर उपन्यासों के खूब अनुवाद हो रहे थे। मुझे उन अनूदित उपन्यासों को पढ़ कर बड़ा सुख मिलता था। अपने छोटे से हरि भवन में खूब उपन्यास थे। वहीं परिचय हुआ बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की ‘दुर्गेशनन्दिनी’, ‘कपाल कुण्डला’ और ‘आनंद मठ’ से। टॉलस्टाय की ‘अन्ना करेनिना’, ‘विक्टर ह्यगो का ‘पेरिस का कुबड़ा’, ‘हंचबैक ऑफ नात्रेदाम’, गोर्की की ‘ मदर’, अलेक्जेंण्डर कुप्रिन का ‘गाड़िवानों का कटरा’ (यामा, दपिट) और सबसे मनोरंजक सर्वा-रीज़ का ‘विचित्र वीर’ (यानी डान क्विक्जोट) हिन्दी के ही माध्यम से सारी दुनिया के कथा पात्रों से मुलाक़ात करना कितना आकर्षक था। लाइब्रेरी खुलते ही पहुँच जाता और जब लाइब्रेरियन शुक्ल जी कहते कि बच्चा अब उठो, पुस्तकालय बन्द करना है तब बड़ी अनिच्छा से उठता। जिस दिन कोई उपन्यास अधूरा छूट जाता, उस दिन मन में कसक होती कि काश इतने पैसे होते कि सदस्य बन कर किताब ईश्यू करा लाता, या काश इस किताब को ख़रीद पाता तो घर में रखता। एक बार पढ़ता, दो बार पढ़ता, बार-बार पढ़ता पर जानता था कि यह सपना ही रहेगा। भला कैसे पूरा हो पाएगा। पिता के देहावसान के बाद तो आर्थिक संकट इतना बढ़ गया कि पूछिए मत। फीस जुटाना तक मुश्किल था। अपने शौक की किताबें ख़रीदना तो सम्भव ही नहीं था। एक ट्रस्ट से योग्य पर असहाय छात्रों को पाठ्य पुस्तकें ख़रीदने के लिए कुछ रुपए सत्र के आरम्भ में मिलते थे। उनसे प्रमुख पाठ्य पुस्तकें ‘सेकेण्ड हैंण्ड’ ख़रीदता था, बाकी अपने सहपाठियों से लेकर पढ़ता और नोट्स बना लेता। उन दिनों परीक्षा के बाद छात्र अपनी पुरानी पाठ्य पुस्तकें आधे दाम में बेच देते और उस कक्षा में आने वाले नए लेकिन विपन्न छात्र ख़रीद लेते। इसी तरह काम चलता। लेकिन फिर भी मैंने जीवन की पहली साहित्यिक पुस्तक अपने पैसों से कैसे ख़रीदी, यह आज तक याद है। उस साल इण्टरमीडियेट पास किया था। पुरानी पाठ्य पुस्तकें बेच कर बी.ए. की पाठ्य पुस्तकें लेने एक सेकण्ड हैण्ड बुक शॉप पर गया। उस बार जाने कैसे पाठ्य पुस्तकें ख़रीद कर भी दो रुपए बच गए थे। सामने के सिनेमाघर में ‘देवदास’ लगा था न्यू थियेटर्स वाला। बहुत चर्चा थी उसकी। लेकिन मेरी माँ को सिनेमा देखना बिल्कुल नापसंद था। उसी से बच्चे बिगड़ते हैं। लेकिन उसके गाने सिनेमा गृह के बाहर बजते थे। उसमें सहगल का एक गाना था ‘दुख के दिन अब बीतत नाहीं’ उसे अक्सर गुनगुनाता रहता था। कभी-कभी गुनगुनाते आँखों में आँसू आ जाते थे जाने क्यों। एक दिन माँ ने सुना। माँ का दिल तो आखिर माँ का दिल। एक दिन बोलीं – दुख के दिन बीत जाएँगे बेटा, दिल इतना छोटा क्यों करता है धीरज से काम ले।’ जब उन्हें मालूम हुआ कि यह तो फिल्म ‘देवदास’ का गाना है, तो सिनेमा की घोर विरोधी माँ ने कहा – अपना मन क्यों मारता है, जाकर पिक्चर देख आ। पैसे मैं दे दूँगी।’ मैंने माँ को बताया कि ‘किताबें बेच कर दो रुपए मेरे पास बचे हैं।’ वे दो रुपए लेकर माँ की सहमति से फिल्म देखने गया। पहला शो छूटने में देर थी, पास में अपनी परिचित किताब की दूकान थी। वहीं चक्कर लगाने लगा। सहसा देखा काउन्टर पर एक पुस्तक रक्खी है – ‘देवदास’ , लेखक शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय – दाम केवल एक रुपया। मैंने पुस्तक उठा कर उलटी-पलटी तो पुस्तक विक्रेता बोला – ‘अरे तू लौट कैसे आया? पिक्चर नहीं देखी?’ माँ ने पूछा। आज जब अपने पुस्तक संकलन पर नज़र डालता हूँ जिसमें हिन्दी अंग्रेज़ी उपन्यास, नाटक, कथा संकलन, जीवनियाँ, संस्मरण, इतिहास, कला, पुरातत्व, राजनीति की हज़ारहा पुस्तकें हैं – तब कितनी शिद्दत से याद आती है अपनी पहली पुस्तक की ख़रीदारी। रेनर मारिया रिल्के, स्टीफेन ज्वीग, मोपांसा, चेखव, टॉल्स्टाय, दोस्तावस्की येसेनिना, मायकोवस्की, सोल्जेनित्सीन, स्टीफेन स्पेण्डर, आडेन, एज़रा पाउण्ड, यूजीन ओनील, ज्यां पाल सार्त्र, आल्बेयर कामू, आयोनेस्को, के साथ पिकासो, ब्रुगेल, रेम्ब्राँ, हेब्बार, हुसेन तथा हिन्दी में कबीर, तुलसी, सूर, रसखान, जायसी, प्रेमचंद, पंत, निराला, महादेवी और जाने कितने लेखकों, चिन्तकों की इन कृतियों के बीच अपने को कितना भरा-भरा महसूस करता हूँ। मराठी के वरिष्ठ कवि विन्दा करन्दीकर ने कितना सच कहा था उस दिन। मेरा आपरेशन सफल होने के बाद वे देखने आए थे बोले – ‘भारती ये सैंकड़ों महापुरुष जो पुस्तक रूप में तुम्हारे चारों ओर विराजमान हैं। इन्हीं के आशीर्वाद से तुम बचे हो। इन्होंने तुम्हें पुनर्जीवन दिया है।’ मैंने मन ही मन प्रणाम किया विन्दा को भी, इन महानुभावों को भी। |