कदरें ज़िंदगानी की अपने हाथ मलती हैं
शह् र में फसादोॆं की जब हवायेंचलती हैं
आग जब भड़कती है दिल मेंशरपसंदी की
बेकुसूर लोगों की बस्तियां ही जलती हैं
ज़ह् नियत है बारुदीऔर सोच है आतिश
फ्रिक है नई नस्लें आज कैसे पलती हैं
बेटियां ग़रीबों की सह रही हैंआये दिन
डोलियां पहुंचती हैं अर्थियां निकलती हैं
जैसे मौजें साहिल से मारती हैं सरअपना
मेरी आरज़ूएं यूं करवटें बदलती हैं
यूं सरल मुकम्मल तो कोईभी नहीं होता
मुझ पे क्यों ज़माने की तल्खियां उछलती हैं
बेकुसूर लोगों की बस्तियां ही जलती हैं/वृंदावन राय सरल