जागा लाखों करवटें, भीगा अश्क हज़ार।
तब जा कर मैंने किए, काग़ज काले चार।।1
छोटा हूँ तो क्या हुआ, जैसे आँसू एक।
सागर जैसा स्वाद है, तू चखकर तो देख।।2
मैं ख़ुश हूँ औज़ार बन, तू ही बन हथियार।
वक़्त करेगा फ़ैसला, कौन हुआ बेकार।।3
तू पत्थर की ऐंठ है, मैं पानी की लोच।
तेरी अपनी सोच है, मेरी अपनी सोच।।4
पिंजरे से लड़ते हुए, टूटे हैं जो पंख।
यही बनेंगे एक दिन, आज़ादी के शंख।।5
ख़ाक जिया तू ज़िन्दगी, अगर न छानी ख़ाक।
काँटे बिना गुलाब की, क्या शेखी क्या धाक।।6
सोने-चाँदी से मढ़ी, रख अपनी ठकुरात।
मेरे देवी-देवता, काग़ज़-क़लम-दवात।।7
बेशक़ होगा शाह वो, मैं अलमस्त फ़क़ीर।
उसका पीर कुबेर है, मेरा पीर कबीर।।8
जो भी रख इस हाथ पर, रख इज़्ज़त के साथ।
वर्ना लौटा दे ख़ुदा, मुझको ख़ाली हाथ।।9
अपनी-अपनी पीर का, अपना-अपना पीर।
तुलसी की अपनी जगह, अपनी जगह कबीर।।10
मरा-मरा जिसने रटा, उसने पाया राम।
मैं मूरख सीधा चला, ‘माया मिली न राम’।।11
बस तू ही इक ‘सेर’ है, ऐसा वहम न पाल।
‘सवा सेर’ भी हैं यहाँ, ख़ुद को ज़रा सँभाल।।12
नरेश शांडिल्य