ज्यों पानी पर आग हो , छाँव पहन ले धूप।
सागर में सहरा दिखे , ऐसा तेरा रूप।।1
नोचें भी यदि फूल को , देता है मकरन्द।
बहे क्रौञ्च की पीर से , आदि अनुषटुप छन्द।।2
मैं तो पूरे दृश्य का , समझा यह निहितार्थ।
युद्ध किया था कृष्ण ने , लड़ता दीखा पार्थ।।3
अलग – अलग हैं मोर्चे , अलग – अलग हैं युद्ध।
कृष्ण लड़े जिस युद्ध को , लड़ पाता क्या बुद्ध।।4
मैं ख़ुद में रहता नहीं , मुझमें रहते लोग।
ख़ुद को मैं अपने लिये , करता नहीं प्रयोग।।5
मैं ख़ुद को समझा नहीं , कैसा ये दुर्योग।
मैं क्या हूँ अक्सर मुझे , बतलाते हैं लोग।।6
मनसा – वाचा – कर्मणा , हम यदि हैं शालीन।
इसका मतलब ये नहीं , हमको समझो दीन।।7
वो पैमाना ही नहीं , नाप सके जो व्यास।
एक छोर आसक्ति हूँ , एक छोर संन्यास।।8
अंगारों से दोस्ती , सागर मेरा गेह।
मुझसे आकर वो मिले , होना जिसे विदेह।।9
दिल में इक तूफ़ान है , लेकिन बंद ज़बान।
तरकश में हैं तीर पर , टुटी हुई कमान।।10
फ़तह किये हैं मोर्चे, जीते युद्ध अनन्त।
ख़ुद से युद्ध न कर सका , मैं जीवन पर्यन्त।।11
मैंने ख़ुद को बो दिया , जो भी काटे फ़स्ल।
रक्खे मुझे सहेज कर , आने वाली नस्ल।।12
विज्ञान व्रत