सुनहला साँप/कहानी/जयशंकर प्रसाद
“यह तुम्हारा दुस्साहस है, चन्द्रदेव!” “मैं सत्य कहता हूँ, देवकुमार।” “तुम्हारे सत्य की पहचान बहुत दुर्बल है, क्योंकि उसके प्रकट होने का साधन असत् है। समझता हूँ कि तुम प्रवचन देते समय बहुत ही भावात्मक हो जाते हो। किसी के जीवन का रहस्य, उसका विश्वास समझ लेना हमारी-तुम्हारी बुद्धिरूपी ‘एक्सरेज़’ की पारदर्शिता के परे है।”-कहता […]