ग़ज़ल 1
मेरे ख़्वाबों में रोज़ आते हैं
सोए जज़्बात वो जगाते हैं
वो गुज़रते हैं जिस गली से भी
हर तरफ़ गुल महकते जाते हैं
इश्क़ उनको नहीं अगर हमसे
ज़ख्म पर क्यों नमक लगाते हैं
रात होते ही क्यों सर-ए-मिज़्गाँ
अश्क मोती से झिलमिलाते हैं
हम जिन्हें सूरमा समझते थे
तेग़ वो काठ की चलाते हैं
हमने काग़ज़ प दर्द लिक्खा था
जिसको वो शाइरी बताते हैं
नुक़्ता उनके ज़क़न का क्या कहिए
इस प हम ज़िन्दगी लुटाते हैं
लैल समझेंगे हम भला कैसे
दिन में भी हम दिया जलाते हैं
ग़ज़ल 2
बहुत देर कर दी मियाँ आते आते
कहाँ रुक गए थे यहाँ आते आते
ख़ुशी का मुड़ा कारवाँ आते आते
गई जिस्म से जैसे जाँ आते आते
हवा का समझते ही रुख़ उसने देखो
ख़िज़ाँ को कहा गुल रुख़ाँ आते आते
निशाँ ज़ख़्म-ए-दिल के सभी से छिपाकर
उन्होंने किए बे निशाँ आते आते
समझ कर ज़बाँ माल-ओ-दौलत की उसने
बदल ही दिए सब बयाँ आते आते
ग़ज़ल 3
ज़िक्र-ए-शहीद जब भी कहानी में आएगा
तब तब उबाल लफ़्ज़-ए-बयानी में आएगा
ख़ाली किया गया न अगर सब्र का सुबू
तो यह भी बह के आँख के पानी में आएगा
जब माँ निवाला हाथ से मुझको खिलाएगी
तब ज़िक्र बचपने का कहानी में आएगा
जाने शब ए फ़िराक़ कटेगी भी या नहीं
या वस्ल अपना याददहानी में आएगा
रिश्तों में बढ़ती ख़ुश्क मिज़ाज़ी का ही असर
पजमुर्दा करने वक़्त ए रवानी में आएगा
पजमुर्दा – खिन्न, मलिन, उदास (मुर्झाकर)
मश्क़-ए-सितम की हद भी ज़रा देखिए हुज़ूर
कैसे न नाम दर्द-ए-निहानी में आएगा
निहानीنہانیभीतरी, आन्तरिक, अंदरूनी।
ग़ज़ल 4
‘गर्दिश-ए-दौराँ में ले कर ये सहारा देखना’
सर झुकाना और कर के इस्तिख़ारा देखना
आस्माँ से टूटता जब भी सितारा देखना
भूल कर सब दर्द-ओ-ग़म तुम ख़्वाब प्यारा देखना
‘एक पल में मेरी ख़ुशियाँ इस तरह ओझल हुईं
जैसे हाथों से फिसलता कोई पारा देखना
‘बेच कर इंसानियत वो ले तो आया रोटियाँ
पर हुआ इसमें उसे कितना ख़सारा देखना’
‘फ़ाइदा ढूँढा जो तुमने दूसरों के दर्द में’
कर न पाएगा ज़मीर इसको गवारा देखना
‘आरज़ू दिल में मेरे ‘निर्मल’ यही बाक़ी है अब’
गाँव की इक दफ़्अ आब-ओ-गिल दुबारा देखना
ग़ज़ल 5
जुमले अब इल्म-ओ-अदब वाले पुराने हो गए
लोग जिस दिन से जहालत के दिवाने हो गए
एक शब में नोट सारे ही पुराने हो गए
पल में कितनों के यहाँ ख़ाली ख़ज़ाने हो गए
ज़ात मज़हब पर सियासत ने वो चालें हैं चलीं
एक दूजे के यहाँ दुश्मन घराने हो गए
ईंट गारे से बनी इन शह्र की दीवारों में
रूह को दफ़नाए भी अब तो ज़माने हो गए
नाज़ क्या हमने उठाए जान-ए-मन इक दिन तेरे
पास तेरे रूठने के सौ बहाने हो गए
तज़्किरे जब इश्क़ के ग़ैरों से सुनने को मिलें
तो समझ लेना कि ‘निर्मल’ सब फ़साने हो गए
ग़ज़ल 6
ज़रूरत रोज़ कहती है बशर से
तमन्ना को निकालो अपने सर से
कहाँ तक हम ही बाँधें दिल की डोरी
कभी कोशिश भी हो थोड़ी उधर से
उधर से हम ख़ुशी कैसे बुलाएंँ
करें कुछ शोर तो कम ग़म इधर से
ख़ुदा ऐसा भी हो अब ज़िन्दगी में
बिना बादल ख़ुशी घर मेरे बरसे
‘हज़ारों कोशिशें कीं फिर भी यारो
नहीं उभरे महब्बत के असर से’
हुआ कैसे बराबर इश्क़ में सब
नहीं लौटा है दिल ‘निर्मल’ उधर से
ग़ज़ल 7
उलझा के चक्करों में हमें ज़ात पात के
दुश्मन बहाने ढूँढते हैं रोज़ घात के
फ़िर्क:परस्ती बाँट सकेगी न मुल्क़ को
चाहे सवाल कितने उठा धर्म ज़ात के
हुशियार रहना देख तुझे माटी की क़सम
कर दे अदू न वार अँधेरे में रात के
मेरे वतन की शान तिरंगा है दोस्तो
ऊँचा रखेंगे वो ही जो हैं पाक ज़ात के
सौदा ज़मीर-ओ-दिल का तू करना नहीं कभी
हालात चाहे कैसे भी हों मुश्किलात के
ग़ज़ल 8
गोल गप्पों के बिना बाज़ार से आते नहीं
हैं ज़रा मोटे मगर खाने से शरमाते नहीं
खाते पीते जिंदगी अपनी गुज़ारो दोस्तो
छेड़ दे कोई अगर तो यार घबराते नहीं
जो चिढ़ाये कह के मोटा तो चिढ़ाने दो उसे
सुन के उसकी बात यूँ गुस्से में झल्लाते नहीं
वज़्न जब ये डेढ़ सौ के जी भी उनको कम लगे
शामियाने में भला फिर क्यों समा पाते नहीं
जिनकी किस्मत में मुटापा लिख दिया अल्लाह ने
ख़ूब करते हैं वो कसरत फिर भी कुछ पाते नहीं
चलने से भूकंप का अहसास जब होने लगे
पैर गुस्से में ज़मीं पर मार तब जाते नहीं
जिंदगी को मुरमुरे खा कर यूँ बहलाते नहीं
इस मुटापे से कभी ए दोस्त शर्माते नहीं
ग़ज़ल 9
बस यही है दुआ ज़िन्दगी के लिए
दाद मिलती रहे शाइरी के लिए
राह अंजान है अजनबी के लिए
इक दिया तो जले रोशनी के लिए
जाँ मशीनों सी दिन रात खटती रही
है न आराम कुछ ख़स्तगी के लिए
फैसले दिल के होते निगाहों से ही
शोखियाँ लाज़िमी दिलबरी के लिए
जीत से पहले ही मानकर हार वो
चल पड़ा देखिए रुख़्सती के लिए
इक मसालह सी है ज़िन्दगी हर घड़ी
जीना मरना यहाँ निस्बती के लिए
इश्क़ की राह आसान हो जाये तो
साथ दुनिया चले ख़ुश रवी के लिए
ख़स्तगी weakness, wounded state
मसालह compromise
ख़ुश रवी good walk
ग़ज़ल 10
गीत उलफ़त के यहां गाते हैं सब
क्या इसे सच में समझ पाते हैं सब
रुतबा तो दौलत परस्तों का दिखे
सोना पीतल को भी कह जाते हैं सब
ख़ूं के रिश्ते धोका देते हैं बहुत
मानने से बात शरमाते हैं सब
दर्द अक्सर मिलता अपनों से मगर
इस हक़ीक़त को ही झुठलाते हैं सब
ज़ख्म तो दिल के छिपाता आइना
फिर भी सच्चा इसको बतलाते हैं सब
जिंदगी से सीखा है हमने यही
साथ ताकत हो तो घिघियाते हैं सब
काम कल पर छोड़ते हैं जब कभी
बाद में उस पर ही पछताते हैं सब
ग़ज़ल 11
चटपटी छपें ख़बरें आजकल रिसालों में
झूठ भी दिखे है सच आ के इनकी चालों में
है उन्हें महब्बत या फक़त वह्म मेरा
बीतता है दिन मेरा अब इन्हीं ख़यालों में
काम के निकलते ही वो बनाते हैं चेहरा
जैसे देखा हो पत्थर काली पीली दालों में
उड़ रही है खुशबू देखो ज़रा महब्बत की
फिर तुम आज महका दो बाँध गजरा बालों में
किस्सा अब न लैला मजनूं का ही रहा कोई
इश्क़ की मिसालें अब दिखती कितने सालों में
था मिलन लकीरों में तो मिली ज़ुदाई क्यों
हम जवाब क्या देते खो गए सवालों में
ग़म के लग गये मेले हो गई खुशी ओझल
ढूँढते उसे अब हम मय-कदे शिवालों में
ग़ज़ल 12
बादल में छिपा चाँद निकल आया है घर से
घायल कोई कर दे न इसे तीर ए नज़र से
दिल हमने जलाया है चरागों की ज़गह पर
तुम लौट न जाओ कहीं जु़ल्मात के डर से
मुश्किल हुआ है दर्द गमों का छिपा रखना
हर बार लहर उठ के जा टकराई जिगर से
अश्कों के समंदर में न पतवार चलेगी
अब कश्ती मेरी कौन निकालेगा भँवर से
आये हैं अभी लोग ज़रा जा के ख़बर लो
का़सिद कोई पैगाम न लाया हो नगर से
ग़ज़ल 13
बताएँ किस तरह हम कौन सी मुश्किल में रहते हैं
लिए ईमान की चाहत फ़रेबी दिल में रहते हैं
फ़रेबी ख़्वाहिशें बनकर शिकारी लूटतीं हमको
समझ लीजे कि हम सय्याद की महफ़िल में रहते हैं
हुआ नीला बदन तो राज़ ये हमको समझ आया
हज़ारों साँप छिप कर आस्तीन-ए-दिल में रहते हैं.
फ़िदा होगा ज़माना अर्श के महताब तारों पर
सुहाने ख़्वाब अपने तो ज़क़न के तिल में रहते हैं
नज़र अंदाज़ हम कैसे करें माज़ी के ख़्वाबों को
लिए तस्वीर धुँधली सी ये मुस्तक़बिल में रहते हैं
तमाशा देखकर हैरान हैं बेरह्म दुनिया का
बहुत ख़ुश होती है जब हम किसी मुश्किल में रहते हैं
वहीं पर ज़िन्दगी ले जा के हमको छोड़ देती है
जहाँ दुश्मन हज़ारों जान के मंज़िल में रहते हैं
मौलिक व अप्रकाशित
ग़ज़ल 14
रही उसको शिक़ायत ज़िन्दगी भर
न कर पाया मुहब्बत ज़िन्दगी भर
लबों पर रख के फीकी मुस्कुराहट
छिपाई क्यों हक़ीक़त ज़िन्दगी भर
पियाले में था आब-ए-हैवाँ फिर क्यों
रही थी मुझको हसरत ज़िन्दगी भर
बहुत ढूँढा गली कूचे में लेकिन
मिली हमको न क़िस्मत ज़िन्दगी भर
कभी समझा न उसके आँसुओं को
रही यह भी नदामत ज़िन्दगी भर
बहुत की शाइरी ‘निर्मल’ ने लेकिन
नहीं लिक्खी हक़ीक़त ज़िन्दगी भर
ये ‘निर्मल’ को दुआ दरवेश की है
रहेगी ख़ूबसूरत ज़िन्दगी भर
ग़ज़ल 15
महकता वो चमन लाऊँ कहाँ से
जुदा जिसका तसव्वुर हो ख़िज़ाँ से
कभी पूछा है तुमने कहकशाँ से
हुए गुम क्यों सितारे आसमाँ से
न जाने क्या मिलाया था नज़र में
क़दम हिल भी नहीं पाए वहाँ से
सँभलने के लिए कुछ वक़्त तो दो
अभी उतरा ही है वो आसमाँ से
किसी सूरत बहार आए गुलों पर
उड़ी है इनकी रंगत ही ख़िज़ाँ से
हटा दे तीरगी जो मेरे दिल की
मैं ऐसी रोशनी लाऊँ कहाँ से
अज़ाब-ए-जीस्त रुसवाई ख़मोशी
मिले ‘निर्मल’ को तुहफ़े मह्रबाँ से
ग़ज़ल 16
भूल जा यार दुख पुराने सब
वर्ष पच्चीस आ गया है अब
छूट जाएगा ज़र यहीं पर सब
साथ लेकर गया है कोई कब
कोई शिकवा नहीं रहे दिल में
पा ख़ुशी की तरफ़ बढ़ाएँ जब
दिल के रिश्तों की अहमियत को भी
हमने समझा रहे घरों में जब
ज़ीस्त मिलने लगी कज़ा से गले
होश आया है आदमी को तब
माँग रब से दुआएँ तू ‘निर्मल’
वरना मुश्किल वबा से बचना अब
ग़ज़ल 17
जिसके दिल में भरी गंदगी हो
कैसे रब उसका सच्चा वली हो
हम यही चाहते हैं जहाँ में
हर तरफ़ इल्म की रोशनी हो
वाद-ए-फ़रदा यूँ कर गया वो
जैसे इक उम्र लंबी पड़ी हो
ऐसा लम्हा न गुज़रा अभी तक
मुझसे जब ज़िन्दगी ख़ुश रही हो
उनसे कैसे करें गुफ़्तगू हम
बात जब लब प ही रुक गई हो
क्या लड़ेगा वो यारो जहाँ से
घर की दीवार जिसकी गिरी हो
ग़ज़ल 18
आया है इक स्वाद जो ख़ारा पानी में
जाने किसका चाँद है रोया पानी में
साँझ ढले कल सबसे छिप कर हमने भी
उम्मीदों का दीप जलाया पानी में
शाम ढले जाने किस मछली की ख़ातिर
तारों ने आँचल लहराया पानी में
धीरे धीरे हौले हौले थपका कर
लहरों ने इक संग तराशा पानी में
जाने किस ग़फ़लत में आ कर ‘निर्मल’ वो
बैर मगर से ही ले बैठा पानी में
ग़ज़ल 19
अपनी हर लग़्ज़िश छिपा ली जाएगी
इक क़सम झूठी भी खा ली जाएगी
जिंदगी की शान-ओ-शौकत के लिए
बात कुछ भी अब बना ली जाएगी
दिल में नफ़रत का बसा कर इक नगर
रूह की मय्यत उठा ली जाएगी
हाथ में तस्बीह रंजिश दिल में रख
मक्र की चौसर बिछा ली जाएगी
मक्र चालाकी
अश़्कों ने अल्फ़ाज़ सारे धो दिए
बात फ़िर दिल में दबा ली जाएगी
शह्र में बनते मकानों के लिए
बाग की हर एक डाली जाएगी
ग़ज़ल 20
जाने क्या आज वो बड़बड़ाते रहे
अपनी बातों से बस कान खाते रहे
हम महब्बत के नग़मे सुनाते रहे
वो कहीं ओर नज़रें लड़ाते रहे
उनके जाने से ठहरी नहीं ज़िन्दगी
वो मगर हर क़दम याद आते रहे
शाम आती रही आस लाती रही
गीत हम भी मुहब्बत के गाते रहेे
आपको सेल्फियों से न फ़ुरसत मिली
प्लेट पर प्लेट दुश्मन उड़ाते रहे
तेरी चिक चिक से बचने को हम सारा दिन
झाड़ू पोछा भी घर में लगाते रहे
मुस्कुराती हुईं सालियाँ देखकर
दिन में भी ख़्वाब ‘निर्मल’ सजाते रहे
ग़ज़ल 21
अपने जज़्बात की दुनिया में नुमाइश नहीं की
दिल ने उकसाया बहुत हमने ही कोशिश नहीं की
यह नहीं कहते कि हमने कोई लग़्ज़िश नहीं की
पर कभी अपने गुनाहों की नुमाइश नहीं की
दिल के सहरा के लिए किससे करें शिकवा हम
ख़ुद की तकदीर ने जब हम पे नवाज़िश नहीं की
चाक दामन ने बता दी है कहानी सबको
मेरे होंटों ने तो हल्की सी भी जुम्बिश नहीं की
ज़िन्दगी ख़ाक हुई जाती है जिसकी खातिर
उसने इस जज़्बे की थोड़ी भी सताइश नहीं की
ढूँढता था मेरे हर लफ़्ज़ में वो मुझको मगर
बिखरे हर्फ़ों में कभी पढ़ने की कोशिश नहीं की
जानते हैं कि कभी सच नहीं वो बोलेगा
इसलिए हमने वजाहत की गुज़ारिश नहीं की
देखिए हक़ से जियाद: तो कभी भी हमने
इस ज़माने से तो क्या ख़ुद से भी ख़्वाहिश नहीं की
ग़ज़ल 22
आदमी ऐसा देखा नहीं है
कर के अहसाँ जो कहता नहीं है
आपने क्यों ये जाना नहीं है
सोचकर कुछ भी होता नहीं है
ठोकरों से ही सीखा है हमने
ज़िन्दगी सीधा रस्ता नहीं है
गर्द कहती है उसकी जबीं की
हारना उसने सीखा नहीं है
धूप में पाँव जलने लगे हैं
साथ ख़ुद का भी साया नहीं है
बाद मुद्दत के हम जान पाए
दिल तो बस दिल है पिंजरा नहीं है
जिन्दगी मुश्किलों के सिवा क्या
पास कुछ तेरे तुहफ़ा नहीं है
क्यों समझती नहीं है तू ‘निर्मल’
साँस लेना ही जीना नहीं ह
ग़ज़ल 23
अपनी हर बात से मुकरता है
आदमी कब ख़ुदा से डरता है
जब सर-ए-शाम ग़म सँवरता है
आइना टूटकर बिखरता है
आज का काम आज ख़त्म करें
वक़्त किसके लिए ठहरता है
तेरी तस्वीर में मेरे दिलबर
रंग मेरे लहू से भरता है
शर्म की तोड़कर ही दीवारें
आदमी हद को पार करता है
है अजीब-ओ-गरीब अपना सफ़र
रोज़ मक़्तल प आ ठहरता है
जितनी तहज़ीब मैं दिखाता हूँ
उतना ही मुझ प वो बिफरता है
आँसुओं से ख़ुतूत लिख कर ही
संग-ए-दिल पर निशाँ उभरता है
एक सन्नाटा आज भी ‘निर्मल’
दिल के हर कोने में उतरता है
ग़ज़ल 24
दिल के अरमान जलने लगे हैं
रंग अपना बदलने लगे हैं
देख कर ख़्वाब की किर्चियाँ हम
आँखें अपनी मसलने लगे हैं
उनके दीदार की आरज़ू में
हम भी छत पर टहलने लगे हैं
ऐसी बारिश हुई आँसुओं की
दिल के काग़ज़ भी गलने लगे हैं
डर के दुनिया के ज़ुल्म -ओ-सितम से
ज़ह्न ख़ुद ही निगलने लगे हैं
जब से बढ़ने लगी है जहालत
खोटे सिक्के भी चलने लगे हैं
चापलूसी में अब लोग ‘निर्मल’
हद से आगे निकलने लगे है
ग़ज़ल 25
अश्कों में डूब कर भी क्या मैंने पा लिया था
दरिया अज़ाब का इक मुझ में समा रहा था
उसको हज़ार नख़रे सह के बुला भी लेते
पर अब वो दिल कहाँ था जो उसको चाहता था
जाँ हो चुकी थी ख़स्ता आफ़त गले पड़ी थी
इक नाग ख़्वाहिशों का रह रह के डस रहा था
सब बेअसर दुआएँ झोली में रो रहीं थीं
था शह्र पत्थरों का जिसमें वो जा बसा था
नादानियाँ तो देखो इस दिलजले की यारो
दीवार अपने घर की ख़ुद बढ़ के ढा रहा था
हम कितना और झुकते इस ज़िन्दगी के आगे
हर बात पर थे नख़रे रस्ता भी तो जुदा था
हासिल न रोशनी यूँ खुर्शीद को हुई थी
लड़कर अँधेरों से ही वो अर्श पर दिखा था
ग़ज़ल 26
दोस्तों के बिना ज़िन्दगी दोस्तो
इक कहानी उदासी भरी दोस्तो
बीच में फ़ासले ला के दौलत के क्यों
आज़माने लगी दोस्ती दोस्तो
हाथ में हाथ डाले खड़ी दोस्ती
गर्दिश-ए-दौराँ से लड़ के भी दोस्तो
कारवाँ अज़्म का रोके रुकता नहीं
राह चाहे हो मुश्किल भरी दोस्तो
हार बैठे हैं दिल कू-ए-उल्फ़त में हम
अब न खेलेंगे बाजी नई दोस्तो
सुब्ह होते ही बेहिस जहाँ के सितम
ढूँढ लेंगे हमारी गली दोस्तो
लब से कुछ भी नहीं कह सके थे मगर
फिर भी समझा था वो अनकही दोस्तो
दर्द सहते रहे अश्क बहते रहे
पर शिकायत किसी से न की दोस्तो
रात लम्बी भी थी और तारीक भी
जिससे ‘निर्मल’ बख़ूबी लड़ी दोस्तो
ग़ज़ल 27
सीधे सच्चे भोले भाले आदमी
रोज़ मरते रोज़ जीते आदमी
ज़िन्दगी भर खा के धक्के आदमी
उम्र जैसे तैसे काटे आदमी
वो ज़माना और था देखो यहाँ
अब कहाँ मिलते हैं सच्चे आदमी
चार दिन की ज़िन्दगानी के लिए
उम्रभर सपने सँजोए आदमी
ज़िन्दगी जन्नत है आख़िर दोस्तो
क्यों इसे दोज़ख़ बनाए आदमी
क़त्ल कर इंसानियत का देखिए
बन गया हैवान कैसे आदमी
मुश्किलें आसान सब होने लगें
गर अना को भूल जाए आदमी
मुश्किलों से पार पाने के लिए
रात दिन तस्बीह फेरे आदमी
चार कांधों की जरूरत के लिए
ढो रहा है कितने रिश्ते आदमी
इल्तिजा करती है निर्मल ए ख़ुदा
अब ज़मीर अपना न बेचे आदमी
ग़ज़ल 28
आजकल क्यों है हमसे ख़फ़ा ज़िन्दगी
चाहती क्या है आख़िर बता ज़िन्दगी
मार दे या मुझे तू बचा ज़िन्दगी
फ़ैसला जो भी है वो सुना ज़िन्दगी
रब्त ऊला का सानी से मिलता नहीं
जब से हमने लिया क़ाफ़िया ज़िन्दगी
बढ़ती ही जा रहीं हैं परेशानियाँ
इनका हल तो हमें कुछ बता ज़िन्दगी
ज़ाविया रोशनी का समझ जाएँ’गे
तीरगी की रिदा तो हटा ज़िन्दगी
ख़्वाब ‘ निर्मल ‘ की आँखों में ज़िंदा हैं जब
क्यों तू गाने लगी मर्सिया ज़िन्दगी
ग़ज़ल 29
रिश्तों में ला रहा क्यों दरार आदमी
हरकतें अपनी कुछ तो सुधार आदमी (1)
जब यहाँ जान की कोई कीमत नहीं
कैसे कह दूँ कि करता है प्यार आदमी (2)
कान कच्चे रखे बात आधी सुने
ग़फ़लतों का हुआ है शिकार आदमी (3)
भूलता जा रहा अपनी तहज़ीब को
डिग्रियाँ ले रहा बेशुमार आदमी (4)
जानवर था,रहा जानवर सा ही वो
कर रहा रूह को शर्मसार आदमी (5)
मुफ्त खोरी की लत ने जकड़ क्या लिया (6)
बन गया कुर्सी का चाटुकार आदमी
कौड़ियों से भी सस्ती हुई जान है
मैं की खातिर उठाता कटार आदमी (7)
चंद सिक्के ज़रा जेब में क्या बजे (7)
हो गया झुनझुनों में शुमार आदमी
आ गई जानवर की सिफ़त इसमें फिर
बोटियाँ देख टपकाये लार आदमी (8)
ग़ज़ल 30
दोस्ती दिल से निभाता है बराबर आइना
जानता हर दर्द दिल का मुझ से बेहतर आइना
भूलने देता नहीं और मुँह से कुछ कहता नहीं
खोलता सब राज़ पल में,देख लो गर आइना
अश्क पीना दर्द सहना जिंदगी है क्या यही
क्यों जवाब इक ढूँढता है मुझमें अक्सर आइना
काटती हो जब उदासी दिल बहुत ग़मगीन हो
सामने रह दिल की सुनता जैसे जाँ बर आइना
देखता अंजान बन के जिस्म के जब हर ज़ख्म को
दिल करे बस तोड़ दूँ अब मार पत्थर आइना
आदमी हैवान बन जब लूटता मज़लूम को
तब मदद के वास्ते बनता है ख़ंजर आइना
ग़ज़ल 31
आँखों को बंद करने से सूरज का क्या गया
यारा अँधेरा रूह प तेरी ही छा गया
पहचान बाक़ी अपनों में इतनी सी ही रही
मेरे ही गाँव में मुझे शहरी कहा गया
क्या और भी है रास्ता जीने का दोस्तो
साँसों के चलते रहने से मैं तंग आ गया
अच्छी लगी थी क़ीमतें मेरे ज़मीर की
पर ऐन वक़्त पर ही उसे होश आ गया
उलझी सी ज़िन्दगी के सिरे जब मिले नहीं
किस्मत को दोष दे के वो दामन छुड़ा गया
बेफ़ैज़ ख्वाहिशों का ही ‘निर्मल’ सिला था यह
जो हर किसी के सामने झुकता चला गय
बे फ़ैज़
miserly, not bestowing any, benefit
ग़ज़ल 32
ख़ामियों पर जब तलक ख़ुद की नज़र होगी नहीं
ख़ूब होगी ज़िन्दगी पर ख़ूब-तर होगी नहीं
कब तलक अपने ही ज़ख़्मों पर करें हम शाइरी
जानते हैं यह दवा भी कारगर होगी नहीं
हर गली कूचे में बैठे हैं मुनाफ़िक़ प्यार के
अब ज़मीर ओ ज़ह्न वालों की गुज़र होगी नहीं
पत्थरों से बढ़ गईं नज़दीकियाँ कुछ इस तरह
रूह के ज़ख़्मों की दिल को अब ख़बर होगी नहीं
शान-ओ-शौकत ये महल चौबारे हैं किस काम के
छाँव सर पर आपके रिश्तों की गर होगी नहीं
जाने कितने राज़ दिल में दफ़्न कर बैठे हैं हम
जिनकी जीते जी तो दुनिया को ख़बर होगी नहीं
हौसलों से लड़ के ही ग़म के अँधेरे जाएँगे
फिर न कहना तू कि इस शब की सहर होगी नहीं
तिफ़्ल की हर बिगड़ी ख़ू पर बंद आँखें करने से
बोल ‘निर्मल’ क्या ज़माने की नज़र होगी नहीं
ग़ज़ल 33
है जिधर मेरी नज़र उसकी नज़र जाने तो दो
कायनात ए इश्क़ को हर सू बिखर जाने तो दो
क्या हमें हासिल हुआ इस ज़िन्दगी से दोस्तो
सब बताएंगे मगर जाँ से गुज़र जाने तो दो
हम अदालत में करेंगे पैरवी हर झूठ की
शर्म आँखों की ज़रा सी और मर जाने तो दो
तर्के निस्बत का भी मातम तुम मना लेना मगर
ताज दिल का टूट कर पहले बिखर जाने तो दो
आँख से बहता समंदर बाँध कर रखना ज़रा
कतरा कतरा ज़िन्दगी को तुम बिखर जाने तो दो
ए हवाओ तुम गिराना शौक से दिल का महल
पहले उसको बेवफ़ाई पर उतर जाने तो दो
रूह को आजाद करना जिस्म से “निर्मल’ मगर
जाँ ब लब इन ख़्वाहिशों को पूरा मर जाने तो दो
जाँ ब लब : मृत प्राय
ग़ज़ल 34
अश्कों में डूब कर भी क्या मैंने पा लिया था
दरिया अज़ाब का इक मुझ में समा रहा था
उसको हज़ार नख़रे सह के बुला भी लेते
पर अब वो दिल कहाँ था जो उसको चाहता था
जाँ हो चुकी थी ख़स्ता आफ़त गले पड़ी थी
इक नाग ख़्वाहिशों का रह रह के डस रहा था
सब बेअसर दुआएँ झोली में रो रहीं थीं
था शह्र पत्थरों का जिसमें वो जा बसा था
नादानियाँ तो देखो इस दिलजले की यारो
दीवार अपने घर की ख़ुद बढ़ के ढा रहा था
हम कितना और झुकते इस ज़िन्दगी के आगे
हर बात पर थे नख़रे रस्ता भी तो जुदा था
हासिल न रोशनी यूँ खुर्शीद को हुई थी
लड़कर अँधेरों से ही वो चर्ख़ पर दिखा था
ग़ज़ल 35
दिल से उठती आवाज़ें वहशत ने चुप करवा ली थीं
पर उस ख़ामोशी ने भी जानें कितनों की निकाली थीं
उसकी सूरत भोली भाली और अँखियाँ मतवाली थीं
हमने भी बिन सोचे समझे जाँ की कसमें खा लीं थीं
ऐसा भी था दिन तन्हा और रातें काली काली थीं
भीड़ लगी थी हर जानिब पर दिल की गलियाँ ख़ाली थीं
जैसे ही अशआर से अपने झलका दर्द गरीबों का
दुनिया की छोड़ो अपनों ने तलवारें मँगवा ली थीं
ख़ूब निराले थे बेहिस मदहोश जवानी के क़िस्से
कोरे दिल के साँचे में अन्जानी शक्लें ढाली थीं
अपने अश्कों से ‘निर्मल’ ने दो हिज्जे क्या लिख डाले
अपनों के चहरे बदले औरों की नज़रें सवाली थीं
ग़ज़ल 36
नसीब ही गर लगा दे ठोकर तो ऐसी हालत में क्या करेंगे
पकड़ के मेहनत का हाथ उसके बदलने की हम दुआ करेंगे
सजा के महफ़िल वो बेवफ़ाई की पूछते हैं कि क्या करेंगे
सँभाले मिज़्गाँ प अश्क़ हमने कहा सनम अब जफ़ा करेंगे
उदास रातों में सर्द रिश्तों की उलझनों को परे हटाकर
हज़ार सपने छिपा के सबसे महब्बतों के बुना करेंगे
हज़ार नाले हों जिंदगी के सिसक के चाहे गुज़र रही हो
मगर ख़यालों में ख़्वाहिशों के लगा के पर हम उड़ा करेंगे
जला रखा है चराग़ हमने जहाँ महब्बत धड़क रही है
जो आस थोड़ी है दिल में ज़िंदा उसी के दम पर जिया करेंगे
बिखरती किरणें उमीद की कह रहीं हैं हमदम न उजड़ा कुछ भी
तुम्हारी मेहनत के आब से ही हज़ारों गुलशन खिला करेंगे
फ़िराक़ में ये मुहीब रातें ये ग़म के बादल ये बेक़रारी
तुम्हें हमारे दरीदा-दिल का पयाम ‘निर्मल’ दिया करेंगे
मिज़्गाँ : पलक
दरीदा : व्यथित
मुहीब : ख़ौफनाक
ग़ज़ल 37
ज़ीस्त के जाते नहीं गम क्या करें
है नहीं लड़ने का भी दम क्या करें
जख्म ऐसे हैं कि भरते ही नहीं
इन पे लगता भी न मरहम क्या करें
उम्र भर पतझड़ में बीती ज़िन्दगी
अब बहारों के लिए हम क्या करें
ले रहे बर्बादियों में भी मज़ा
अब नहीं होता है मातम क्या करें
मुस्कुराकर देखते हैं आईना
आँख फिर भी होती है नम क्या करें
लब कुशाई कर रहे अफ़्ताल सब
बात सुनते ही नहीं हम क्या करें
थक गए हैं और चल सकते नहीं
पूरे रस्ते मिल रहे ख़म क्या करें
ग़ज़ल 38
और होता नहीं सफ़र मुझसे
दूर कितना है मेरा घर मुझसे
और मत कर अगर मगर मुझसे
बेझिझक कह दे दर्द-ए-सर मुझसे
कर दे पिंजरा मेरा ज़रा सा बड़ा
अब सिमटते नहीं हैं पर मुझसे
पर्दा हर राज़ से उठा दूँ मगर
इस पे सौदा तो पहले कर मुझसे
सुन ले ए बेवफ़ा तेरे ग़म में
अब नहीं होती आँख तर मुझसे
फ़ासला था फ़कत नज़र का मगर
तू रहा फ़िर भी बेख़बर मुझसे
ग़ज़ल 39
प्यासी धरती पर ख़ुदा की मह्रबानी चाहिए
मरती फ़सलों के लिए बारिश का पानी चाहिए
फिर से माना रुत महब्बत की ये आनी चाहिए
पर निशानी ज़ख़्म की पहले मिटानी चाहिए
ख़्वाहिशों की क़ब्र पर बहते हुए कुछ अश्क हों
और कुछ गुज़री हुई यादें भी पुरानी चाहिए
क्यों किसी के हाथ में मजबूरियों के छाले हों
उसके दिल से यार उठनी सरगिरानी चाहिए
सब्र कितना और कब तक तू करेगी ज़िन्दगी
अब यक़ीनन तुझको करनी हक़-बयानी चाहिए
अपनी मंज़िल के लिए मंज़ूर गर ज़िल्लत नहीं
तो जबीं से ख़ाक भी ख़ुद ही हटानी चाहिए
ज़िन्दगी कटती रहे चाहे ग़मों की क़ैद में
बस ख़यालों में ख़ुशी की बदगुमानी चाहिए
कब तलक डर के रहेगी अपनी परछाईं से भी
अब नहीं निर्मल को ऐसी ज़िन्दगानी चाहिए
ग़ज़ल 40
वक़्त के दाग़ छुपाने में उलझ जाता हूँ
झुर्रियाँ रुख़ की मिटाने में उलझ जाता हूँ
अजनबी लगने लगा लम्स तेरा जब से मुझे
तब से उल्फ़त भी जताने में उलझ जाता हूँ
रज़्म और प्यार महब्बत में ज़रूरी हैं बहुत
रब्त दोनों का बिठाने में उलझ जाता हूँ
झूठ फ़र्राटे से वो बोलता दिखता है मुझे
और मैं सच को दिखाने में उलझ जाता हूँ
कीमतें आसमाँ छूने लगीं जब से “निर्मल”
पेट की आग बुझाने में उलझ जाता हूँ
ग़ज़ल 41
मंदिर में मस्ज़िदों में इक सा हबीब देखा
तस्बीह से दुआ से पलटा नसीब देखा
कल रात ख़्वाब मैंने कैसा अजीब देखा
दौलत के ढेर पर भी इक दिल ग़रीब देखा
अंधा हो ख़्वाहिशों में औजार हाथ में ले
ख़ुद आदमी बनाता अपनी सलीब देखा
खुशियों के मयकदे में कल रात दोस्तो ने
अश्क़ों में लड़खड़ाता अपना नसीब देखा
कल अपने आइने में झूठी अना से डर कर
“निर्मल” ने दिल में बैठा ग़ाफिल मुहीब देखा
ग़ज़ल 42
क्या मिला तुझको ख़ाक़ सर करके
वो गया देख चश्म तर करके
‘ज़िन्दगी में मेरी बचा क्या है’
जो रखूँ उसको मैं कवर करके
‘मर गईं ख़्वाहिशें मेरे दिल की’
हर दुआ मेरी बेअसर करके
‘ज़िन्दगी ने बहुत है दौड़ाया
थक गई हूँ मैं अब सफ़र करके
‘ज़िन्दगी चार दिन की है इसमें’
क्यों जियें हम अगर मगर करके
दिल में निर्मल बहुत है तन्हाई
क्या करूँगी बड़ा जिगर करके
ग़ज़ल43
महब्बत की शरीअत में अमल होता है वाजिब क्या
ज़बरदस्ती किसी पर हक़ जताना है मुनासिब क्या
हिसाब ए उम्र में निकले ख़सारे ही ख़सारे हैं
तभी सारे जहाँ के ग़म हुए मुझसे मुख़ातिब क्या
कभी तोला है सिक्कों में कभी तौहीन की मेरी
बता दो यह समझते हो मुझे अपना मुसाहिब क्या
यहाँ क्यों चल रहे हैं तेरे मेरे इश्क़ के चर्चे
इशारा हिचकियों ने कर दिया है तेरी जानिब क्या
सबक़ जीने का देते हो कभी इसको कभी उसको
कभी खाई है तुमने अपनों से ठोकर भी साहिब क्या
ग़ज़ल 44
बीते फ़रेब में दिन और रात मयकशी में
पाएगा इस तरह क्या आखिर तू ज़िन्दगी में
ख़ुशियों का क्या कहें हम कुछ कम नहीं हैं ग़म भी
करते हैं तंग दोनों अपनी कहा सुनी में
आईं कभी न ख़ुशियाँ दिल में बहार बनकर
अब इंतिज़ार कितना बाक़ी है ज़िन्दगी में
रिश्ता निभा रहा है माँ बाप बाँट कर वो
इंसानियत को मरते देखा है आदमी में
दुश्वारियों में पाया अपनों को भी पराया
है साथ कौन आख़िर गहराती तीरगी में
कुछ फ़ासले भी हैं और कुछ ख़्वाहिशें हैं बाक़ी
जारी हैं कोशिशें भी इस दौर-ए-गुमरही में
कर्मों की डायरी में लिख ले हिसाब ‘निर्मल’
क्या कुछ गँवा चुकी है तू अपनी ज़िन्दगी में
ग़ज़ल 45
ग़रीबों को वबाएँ मुज़्महिल कर मुस्कुराती हैं
बुझा कर आग चूल्हे की ग़मों में छोड़ जाती हैं
बड़ी बारीक होती हैं वफ़ा की डोरियाँ यारो
‘मगर मज़बूत इतनी हैं सनम को बाँध लाती हैं’
हज़ारों हादसों के बाद भी आगे बढ़े जाना
‘सबक़ ये ज़िन्दगी की ठोकरें हमको सिखाती हैं
नशीली आँखों के सदक़े हज़ारों मयकदे हैं पर
‘कभी सोचा वो कितने आँसुओं को पी के आती हैं’
‘इरादे नेक हों गर ज़िन्दगी में हमने देखा है
हज़ारों मुश्किलें इंसाँ को आ कर आज़माती हैं’
हों ‘निर्मल’ कोशिशें कुछ ख़्वाहिशों के पार जाने की
तो ख़ुशियाँ ख़ुद बख़ुद इंसाँ की जानिब दौड़ी आती हैं
ग़ज़ल 46
बस अब ख़ुदा को बीच में लाना बहुत हुआ
ले ले के उसका नाम डराना बहुत हुआ
मैं पूछता हूं तुझसे, तू मुझको हिसाब दे
क्यों मेरे दिल में ग़म का ठिकाना बहुत हुआ
ऐ मौत करके देख कभी दो-दो हाथ भी
अब थोथी भभकियों से डराना बहुत हुआ
हर बार यार मैं ही ख़तावार क्यों बनूं
सुन मुझको बेवकूफ़ बनाना बहुत हुआ
पकड़े हैं कान अपने करेंगे न इश्क़ विश्क़
” इस आशिक़ी में जान से जाना बहुत हुआ “
अब और सह सकेंगे नहीं जिंदगी तुझे
हर सांस पर उधार चुकाना बहुत हुआ
रखना अगर है जिंदा तो जीने का हक़ भी दे
एहसान वरना तेरे गिनाना बहुत हुआ
अपनी भी ग़ल्तियाँ तू गिना दे ज़रा मुझे
मुझको गुनाहगार बताना बहुत हुआ
ग़ज़ल 47
सिर पे पांव रख हमारे चढ़ रहे हो सीढ़ियाँ
क्यों गिरा के दलदलों में मांगते मुआफियाँ
जिंदगी में देख लीं बहुत सी हमने आंधियाँ
खत्म हो चुके हैं अश्क बंद सी हैं सिस्कियाँ
दास्ताने जिंदगी सुना सके न हम कभी
दर खुदा के आ खड़े ले चंद हम भी अर्जि़याँ
छा रही है तीरगी न रोशनी दिखे कहीं
मौत है बुला रही दे जिंदगी भी धमकियाँ
चापलूसी बोलती न मेहनतों का मोल है
बिक रही कलम लगी सुखनवरों की बोलियाँ
बारिशों की है झड़ी या अश्क को गुरूर है
खेल कर वो आब से डुबा रहे है कश्तियाँ
जिंदगी किताब सी खुली पडी थी सामने
किस्मतों के खेल हैं गिना रही थी गलतियाँ
बचपना,पुकारता है बेकरार मन मेरा
दोस्तों की भेड़ चाल औऱ मौज मस्तियाँ
साथ छोड़ चल दिये मकान खाली रह गया
हों मुबारकें तुम्हें नई तुम्हारी बस्तियाँ
ग़ज़ल 48
दोस्ती का कभी रिश्ता जो निभाया होता
उसके हाथों में ये ख़ंजर तो न आया होता
इल्म किरदार समझने का जो आया होता
एक हमदम तो वफ़ादारी में पाया होता
किसको मालूम यहाँ कौन रहा करता है
दिल के दरवाज़े प कुछ नाम लिखाया होता
ज़िन्दगी रोज़ नए रंग में डूबी होती
दिल अगर हमने भी पत्थर सा बनाया होता
हम भी तूफ़ान उठा देते इन्हीं लहरों में
हाथ तुमने जो न हाथों से छुड़ाया होता
फ़ाइदा अब नहीं ‘निर्मल’ तेरे पछताने का
पहली बारिश में ही घर अपना बचाया होता
धूप ‘निर्मल’ की यहाँ जान लिये जाती है
गर नहीं पेड़ तो दीवार का साया होता
ग़ज़ल 49
मैं जब अपने क़द से बड़ा हो गया
ख़ुदा मेरा मुझसे ख़फा हो गया
मेरे साथ गम का चले कारवाँ
अकेला मैं फ़िर क्यों बता हो गया
जिसे छूना मुमकिन नहीं दोस्तो
समझ लो वही अब ख़ुदा हो गया
नहीं ज़िन्दगी ज़िन्दगी सी रही
सफ़र यह भी अब बदमज़ा हो गया
मियाँ शाइरी की बदौलत हमें
तसव्वुर का इक आसरा हो गया
अँधेरों की आदत बना लीजिए
ज़िया से अधिक फ़ासला हो गया
नज़र को नज़र से मिलाते ही वो
मेरा हमसफ़र रहनुमा हो गया
कलाकारी बातिल की तो देखिए
पलों में ही सब सच हवा हो गया
नहीं पाक़ ‘निर्मल’ की ख़ूगर मगर
तू कब दूध जैसा धुला हो गया
ग़ज़ल 50
जी ले ये ज़िन्दगी ज़िन्दगी की तरह
आदमी जो रहे आदमी की तरह’
रह न पाएगी दिल में मेरे तीरगी
तुम जो इसमें बसो रौशनी की तरह
सीख कर हर हुनर मेरे शागिर्द ने
मुझको लूटा किसी अजनबी की तरह
सब असर शह्र की बदमिज़ाजी का है
बन गया भीड़ मैं भी उसी की तरह
हाथ में हाथ थामे हुए उम्र भर
साथ चलते रहे अजनबी की तरह
इक समंदर की चाहत में ता उम्र मैं
पत्थरों में बही थी नदी की तरह
ख़ाली दीवारों के साथ “निर्मल” तू भी
देख तन्हा पड़ी है घड़ी की तरह
ग़ज़ल 51
आंसू पी कर देखो तुमको मुस्काना तो होगा
वरना सबके होंठों पर इक अफ़्साना तो होगा
सूनी आंखें मुस्काते लब रिसते ज़ख़्मो का भी
तेरे दिल में इनका कुछ ताना बाना तो होगा
रोती आंखों पर हँसते हो क्यों ए मेरे हमदम
राज़ तुम्हें इक दिन यह मुझको बतलाना तो होगा
बिन सोचे बिन समझे हम जो अपना दिल खो बैठे
नादानी के उन बातों से पछताना तो होगा
अपना माज़ी पीछे छोड़ो कल की यारो सोचो
दिल को अपने उम्मीदों से बहलाना तो होगा
लेखक
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रचना निर्मल जन्मतिथि - 05 अगस्त 1969 जन्म स्थान - पंजाब (जालंधर) शिक्षा - स्नातकोत्तर प्रकाशन- 5 साझा संग्रह उल्लेखनीय सम्मान/पुरस्कार महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार, कई राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर पर पुरस्कार संप्रति - प्रवक्ता ( राजनीति विज्ञान) संपर्क - 202/A 3rd floor Arjun Nagar
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