जब हवाओं में है आग की-सी लहर
देखिए, खिल रहे गुलमोहर किस क़दर!
हौसले की बुलन्दी न कम हो कभी
आदमी के लिए ही बना हर शिखर
उस तरफ़ का किनारा न उसके लिए
जिसके भीतर भरा डूब जाने का डर
ज़िन्दगी बे-उसूलों की ऐसी लगे
जैसे बे-शाख़, बिन पत्तियों का शजर
चाँदनी में चिराग़ों को मत भूलिए
चार दिन चाँदनी फिर अँधेरी डगर
पहले जैसी कहाँ गाँव की छाँव है
गाँव में घुस रहा रफ़्ता-रफ़्ता शहर
बाख़ुशी आप बेशक वफ़ा कीजिए
दर्द होगा सिला ढूँढिएगा अगर
जब हवाओं में है आग की-सी लहर/ग़ज़ल/रवीन्द्र उपाध्याय