शिकार सूर्य-चाँद के है साज़िशों का आसमां
बढ़ी फिर आज तारों के दिलों के बीच दूरियाँ
था आदमी की रग में रब रवाँ तो ख़ून सा सदा
पर उसको ढूँढते रहे न जाने हम कहाँ-कहाँ
कभी जला कभी बुझा दिया तो था दिया ही पर
जला तो था वो रोशनी बुझा तो बस धुआँ-धुआ
लगे कि साथ चाहिए तो ढूँढ तुम सको मुझे
इसी से रास्ते में छोड़ आए कुछ निशानियाँ
जो लोग आए दाँत की तरह कभी रुके नहीं
मगर जो ख़ैरख़्वाह थे वो हैं कि जैसे है ज़ुबां
वहीं पे छेद था जहाँ कुछ अपने ही थे वरना तो
समंदरों में दम न था डूबाते मेरी कश्तियाँ
मिज़ाज पूछने ही आए थे मेरे अज़ीज़ सब
मगर वो साथ लाए थे शिकायतों की इक दुकां
था ज़ोर बादलों में कब छुपा लें आसमान को
जो साजिशें हुई थीं वो हवाओं के थी दरमियां
ये ज़िंदगी के सिलसिले कभी कहीं रुके नहीं
रहे सदा ही इम्तिहां के आगे और इम्तिहां
शिकार सूर्य-चाँद के है साज़िशों का आसमां/ग़ज़ल/अंजू केशव