न ही हिंदू मुसलमां सिक्ख ईसाई समझते हैं
किसी मज़हब की कीमत कब ये बलवाई समझते हैं
हुनर होता है ये भी इक बना देना पहाड़ उसका
सभी जिस बात को छोटी सी बस राई समझते हैं
है जिनकी ज़िंदगी का अर्थ बस दो जून की रोटी
बताएँगे वही अच्छे से मँहगाई समझते हैं
अभी पहचान की शुरुआत है अंजाम है बाक़ी
मगर नादान इसको ही शनासाई समझते हैं
रखा करते हैं वो रिश्तों को अपने ख़ैरियत से जो
न इस नुकसान की है कोई भरपाई समझते हैं
मेरे पैरों के नीचे से जमीं जब भी खिसकती है
वजह होता वही जिसको कि हम भाई समझते हैं
जगह है इक वही बस दस्तख़त की जान लें वो भी
जो होती व्यर्थ पन्ने में है चौथाई समझते हैं
न ही हिंदू मुसलमां सिक्ख ईसाई समझते हैं /ग़ज़ल/अंजू केशव