जब मैं जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी का गला पकड़कर उसे दीवाल से सटाया तब मुझे पारितोषिक सजा के रूप में सोन के पहाड़ियों का बनवास दिया गया। मेरा तबादला ब्लॉक म्योरपुर जिला सोनभद्र के डुमरांव गांव में किया गया। यह समाचार जब मेरे घर में पता चली तब बाबूजी खुश हुए और मुझे नौकरी छोड़ने को कहा । तब वह समय था जब लोगों को खेती, चरवाई और पहलवानी के आगे कुछ अच्छा नहीं लगता था। कारण, सरकारी नौकरी की कीमत चवन्नी की नहीं थी बल्कि उससे आमद ही चवन्नी का था। उस समय एक रुपये किलो दूध हुआ करता था। तीन अखाड़ों की कसरत मैं अकेले कराता था। लोग मास्टर पहलवान नाम से दूर-दूर तक जानते थे।
मैंने भी जाने की ज़िद ठानी थी, मेरे जाने कर पिता जी दुःखी थे और उन्होंने मुझसे कई दिनों तक बात नहीं की। लेकिन मुझे नौकरी करना था। मैं बिना बताये, भोर में ही घर से निकल गया। उस समय साधन और संसाधन आज की तरह नहीं हुआ करते थे। रास्तों पर टीपू (चोरों) का डर हमेशा बना रहता था। सोन की पहाड़ियों में नौकरी करना बम्बई के दुकानों पर दरवेज बनने से भी बुरा था। मैं जब अहरौरा पार कर गया तब घोरावल के लिये बैल गाड़ी से गया। घोरावल बाजार पहुँचने के बीच रास्ते में तीन जगह बैल को पानी और चारे के लिए रुकना पड़ा। घोरावल से डाला और फिर हाथीनाला के लिए कोई साधन उपलब्ध नहीं होते थे। वहाँ तक पैदल जाना पड़ता था। सुबह से शाम तक पैदल यात्रा। घने जंगलों में जानवरों और चोरों का डर हमेशा बना रहता था। दो दिनों की यात्रा के बाद मैं गंतव्य स्थल डुमरांव पहुँचा। मैं पहला हेडमास्टर था जो डुंगराव गाँव आया था। यहाँ, लोग मुझे अचरज भरी निगाहों से देख रहे थे। विद्यालय के नाम पर एक खपड़ैल का पुराना मिट्टी का घर था, जिसका फेरवट सालों से नहीं हुआ था। जगह एकदम नई थी, लेकिन लोग बड़े अच्छे थे। यहाँ खासकर गोंड जनजाति के लोग रहते थे। बड़े शान्त स्वभाव के लोग थे। वो मुझे माटर कहकर बुलाते थे। आदिवासीयों का जीवन और तरीका हमारे अखाड़ों से एकदम भिन्न था। यहाँ अखाड़े नहीं थे, बल्कि जानवरों के शिकार ही इनकी आदत और शौक़ भी था। डुमरांव एकदम उदास जगह था। यहाँ, अक्सर शाम के समय म्योरपुर के घने जंगलों में अजीब सी आवाजे आती हैं, यहाँ पहाड़ियों और जंगलों के बीच में एक उदासीन माहौल रहता है। गाँव में सूखे के समय जंगलों में छोड़े गए पशु और उनपर तेंदुओं के झपट की वह विभत्स आवाजें मानों कानों की मार्मिकता को झकझोर देते थे। आदिवासियों का जीवन और उनके संघर्ष को मैंने कभी महसूस नहीं किया था। यहाँ सन्नाटों के बीच में कभी-कभी तो कोई सामूहिक आयोजन होता है। हर दूसरा मकान एक मकान से काफी दूर था। यहाँ एक साथ इंसान और जानवर तो रहते हैं, यही सोच कर मैं आया था। लेकिन यहाँ आने के बाद पता चला आदिवासी जीवन में अन्य समाज का घुसपैठ हो चुका है। यहाँ अब, इंसान और जानवरों के बीच में पागल भी रहते हैं।
एक दिन अचानक एक महिला मेरे स्कूल के सामने आकर खड़ी मेरे तरफ देख रही थी। उसका उम्र लगभग 35 साल रहा होगा, मैंने उसे आवाज देकर बुलाया, थोड़ी दूर पर खड़ी एक और आदिवासी महिला ने मुझे बताया कि वह पागल है ,कुछ भी खींच कर मार देगी। मैंने उससे पूछा, वह किसके घर की महिला है, दूसरी महिला ने कहा यह गोरन अंग्रेंजवन की पनौती है। मैं ठीक से समझ नहीं पाया। अपने विद्यालय के अंदर वाले कमरे में जाकर आराम करने लगा। थोड़ी देर बाद मेरे कोठरी के खिड़की पर किसी ने पत्थर के टुकड़े से जोर से मारा। मैं बाहर निकलकर देखा तो वही पागल महिला थी। शाम को गांव के मुखिया जी के घर एक कार्यक्रम में गया। कार्यक्रम खत्म हो गया तो मैंने मुखिया जी से दोपहर के घटना के बारे में सब कुछ बताया। मुखिया जी बताने लगे, जहाँ आज मेरा विद्यालय था वहां कभी अंग्रेजों का पोस्टऑफिस हुआ करता था। उस समय एक अंग्रेज अफसर जिसका नाम हडसन हुआ करता था, वही यहां रहता था। वह अफसर आजादी के बाद भी सन 1970 तक वहीं रहा। उसने इस पागल महिला के माता जी से शादी किया था। उसी से वह लड़की पैदा हुई थी। हडसन के मरने के पहले की उसकी आदिवासी पत्नी मर गई। उस गोरे अफसर ने उसे पढ़ाया- लिखाया। लेकिन आदिवासी समाज ने उसे नहीं अपनाया। उस समय गांव का मुखिया आदिवासी संघर्ष में संथालों के साथ लड़ा था। बाद में ,जब हडसन की मृत्यु हुई, तब वह लड़की बेसहारा हो गयी। क्षेत्र के घुसपैठ लकड़ी के तस्करों और भूमाफियाओं ने उस लड़की के साथ, एक रात उसी पोस्टऑफिस में दुष्कर्म किया। उसके बाद वह लड़की वहाँ के समाज के लिए और भी अभिशाप हो गयी। देखते-देखते उसके साथ छेड़खानी के किस्से आम हो गए। स्थिति यह हो गयी कि वह लड़की पागल होकर घर छोड़ कर गाँव- गाँव घूमने लगी। मुखिया जी ने यह भी बताया कि आज भी मनचले लड़के उसके साथ छेड़छाड़ करते रहते हैं।
मैं चुपचाप उस महिला के बारे में सोचता रहा। मुझे अब समझ आया कि उस विद्यालय में उसने मुझे देख कर क्यों पत्थर फेंक कर मारा। मुझे उस रात उस विद्यालय में जाने का मन नहीं था, क्योंकि जिसे मैंने विद्या का मंदिर समझा वह जगह किसी के पागलपन का कारण रह चुका था। मेरा मन उस जगह को छोड़ कर जाने को कह रहा था। आज विद्यालय में अंदर सोने पर मुझे नींद नहीं आयी। पता नहीं क्यों उस महिला के निगाहों का भय मेरे सामने बार- बार उभर कर आ रहा था।
अगले दिन मैं सुबह नहा कर अपनी टेबल पर बैठ कर गांव के लोगों का सूची बना रहा था। अचानक देखा! वह महिला पत्थर लेकर मेरे सामने कुछ दूर पर खड़ी थी। मैं चुपचाप बैठा रहा वह मुझे देख रही थी। मैं उसके एकदम नजदीक जाकर खड़ा हो गया। मेरे माथे से डर के मारे पसीना निकला जा रहा था। लगभग एक मिनट तक, वह हमको देखती रही फिर अचानक से चली गयी। इस घटना के बाद, एक साल मैं और उस विद्यालय पर रहा। लेकिन वह कभी नहीं आयी। जून का महीना था मेरा तबादला अपने क्षेत्र में हो गया था, विद्यालय छोड़ने के दिन गांव वाले लोग अपने घर से कुछ न कुछ लेकर आये। मेरा झोला पूरा भर गया था। जब मैं गांव से सन्नाटे के रास्ते पर जा रहा था तो देखा कि वह पागल महिला एक पेड़ के नीचे बैठी मुझे देख रही थी। आज उसकी आँखों में ख़ौफ़ नहीं था। मैं उसके पास गया और अपने भारी झोले को उतार कर उसके पास रख दिया। मैं रजिस्टर और एक अपना पर्सनल झोला लेकर वहां से आगे निकल पड़ा। मैंने, उस महिला को पलट कर नहीं देखा। पता नहीं वर्षों के क्रूर अत्याचार के बाद, मेरे मौन व्यवहार पर उसके चेहरे का भाव कैसा रहा होगा! मैंने सोन के पहाड़ियों के सन्नाटे को तो तीन सालों में बेहतर तरीके से देखा था। लेकिन उस सन्नाटे के पीछे के उस सोर को मैंने महसूस किया।
सोन के पहाड़ियों का सन्नाटा/प्रवीण वशिष्ठ