तक तक कर पथरा गईं, आँखे प्रभु जी आज |
कब से रहा पुकारता, बैठे कहाँ विराज |
बैठे कहाँ विराज, हृदय से सदा बुलाया ।
नाम कृपा निधि झूठ, कृपा अब तक नहिं पाया |
सुनिए यह चित्कार, बुलाये रविकर पातक |
मिटा अन्यथा याद, याद प्रभु तेरी घातक ॥
बना क्रोध भी पुण्य जब, झपटा गिद्ध जटायु।
सहनशीलता भीष्म की, कर दे दूषित वायु।
कर दे दूषित वायु, दुशासन नंगा नाचा।
शर-शैया पर पाप, मारता रहा तमाचा।
पाया गोद जटायु, बना लेते प्रभु अपना।
होता देख अधर्म, रहे चुप रविकर अब ना।।
भूलो सब, कह बोलते, पैसा समय भविष्य।
क्रमश: अर्जन अनुसरण, करलो उद्यम शिष्य।
करलो उद्यम शिष्य, किन्तु कहती गुरुवाणी।
सुमिरन करो सदैव, समर्पण करके प्राणी।
करो परम पद प्राप्त, उछलकर नभ को छू लो।
मनवांछित फल पाय, मगन मन खुद को भूलो।
जब है उम्र ढलान पर, समय सरकता तेज।
तेज घटा तो क्या हुआ, जो भी बचा सहेज।।
जो भी बचा सहेज, इंतजारी अब छोड़ो।
इंतजाम प्रारम्भ, ईश से नाता जोड़ो।
काम क्रोध मद त्याग, मोक्ष की बारी अब है।
रविकर का वैराग्य, किन्तु हे ईश अजब है।।
शांता भगिनी राम की, भूले तुलसीदास |
त्याग-तपस्या बहन की, भूल चुका इतिहास |
भूल चुका इतिहास, लगे यह रिश्ता नीरस |
माँ समान सम्मान, मिले बहनों को बरबस |
लेकिन रविकर क्षोभ, लगा रिश्तों का ताँता |
किन्तु उपेक्षित दीख, राम की भगिनी शांता ||
कलाकार दोनों बड़े, रचते बुत उत्कृष्ट।
लेकिन प्रभु के बुत बुरे, करते काम निकृष्ट।
करते काम निकृष्ट, परस्पर लड़ें निरन्तर।
शिल्पी मूर्ति बनाय, रखे मंदिर के अंदर।
करते सभी प्रणाम, फहरती उच्च पताका।
रविकर तू भी देख, धरा पर असर कला का।।
भरत मनाने आ रहे, मार्ग कंटकाकीर्ण।
करो शूल को फूल माँ, रघुपति हृदय विदीर्ण।
रघुपति हृदय विदीर्ण, भरत काँटे सह लेगा।
मेरे प्रति अति स्नेह, किन्तु दारुण दुख देगा।
इसी मार्ग से भ्रात, गये काँटों में बिधकर।
परेशान हों भरत, बहाये अश्रु भराभर।
केवट अपने हाथ पर, धुला पैर रखवाय।
धोता दूजा पैर तो, राम चंद्र गिर जांय।
राम चंद्र गिर जांय, देख गति केवट बोले।
पकड़ो मेरा माथ, ताकि यह देह न डोले।
कहें राम जब भक्त, गिरे मैं थामूं झटपट।
आज भक्त ले थाम, धन्य है रविकर केवट।।
आया शिशु तो स्वच्छ थे, दिल दिमाग मन देह ।
काम क्रोध मद की मगर, प्रलयंकारी मेह।
प्रलयंकारी मेह, प्रभावित दिल हो जाता।
करता रक्त विशुद्ध, लालिमा किन्तु गँवाता।
दिल काला हो जाय, द्वेष ने सतत् जलाया।
होते बाल सफेद, धुआँ जो उड़कर आया।।
छींका पर घंटी बँधी, करें कृष्ण मनुहार।
मौन साधकर घंटिका, करती फिर उपकार।
करती फिर उपकार, गोप-गण माखन खाते।
किन्तु श्याम ज्यों ग्रास, होंठ से दिखे लगाते।
बजी आदतन तेज, खींचती ध्यान सभी का।
लगा रहे प्रभु भोग, देख लो बोला छींका।।
भावुकता में मत बहो, रविकर रहो सतर्क।
दोनों हों यदि संतुलित, पड़े नहीं तब फर्क।
पड़े नहीं तब फर्क, संतुलन करना सीखो।
कर योगासन ध्यान, संतुलित करते दीखो।
पता नहीं कब लोग, मार के भागें चाबुक।
रहना सदा सतर्क, नहीं होना अति भावुक।।
दौड़ाये हर कार को, कुत्ता बारम्बार।
लक्ष्य सुनिश्चित है मगर, पल्ले पड़ती हार।
पल्ले पड़ती हार, पकड़कर क्या कर लेगा।
मानव यूँ ही दौड़, अन्ततः पाता ठेंगा।
रविकर तू मत दौड़, महामाया भरमाये।
लोभ मोह मद द्वेष, रोज कुत्ता दौड़ाये।।
मन से पढ़ो किताब तो, पावन कर दे देह ।
कानों में मिश्री घुले, प्राणिजगत से नेह ।
प्राणिजगत से नेह, निभाती रिश्ता हरदम ।
लेकर जाओ गेह, मित्र ये रहबर अनुपम ।
मानस मोती पाय, अघाए रविकर सज्जन।
साबुन तेल बगैर, शुद्ध कर देती तन-मन।
कुण्डलियां/आध्यात्मिक/”सुभाषित”/दिनेश चन्द्र गुप्ता ‘रविकर’